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Channel: सुबीर संवाद सेवा
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आइये आज होली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं चार रचनाकारों के साथ। आज होली के रंग लेकर आ रहे हैं राकेश खंडेलवाल जी, निर्मल सिद्धू जी, कुमार प्रजापति जी और भुवन निस्तेज।

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मित्रों कल बहुत अच्छे से मुशायरे की शुरुआत हुई होली के मुशायरे को दोनों रचनाकारों ने नए रंग से भर दिया। होली पर हम हमेशा धमाल रचते हैं, इस बार होली का धमाल अंतिम दिन ही देखने को मिलेगा। अंतिम दिन मतलब होली वाले दिन मचेगा यह धमाल। होता क्या है कि धमाल के चक्कर में ग़ज़लें अनसुनी रह जाती हैं। तो यह सोचा कि होली का धमाल अलग से मचाया जाए और ग़ज़लें अलग सुनी जाएँ। इसलिए ही अभी आपको होली का धमाल देखने को नहीं मिल रहा है।

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

इस बार मिसरे को लेकर बहुत सी बातें हो चुकी हैं, लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि उसके बाद भी इतनी सारी ग़ज़लें आईं हैं। अलग अलग क़ाफियों के साथ। असल में हमारा ठीक इससे पूर्व का मुशायरा जो होली पर हुआ था उसमें भी क़ाफिये की ध्वनि यही थी, इसलिए सुविधा यह भी है कि पिछली बार की ग़ज़लों में से काफिये छाँट लिए जाएँ। ध्यानपूर्वक क्योंकि सारे नहीं चलेंगे कुछ ही चलेंगे।

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आइये आज चार रचनाकारों के साथ होली के इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। राकेश खंडेलवाल जी ने तीन बहुत सुंदर गीत भेजे हैं जो रोज़ एक के क्रम में आपके सामने आएँगे। निर्मल सिद्धू जी होली के मुशायरे की गाड़ी दौड़ते भागते पकड़ ही लेते हैं। और भुवन निस्तेज और कुमार प्रजापति  होली के मुशायरे में शायद पहली बार आ रहे हैं, आइये चारों के साथ मनाते हैं होली का यह अगला अंक।

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राकेश खंडेलवाल

सोच की खिड़कियां हो गई फ़ाल्गुनी
सिर्फ़ दिखते गुलालों के बादल उड़े
फूल टेसू के कुछ मुस्कुराते हुये
पीली सरसों के आकर चिकुर में जड़े
गैल बरसाने से नंद के गांव की
गा रही है उमंगें पिरो छन्द में
पूर्णिमा की किरन प्रिज़्म से छन कहे
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

स्वर्णमय यौवनी ओढ़नी ओढ़ कर
धान की ये छरहरी खड़ी बालियाँ
पा निमंत्रण नए चेतिया प्रीत के
स्नेह बोकर सजाती हुई क्यारियां
साग पर जो चने के है बूटे लगे
गुनगुनाते  मचलते से सारंग है
और सम्बोधनो की डगर से कहे
आओ रंग दें तुम्हरे प्रीत के रंग में

