मित्रों हर बार यह तरही मुशायरा उत्साह से भर देता है। ऐसा लगता है कि परिवार का गेट टु गेदर हो गया है। एक दूसरे से मिलना-मिलाना, स्नेह, प्रेम, आशिर्वाद। दीपावली का मतलब यही तो होता है। सबसे अच्छी बात यह होती है कि तरही में लोग उत्साह के साथ आते हैं। लम्बे-लम्बे कमेंट्स द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। यही अपनापन तो इस ब्लॉग की पहचान है।
इस बार जो मिसरा दिया गया था उसमें छोटी ईता का दोष बनने की संभावना थी। जब भी हम मात्रा को क़ाफिया की ध्वनि बनाते हैं तो यह होने की संभावना बढ़ जाती है। हालाँकि छोटी ईता के दोष को अब उतना नहीं देखा जाता, किन्तु दोष तो दोष होता है। जैसे इस बार के मिसरे में “ए” की मात्रा क़ाफ़िये की ध्वनि थी। अब यदि आपने “दिखे” और “सुने” को मतले में क़ाफ़िया बनाया, तो यदि “दिखे” में से “ए” की मात्रा हटाई जाए तो शब्द बचता है “दिख” जो कि एक अर्थवान शब्द है, उसी प्रकार यदि “सुने” में से “ए” की मात्रा हटाई जाए तो शब्द बचता है “सुन” जो कि पुनः एक अर्थवान शब्द है। और ईता के दोष के बारे में हम जानते हैं कि उसमें यह नियम है कि मतले के दोनों मिसरों में क़ाफ़िया के शब्दों में से क़ाफ़िया की ध्वनि हटाने पर किसी एक मिसरे के शब्द (ध्यान दें कि किसी एक मिसरे में, दोनों में होना आवश्यक नहीं है, हो जाए तो भी ठीक) को अर्थहीन हो जाना चाहिए। जैसे “फ़ासले” में से “ए” की मात्रा हटा देने पर “फ़ासल” शब्द बचेगा जो अर्थहीन शब्द है। इसका मतलब यह कि हमें मतले में किसी एक मिसरे में फ़ासले, सिलसिले, फ़ायदे, पूछते जैसे शब्द का क़ाफ़िया बनाना होगा। मैं एक बार फिर से कह रहा हूँ कि छोटी ईता को आजकल इग्नोर किया जाता है, किन्तु यदि हम बच कर चल सकें तो उसमें बुरा ही क्या है ?
तो मित्रों हम आज दीपावली के तरही मुशायरे का विधिवत् समापन करने जा रहे हैं। जैसा कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के ने वादा किया था कि वे आएँगे तो वे आ चुक हैं। लम्बी ग़़ज़ल झिलाना उनकी आदत है सो ज़ाहिर सी बात है वे लम्म्म्म्बी ग़ज़ल ही लेकर आए हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता है। मतले का शेर, गिरह का शेर और मकते का शेर हटा कर कुल पच्चीस शेर भभ्भड़ कवि भौंचक्के ने कहे हैं। झेलना आपकी मजबूरी है सो झेलिए…….
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
सभी को दीपावली की राम-राम भभ्भड़ की ओर से पहुँचे। इस बार जो ग़ज़ल कही है वह पूरी प्रेम पर है। क्योंकि इस समय पूरी दुनिया को प्रेम की बहुत ज़रूरत है। हाँ बस गिरह को कुछ अलग तरीके से लगाने की कोशिश की है। पूरी ग़ज़ल को कुछ पारंपरिक तरीके से कहने की कोशिश की है। बातचीत के अंदाज़ में। आशा है आपको पसंद आएगी। सूचना समाप्त हुई।
पहाड़ों के मुसलसल रतजगे हैं
न जाने प्रेम में किसके पड़े हैं
ज़रा तो रात भी है ये अँधेरी
और उस पे वो भी थोड़ा साँवले हैं
जहाँ बोए थे तुमने लम्स अपने
वहाँ अब भी महकते मोगरे हैं
हमारे ज़िक्र पर उनका ये कहना
"हाँ शायद इनको हम पहचानते हैं"
फ़साना आशिक़ी का है यही बस
अधूरे ख़्वाब, टूटे सिलसिले हैं
हुआ है इश्क़ बरख़ुरदार तुमको
तभी ये आँख में डोरे पड़े हैं
है मुश्किल तो अगर दिल टूट जाए
मगर फिर फ़ायदे ही फ़ायदे हैं
कोई पागल भला होता है यूँ ही
तुम्हारे नैन ही जादू भरे हैं
कहा बच्चों से हँस कर चाँदनी ने
“तुम्हारे चाँद मामा बावरे हैं”
है अंजामे-मुहब्बत ये दोराहा
यहाँ से अपने-अपने रास्ते हैं
तेरी आँखों ने, ज़ुल्फ़ों ने, हया ने
ग़ज़ल के शेर हमने कब कहे हैं
"उजाले के दरीचे खुल रहे हैं"
नहीं है दिल लगा जिनका अभी तक
भला वो रात कैसे काटते हैं
बजी है बाँसुरी पतझड़ की फिर से
हज़ारों दर्द सोते से जगे हैं
फ़क़त हम ही नहीं गिनते सितारे
सुना है वो भी शब भर जागते हैं
ज़रा कुछ बच-बचा के चलिए साहब
हमारे हज़रते-दिल सिरफिरे हैं
रहे पल भर अकेला कोई कैसे
तुम्हारे घर में कितने आईने हैं
कहानी मुख़्तसर है रात भर की
कई मौसम मगर आए-गए हैं
मुकम्मल जो हुआ, वो मर गया फिर
अधूरे प्रेम सदियों से हरे हैं
दवा इतनी है मर्ज़े-इश्क़ की बस
है क़ाबू में, वो जब तक सामने हैं
नहीं कुछ लोग मरते दम तलक भी
मुहब्बत का मोहल्ला छोड़ते हैं
इन्हें सिखलाओ कोई इश्क़ करना
ये बच्चे तो बहुत सच बोलते हैं
हवा है, फिर हवा है, फिर हवा है
हमारे बीच कितने फ़ासले हैं
था दावा तो भुला देने का लेकिन
हमारा हाल सबसे पूछते हैं
इलाही ! और साँसें बस ज़रा-सी
ख़बर है घर से वो चल तो दिए हैं
दिया जाए जवाब इसका भला क्या
"हो किसके प्रेम में ?" वो पूछते हैं
है शहरे-इश्क़ से रिश्ता पुराना
यहाँ सब लोग हमको जानते हैं
“सुबीर” उस टोनही लड़की से बचना
नयन उसके निशाना ढूँढ़ते हैं
मित्रों यदि ठीक-ठाक लगे ग़ज़ल तो दाद-वाद दे दीजिएगा, वरना कोई ज़रूरी नहीं है। यह आज समापन है दीपावली के तरही मुशायरे का, अब हम इंशा अल्लाह मिलेंगे नए साल के तरही मुशायरे में। तब तक जय राम जी की।