तरही का अपना क्रम है । और कोई क्रम भी नहीं है । जब जो ग़ज़ल या गीत लगना है सो लग गई । और इस बीच कभी मौज आ गई तो कुछ भूमिका लिख दी, जैसी पिछले अंक में लिख दी गई थी । कभी कुछ नहीं लिखा । आप लोगों को वो भूमिका पसंद आई उसके लिये आभार । एक प्रश्न जो हमेशा मुझे मथता रहता है वो ये है कि हमारा ये जीवन क्या रवायतों, परम्पराओं, नियमों का पालन करने के लिये हुआ है । मुझे लगता है नहीं, हम सब जो कुछ बौद्धिक स्तर पर ऊंचा उठ गये हैं, हमारा जीवन नियमों का आकलन करने तथा उनमें से खराब नियमों को खारिज करने के लिये बना है । खैर आइये आज का क्रम आगे बढ़ाते हैं ।
''ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है''
शिकस्ते नारवा दोषइस बार की बहर में यदि ध्यान नहीं रखा जाए तो एक दोष बनने की संभावना है । इस दोष को शिकस्ते नारवा कहा जाता है । इस बार की बहर में हर मिसरा असल में दो खंडों में स्पष्ट रूप से बंटा हुआ है । अर्थात एक छोटे से विश्राम के बाद दूसरा खंड उठता है । जैसे कि ये कै़दे बामशक्कत.... (विश्राम) जो तूने की अता है । इस विश्राम को हम अल्प विराम से दर्शा सकते हैं । किन्तु यदि किसी मिसरे में हमने कोई शब्द ऐसा ले लिया जो कि पहले खंड 221-2122 के पूरे होने पर भी पूरा नहीं हुआ जैसे यदि हमने लिखा 'ये क़ैद जो हमें तूने दी है उम्र भर की' । अब यदि इसको वज़न पर कसें तो रुक्न बनते हैं 221-2122-221-2122 मतलब वज्न ठीक है । किन्तु हो क्या रहा है कि 'तूने' शब्द का विच्छेद हो रहा है 'तू' 2122 में और 'ने' 221 में जा रहा है । इसके कारण क्या होगा कि हम 221-2122 के बाद विश्राम नहीं ले पाएंगे क्योंकि 'तूने' शब्द तो खतम हुआ ही नहीं है । इस प्रकार की बहुत सी बहरें हैं जिनमें ये दोष बनता है । 12122-12122-12122-12122 बहर जिस पर हमने एक बार होली पर काम किया था उसमें तो हर 12122 पर विश्राम होना चाहिये, मतलब मिसरा स्पष्ट रूप से चार खंडों में बंटा होना चाहिये ।
आज की तरही में हम सुनते हैं श्री राकेश खंडेलवाल जी का गीत और रविकांत पांडेय की ग़ज़ल । दोनों ही मूल रूप से गीतकार हैं । दोनों को एक साथ सुनने में अलग ही आनंद है ।
रविकांत पांडेय
सबकी जुदा है फितरत, हर शख्स रहनुमा है
जाए भला किधर ये, मुश्किल में काफिला है
हमने तरक्कियों की ऐसी लिखी इबारत
इंसान इस सदी का, रोबोट हो गया है
चांदी के चंद सिक्के करते हैं फैसले सब
बिकते हैं हम खुशी से, हैरत नहीं तो क्या है
किस्मत को कोसने से होगा न कुछ भी हासिल
ये जिंदगी हमारे कर्मों का सिलसिला है
पूछा, मनुष्य क्या है, तो इक फकीर बोला
बस आग पानी मिट्टी आकाश और हवा है
कुछ और शेरे गम दे, हो ये गज़ल मुक्ममल
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
देखन में छोटे लगे घाव करें गंभीर । छोटी ग़ज़लों की अपनी मारक क्षमता होती है । पहली चर्चा मतले की । मतला बहुत विशिष्ट सोच के साथ गढ़ा गया है । बात इस प्रकार से कही गई है कि बस आनंद आ जाए । पूरा समय इस मतले में अभिव्यक्त हो गया है । कविता वही होती है जो अपने समय को अभिव्यक्ति प्रदान करे । फिर बात पंच तत्व वाले शेर की । बहुत सुंदर बात कही है । मिसरा सानी सुंदर गढ़ा है । मिसरा उला पर कुछ और मेहनत हो जाती तो एक कमाल हो जाता । इंसान के रोबोट होने वाला शेर अपने समय पर बहुत गहरा कटाक्ष है । वाह वाह वाह ।
