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Channel: सुबीर संवाद सेवा
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आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।

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बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। बासी दीपावली उन मेहमानों के लिए भी मनाई जाती है, जो किसी कारण समय पर नहीं आ पाते हैं और दीपावली के बाद पहुँचते हैं। और यहाँ तो हम उनके लिए भी दीपावली मनाते हैं, जो अपनी रचनाधर्मिता की ऊर्जा से एक से अधिक रचनाएँ भेजते हैं। आदरणीय राकेश जी की रचनाएँ हमारी बासी दीपावली का एक प्रमुख आकर्षण रहती हैं। साथ ही इस बार युवा ग़ज़लकार गुरप्रीत सिंह ने भी दो ग़ज़लें भेजी थीं, एक दीवाली के पूर्व हम सुन चुके हैं दूसरी आज सुनते हैं। और नकुल गौतम ने ट्रेन पकड़ने में देर कर दी इसलिए वे दीपावली के बाद आ रहे हैं। बासी दीपावली का उद्देश्य होता है अपने जीवन में दीपावली को कुछ दिनों तक और बचा कर रखना।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।
 
नकुल गौतम

कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक
किसी ज़िद्दी से आशिक़ की तरह शब भर जले दीपक
मुखालिफ़ हैं बुराई के सभी घर-घर डटे दीपक
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"

है मिट्टी ही मगर गुज़री है कूज़ागर के हाथों से
कोई मूरत हुई तेरी तो कुछ से बन गए दीपक
न अंधेरे में शिद्दत है न परवाने जुनूनी हैं
भला किसके लिये अब इन हवाओं से लड़े दीपक

है दीवाली बहाना शहर से बच्चों के आने का
सजा रक्खे हैं नानी ने कई छोटे-बड़े दीपक
हुई मुद्दत कि शब भर घी पिलाती थी इन्हें अम्मा
लगें बीमार अब झालर की रौनक से दबे दीपक

किसी शाइर के मन में रात-दिन पकते ख़यालों से
किसी को रौशनी देंगे ये भट्ठी में पके दीपक
भरे बाज़ार थे हर सू फिरंगी लालटेनों से
दिलेरी से पुराने चौक पर मुस्तैद थे दीपक

मतला ही बहुत सुंदर तरीक़े से प्रारंभ कर रहा है ग़ज़ल को।उस पर मिसरा सानी तो एकदम कमाल है, विशेष कर किसी ज़िद्दी आशिक़ की तरह शब भर जलने की बात। अगले ही शेर में हुस्ने मतला के रूप में गिरह का शेर भी आ गया है, बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी है। मिट्टी और कूज़ागर के मिलन का शेर बहुत सुंदर बना है, एकदम नए तरीक़े का शेर। और अंधेरे, परवानों तथा हवाओं का शेर तो बीते दिनों की याद दिला देता है। रात भर दीपकों को घी पिलाती अम्मा का बिम्ब तो बचपन के गलियारों में ले गया हाथ पकड़ कर। बहुत सुंदर। और जब हर तरफ़ केवल आयातित झालरों और कंदीलों का उजाला ही मिल रहा हो तो ऐसे में माटी के दीपक सच में पुराने चौक पर ही मिलेंगे। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

 
राकेश खण्डेलवाल जी

कहें श्री कृष्ण गीता में, करोड़ों सूर्य मैं ही हूँ
पराजय का तमस भी मैं, विजय का तूर्य मैं ही हूँ
सृजक हूँ मैं, संहारक मैं, मैं पालक हूँ सकल जग का
बिना इंगित के मेरे तो, कोई पत्ता नहीं हिलता
जनम का भी, मरण का भी अकेला एक कारण हूँ
अकल्पित मैं, अजन्मा मैं, स्वयं अपना उदाहरण हूँ

तमस् मेरी ही परछाई, प्रकाशित एक मैं दीपक
उजालों का मुहाफ़िज़ मैं, तिमिर से जो लड़े दीपक


सुबह की कोई अंगड़ाई, थकावट साँझ की भारी
चषक धन्वन्तरि का मैं, जो बढ़ती, मैं महामारी
मैं कारण भी, अकारण भी, कोई आए कोई जाए
किसी के नयन भीगे हों, सदा ही कोई मुसकाए
रहा हर शोक पल भर ही तो फिर है किसलिए रोना
हुआ कब वक्त है संचित, जो पाता है उसे खोना

हुआ हर पल शुरू मुझसे, खतम होना है मुझ ही पर
उजालों के मुहाफ़िज़ है़ तिमिर से लड़ रहे दीपक