चौक में सिल से बतियाते लोढ़े खनक
पिस  रही पोस्त गिरियों की ठंडाइयाँ
आंगनों में घिरे स्वर चुहल से भरे
देवरों, नन्द भाभी की चिट्कारियाँ
मौसमी इस छुअन से न कोई बचा
जम्मू, केरल में, गुजरात में, बंग में
कह रही ब्रज में गुंजित हुई बांसुरी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पनघटों पे खनकती हुई पैंजनी
उड़्ती खेतों में चूनर बनी है धनक
ओढ़ सिन्दूर संध्या लजाती हुई
सुरमई रात में भर रही है चमक 
मौसमी करवटें, मन के उल्लास अब
एक चलता है दूजे के पासंग में
भोर से रात तक के प्रहर सब कहें
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पूर्णिमा की किरण प्रिज्म से छन कर कहे, वाह राकेश जी इसी कला के तो हम सब कायल हैं। आपके गीतों में जो बिम्ब उभर कर आते हैं वो अद्भुत होते हैं। टेसू के फूलों का सरसों के चिकुर में आकर जड़ना वाह क्या बात है। पहले की बंद में चेतिया प्रीत का निमंत्रण तो कमाल कमाल है। चने के बूटे और सारंगों के मचलने का प्रतीक तो मानों उफ युम्मा टाइप का बन पड़ा है। दूसरे बंद में पोस्त गिरियों की ठंडाइयों का सिल और लोढ़े पर पिसना मन में ठंडक भर गया, लगा कि अभी दौड़ कर एक गिलास तो पी ही लें। और उस पर जम्मू से केरल तक ब्रज में गुंजित बाँसुरी का गूँज जाना तो बस पूरे देश में होली के रंग का एक अनूठा नमूना है। और तीसरे बंद में संध्या का लजाना ऐसा लगा मानों दूर ढलते सूरज की लालिमा आस पास फैल गई है। और अंत में भोर से रात तक के प्रहर सब के सब इश्क़ के रंग में रँगने को तैयार हैं। वाह क्या कमाल का गीत है। राकेश जी को यूँ ही तो नहीं कहा जाता गीतों का राजकुमार। वाह वाह क्या कमाल का गीत है।

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भुवन निस्तेज

राख उड़ती रही सुगबुगे रंग में
आप रंगते रहे मसअले रंग में

हाशिये भी अगरचे रँगे रंग में
रँग गए अब तो हर जाविये रंग में

रात भर ख्वाब आकर डराते रहे
और आई सुबह रतजगे रंग में

रंगसाजी करे खुद ब खुद फैसला
बस्ती फूलों की कैसे रँगे रंग में

आपके रंग में जाफरानी हवा
आपको सादगी क्या दिखे रंग में

पर्वतों से उफनती नदी ज़िन्दगी
गुनगुनाने लगी बावरे रंग में

आस्तीनों में ख़ंजर लबों पर हँसी
क्या हुई है वफ़ा आज के रंग में

बात ये खार से कौन कहता यहाँ
'आओ रंग दूँ तुम्हें इश्क के रंग में'

अब ये लहज़ा ग़ज़ल का बदलिये हुजूर
लाइए अब कहन को नए रंग में

ये नहर ने नदी से है पूछा 'सुनों
क्यों हमेशा से हो सरफिरे रंग में ?'

शायरी में दिखाओ असर फागुनी
हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।

मतले का शेर ही पूरी ग़ज़ल का रंग पहले से बता रहा है कि यह अपने समय पर कटाक्ष करती हुई ग़ज़ल होने को है। और पूरी ग़ज़ल वैसी ही है भी। मतला ही हमारे पूरे समय पर चोट करता हुआ गुज़रता है।रात भर ख़्वाबों का आकर डराना और फिर सुब्ह का रतजगे के रंग में आना, कवि की कल्पना का कमाल है यह। रंगसाज़ी वाले शेर में रँगे को ही क़ाफिया बना कर कवि ने एक और कमाल कर दिया है। और यह क़ाफिया भी पूरी तरह से निर्वाह हो गया है। आपके रंग में जाफरानी हवा अगर ध्यान से सुना जाए तो इसकी ध्वनियाँ गंभीर पोलेटिकल व्यंग्य से भरी हैं। आस्तीनों में ख़जर और लबों पर हँसी हमारा सच में आज का समय है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बनाया है, फूलों और काँटों का तुलनात्मक शेर बहुत कमाल के साथ रचा है शायर ने। और नहर का नदी से पूछना कि तुम हर समय सरफिरे रंग में क्यों हो, बहुत अच्छी कल्पना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। तीखे व्यंग्य के साथ। वाह वाह वाह कमाल।