श्री राकेश खंडेलवाल जी
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
मैं सोचता हूँ पाया किस बात का सिला है
दीवार हैं कहाँ जो घेरे हुए मुझे है
है कौन सी कड़ी जो बांधे हुए पगों को
मुट्ठी में भींचता है इस दिल को क्या हवाएं
है कौन सा सितम जो बांधे हुए रगों को
धमनी में लोहू जैसे जम कर के रुक गया है
धड़कन को ले गया है कोई उधार जैसे
साँसों की डोरियों में अवगुंठनों के घेरे
हर सांस मांगती है मज़दूरियों के पैसे
ये कौन से जनम की बतला मुझे खता है
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
हो काफ़िये के बिन ज्यों ग़ज़लों में शेर कोई
बहरो वज़न से खारिज आधी लिखी रुबाई
इस ज़िंदगी का मकसद बिखरा हुआ सिफर है
स्याही में घुल चुकी है हर रात की जुन्हाई
आवारगी डगर की हैं गुमशुदा दिशायें
हर दर लगाये आगल उजड़े हुये ठिकाने
कल की गली में खोया लो आज ,कल हुआ फिर
अंजाम कल का दूजा होगा ये कौन माने
खाली फ़लक से लौटी दिल की हर इक सदा है
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है
काँधे की एक झोली उसमें भी हैं झरोखे
पांवों के आबलो की गिनती सफर न गिनता
सुइयां कुतुबनुमा की करती हैं दुश्मनी अब
जाना किधर है इसका कोई पता ना मिलता
हर एक लम्हा मिलता होकर के अजनबी ही
अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं
सुबह से सांझ सब ही सिमटे हैं दो पलों में
केवल अँधेरे छत बन मंडप सा तानते हैं
अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है।
राकेश जी के गीत पर लिखते समय मुझे बड़ी दुविधा होती है । किस बंद का जिक्र करूं, किस पंक्ति को उल्लेखित करूं और किसको नहीं करूं । राकेश जी परिमल गीतों के कवि हैं, किन्तु तरही के नियम का आदर करते हुए उन्होंने वर्तमान समय पर जिस प्रकार से गीत लिखा है वो अद्भुत है । कहीं किसी का नाम नहीं, कहीं कोई सीधा जिक्र नहीं । किन्तु ऐसा लगता है कि गीत हम सबकी कहानी कह रहा है । गीत हमारी ही पीर को शब्द देते हुए गुज़रता है । किसी ने कहा है कि कविता वही होती है जो हर किसी को अपनी ही कहानी लगे । ये गीत हम सब की कहानी है । 'अपनी गली के पत्थर पहचान मांगते हैं' ये पंक्ति पूरे गीत से अलग एक पूरा गीत है । हम सबका जीवन यही तो है कि हमारी ही गली के पत्थर हमसे ही पहचान मांग रहे हैं और हम यही कह रहे हैं कि 'अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है' । क्या सुंदर गीत वाह वाह वाह ।
तो आनंद लीजिये दोनों रचनाओं का और देते रहिये दाद । जैसा कि पिछली बार हमने शिवरात्रि पर 'सुकवि रमेश हठीला शिवना सम्मान' श्री नीरज गोस्वामी जी को घोषित किया था जो 2 दिसम्बर को प्रदान किया गया । सम्मान इस बार भी होना है । चयन समिति अपनी प्रक्रिया में है और महाशिवरात्रि के दिन हम इस वर्ष का सम्मान घोषित करने की स्थ्िति में होंगे ।