अंधेरा बन घिरा मैं ही, उजाला बन मिटाता हूँ
तिमिर से ज्योति के पथ तक डगर मैं ही सिखाता हूँ
कसौटी सत्य की मैं हूँ, भरम की मैं बनी छाया
कहाँ क्या रूप है मेरा कोई कब जान यह पाता
दिवाली मैं, दशहरा मैं, मैं ही हूँ राम, मैं बाली
मैं ही सम्पूर्ण ज्योतिर्मय, मैं ही हूँ शून्य सा ख़ाली

उजाला पांडवों का मैं, अंधेरा रूप हैं कौरव
उजाले का मुहाफ़िज मैं, निरंतर जो जले, दीपक।
कहीं अगर कोई कह रहा हो कि एक पूरी किताब को एक गीत में ढालना असंभव है, तो उसे यह गीत पढ़वाया जाए कि किसी प्रकार गीता को एक गीत में ढाल दिया है आदरणीय राकेश जी ने।  गीता-गीत, अरे वाह यह तो कमाल का नाम रखा गया है। पहले ही बंद में कृष्ण द्वारा कहा गया सारा दर्शन समा गया है। सृजक, संहारक, पालक से लेकर अंतिम कारण की बात कितने सुंदर तरीक़े से कही गई है। उसके बाद अगले बंद में धन्वन्तकि का चषक और महामारी तक सब कुछ और फिर पाने से लेकर खोने तक का सब कुछ एक ही कारण से होता है। अंतिम बंद तो बहुत सुंदर बना है गीत का, दीवाली से दशहरा और राम से लेकर बाली तक सब कुछ उसी ज्योतिर्मय में समा रहा है। बहुत ही सुंदर गीत, वाह, वाह, वाह।


गुरप्रीत सिंह जम्मू

अंधेरा काटते दीपक, उजाला बांटते दीपक
युगों से धर्म ये अपना निभाते आ रहे दीपक
बुझाना चाहता है जो, उसे भी रौशनी ही दें
न जाने कौन सी मिट्टी के आख़िर हैं बने दीपक

फकत उम्मीद के ही दम पे रौशन हैं कोई जीवन
ख़ुदाया बुझने मत देना किसी की आस के दीपक
तख़ल्लुस उनका 'जैतोई'था, खुद उम्दा गजलगो थे
कि पंजाबी ग़ज़ल के इक बड़े उस्ताद थे 'दीपक'

कई रंगों कई किस्मों की इन में लौ समाई है
कि मैंने देखे हैं 'जम्मू'बड़े ही पास से दीपक
अंधेरा काटते दीपक, उजाला बाँटते दीपक के साथ जो मिसरा सानी आया है मतले में वह कमाल का है, सच में कितने ही युगों से अपना धर्म निभाते आ रहे हैं ये दीपक। अगले ही शेर में एक बड़े ही सुंदर विरोधाभास को विषय बनाया है, कि जो दीपकों को बुझाना चाह रहा है, उसे भी दीपक रौशनी ही दे रहे हैं, यही तो विशेषता होती है दीपकों की। अगले शेर में जो प्रार्थना है, वह सचमुच हम सबके मन की ही कामना है, किसी की आस का दीपक कभी नहीं बुझने पाए यही तो हम सभी चाहते हैं। लेकिन पंजाबी के बड़े शायर दीपक जैतोई जी को जिस प्रकार शेर में पिरो कर अपनी भावांजलि दी है इस  युवा शायर ने, वह एकदम कमाल ही किया है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह ,वाह।
बहुत सुंदर रही है इस बार की बासी दीपावली। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा था कि बासी दीपावली का काम होता है, उत्सव के बाद आए हुए सूनेपन को कम करना, और उत्सव के बाद के अवसाद से हमको बचाना। हर उत्सव के बाद मन एकदम अवसाद में चला जाता है, क्योंकि एकदम से बहुत कुछ होकर समाप्त हो चुका होता है। तीनों रचनाकारों ने दीपावली के दीपकों के प्रकाश को बनाए रखा है। आपका काम है कि दाद देते रहें इन रचनाकारों को। और हाँ अगर सब कुछ ठीक रहा तो भभ्भड़ कवि भौंचक्के आ सकते हैं तरही का समापन करने के लिए। क्योंकि इस बार जिस उत्साह से सभी रचनाकारों ने तरही में हिस्सा लिया उससे भभ्भड़ कवि भौंचक्के का उत्साह भी बढ़ गया है। मिलते हैं भभ्भड़ कवि से अगले अंक में।


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