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निर्मल सिद्धू

तुम भी रँग जाओगे फिर मेरे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश
डूब तो लो ज़रा इस नये रंग में

अब तो मौसम भी मदहोश होने लगा
क्यूँ न हम भी घुलें मदभरे रंग में

रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब 
जबसे देखा है तुझको हरे रंग में

साये ग़म के कभी पास आते नहीं
जब रहे हम सदा प्यार के रंग में

मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
आदमी ढल रहा कौन से रंग में

वाह वाह वाह क्या ग़ज़ल कही है। मतले में ही गिरह ठीक प्रकार से बाँधा गया है। अपने ही रंग में रँगना ही तो असल इश्क़ होता है। किसी दूसरे को अपने रंग में रँग लेना यही तो प्रेम है और मतले का शेर उस भावना को बहुत ही अच्छे से व्यक्त कर रहा है। पहला ही शेर एक निमंत्रण है अपने ही रंग में डूब जाने का। और एक चुनौती के साथ निमंत्रण है कि यह जो रंग है यह चढ़ गया तो उतरने वाला नहीं है। और मौसम फागुन का हो तो मद भरा रंग तो बिखरना ही है चारों ओर। रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब में किसी एक को हरे रंग में देख लेना और उसके बाद हर रंग फीका हो जाना, वाह क्या बात है यह शेर हर पढ़ने वाले को यादों में ज़रूर ले जाएगा। और फिर वही बात कि जब तक हम प्रेम में हैं सबसे प्यार कर रहे हैं तब तक ग़म के साये कभी पास नहीं आते। और अंत तक आते-आते प्रेम को सूफ़ियाना अंदाज़ प्रेम के रंग को भी अपने रंग में रँग लेता है। वाह वाह वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

KUMAR PRAJAPATI

कृष्ण कुमार प्रजापति

देख लेना सुधार आएगा ढंग में
आओ रंग दे तुम्हें इश्क़ के रंग में

उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
किस तरह आ गयी जान इक संग में

सीने छलनी हुए कट के सर गिर पड़े
कितने कम आ गए आन की जंग में

इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था
क्या मिलाया है तूने मेरी भंग में

उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा
बिजलियों सी जलन है तेरे अंग में

अपनी साँसे मेरी सासों में घोल दे
देख जमना बहा करती है गंग में

सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में

कुमार जी को शायद क़ाफिया समझने में कुछ ग़फ़लत हो गई है। उन्होंने ए की मात्रा के स्थान पर रंग को ही क़ाफिया बना लिया है। इस ब्लॉग की परंपरा है कि यहाँ जो रचनाएँ आ जाती हैं सबका सम्मान किया जाता है इस अनुरोध के साथ कि आगे से यह ग़फ़लत नहीं हो। मतला ही बहुत खूब बन पड़ा है जिसमें इश्क़ के माध्यम से सुधारे जाने की बात कही गई है। इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था में किसीके हाथों को छूकर नशे के और बढ़ जाने की बात बहुत ही सुंदर तरीक़े से कह दी गई है। वस्ल को लेकर दो अच्छे शेर कह दिये हैं कुमार जी ने पहले तो उँगलियाँ जल उठने वाला शेर है जो प्रेम के दैहिक रूप को प्रकट करता है और उसके बाद अपनी साँसें मेरी साँसों में घोलने का अनुरोध प्रेम के दूसरे रूहानी पक्ष की बात करता है। और अंत में मकते का शेर बहुत छोटी सी कामना के साथ सामने आया है जिसमें केवल चंद फूलों की बात की गई है पूरे गुलशन के स्थान पर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।  
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लीजिए तो आज के चारों रचनाकारों ने होली के माहौल को अलग ही रंग में रँग दिया है। आपका काम तो वही है दाद दीजिए और खुल कर दाद दीजिए। दाद देते रहने में ही आपकी भलाई है नहीं तो होली पर आपके फोटो के साथ क्या होगा यह ख़ुदा ही जानता है।


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