इस बार का तरही मुशायरा कुछ अलग सोच के साथ होना है । अलग तेवर की ग़जल़ें और अलग प्रकार के शेर इस बार सुनने को मिलने हैं ये तय है । आज वसंत पंचमी है तो पहले वसंत पंचमी पर की जाने वाली सरस्वती पूजन की जाए ।
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।1।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।
आइये अब प्रारंभ करते हैं तरही मुशायरा ।
ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
वे कहने को तो कंचन की बड़ी दीदी थीं, किन्तु ऐसा लगता नहीं था कि वे केवल कंचन की ही बड़ी दीदी हैं । पिछले कुछ सालों से अपनी पूरी जीवटता के साथ वो केंसर जैसी बीमारी के साथ संघर्ष कर रही थीं । हम सब सोचते थे कि कोई चमत्कार होगा । मगर नहीं हुआ । और 27 जनवरी को केवल स्मृति शेष रह गईं । पिछली बार जब मैं लखनऊ गया था तो अपनी बीमारी के बाद भी वे चल कर मुझसे मिलने आईं थीं । उनसे मिलकर अंदर तक एक भीगा सा अपनापन फैल जाता था । कंचन के लिये उनका जाना एक ऐसा नुकसान है जिसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । वे कंचन के लिये रोल मॉडल थीं । कंचन के लिये वे स्थाई चीयर लीडर थीं । हमेशा कंचन का उत्साह वर्द्धन करते हुए उसके पीछे खडी़ रहती थीं । जब ये मिसरा दिया था तब नहीं पता था कि नियति की मंशा क्या है । किन्तु अब ऐसा लगता है कि ये मिसरा उनके उस संघर्ष को प्रतिबिम्बित करता है जो उन्होंने किया । सो ये मिसरा और इस पर कही गईं ग़ज़लें उन्हीं को समर्पित ।
मैं नहीं जानता कि मैंने कंचन से ये जिद क्यों की, कि इस बार का तरही मुशायरा कंचन की ही गज़ल से होगा और अपनी निर्धारित तारीख पर ही होगा । मगर ये कह सकता हूं कि कंचन ने मेरी जिद का मान रखा । और ऐसे समय में भी ये ग़ज़ल लिख कर भेजी । जैसा मैंने पहले भी कहा कि मुझे भी नहीं पता कि मैंने ये जिद क्यों की । तो आज तरही मुशायरे के प्रारंभ में कंचन की ये ग़ज़ल ।
न इस ग़ज़ल के पहले कोई बात न ग़ज़ल के बाद कोई बात । कुछ चीज़ें कहने सुनने से परे अनुभूत करने की होती हैं । सो बस अनुभूत कीजिये ग़जल़ को ।
कंचन सिंह चौहान
क्या मैंने था लिखा और क्या तूने पढ़ लिया है,
अरज़ी थी मौत की पर, दी ज़ीस्त की सज़ा है।
माना है तुझको प्रीतम, तू तो मेरा पिया है,
मरना मेरा ये तिल तिल, तू कैसे झेलता है।
फाँसी चढ़ा कि सूली, बेहतर हज़ार इससे,
''ये कैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है।''
सारे शहर में मेरा बस एक था ठिकाना,
जाना ये आज ही है, जब तू नही रहा है।
दफ्तर में तेरे भी है शायद यहीं के जैसा,
तकदीर जैसी शै का, रिश्वत से फैसला है।
डोली चढ़ी तो बोली, बस कुछ क़दम है जाना,
इस बार के सफर का, कोई नही पता है।
कुछ भी तो कह न पाए, कुछ भी तो सुन न पाए
झटके से फेरना मुँह, ये कैसा कायदा है।
इक बार चूम लेते, इक बार लग के रोते,
इक बार ये तो कहते, बस अब ये अलविदा है।
मीरा, कबीर, सूफी, ज़ेह्नो जिगर, खुदा तक,
जाँ कैसे छोड़ दी जब, सब मेरा ले गया है।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि जब अनुभूत करने की बात आ जाए तो शब्दों के बिना ही काम चलाना होता है । कई बार शब्द अनुभूति को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पाते । कई बार मौन किसी चीज़ को ज़्यादा अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर देता है । सो कंचन की इस ग़ज़ल को मैं अनुभूत कर रहा हूं आप भी करिये ।