हजल और सजल ? ये क्या हो रहा है । इसल में हजल तो हजल होती है । उसके बारे में तो बताने की आवश्यकता नहीं है । लेकिन एक सजल भी होती है । सजल वो जो भावनाओं के, प्रेम के जल से परिपूरित होती है । और उस सजल कलश से हम उन सब अपनों को अर्घ्य देते हैं जिनसे हम प्रेम करते हैं नेह करते हैं । चूंकि ये रचना प्रेम के जल से परिपूरित होती है इसलिए इसे सजल कहा जाएगा। जीवन में इस जल का बहुत महत्व भी है और शायद आज की तारीख में बहुत आवश्यकता भी है । तो आज एक हजल श्री मन्सूर अली हाशमी जी की और एक सजल श्री राकेश खण्डेलवाल जी की। चूँकि भभ्भड़ कवि भौंचक्के के आने के लिए कुछ भूमिका भी तो बनानी है इसलिए हाशमी जी की हजल का होना तो बनता ही बनता है। और ये सजल जो है ये राकेश जी ने कल की पोस्ट में टिप्पणी के रूप में की थी, मैंने उसे वहां से डिलिटिया दिया और उसे यहां के लिए सुरक्षित कर लिया । हो सकता है कि डिलिटियाने के पूर्व कुछ लोगों ने उसे वहां पढ़ लिया हो। तो वही है । एक राज की बात बताऊं इस बार के मिसरे में हजल की ज़बरदस्त संभावना थी। मैं सोच रहा था कि कुछ और आएंगी लेकिन एक ही आई । तो आइये सुनते हैं सजल और हजल।
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
राकेश खंडेलवाल जी
गज़ल के शेर ये तब होंठ आ सजाते हैं
‘तिलक’ लगाये जो ‘नीरजजी’ मुस्कुराते हैं
गज़ब की सोच लिये लोकगीत की धुन पर
कई हैं झोंके जो ‘सौरभ’ से गुनगुनाते हैं
है ‘शार्दुला’ की छुअन जो नई खदानों से
तराशे खुद को कई हीरे निकले आते हैं
‘द्विजेन्द्र द्विज’ ने कहा क्या न जाने कानों में
के ‘नास्वां जी दिगम्बर’ जो खिलखिलाते हैं
कहा ‘मुकेश’ से कल ये ‘गिरीश’-‘पंकज’ ने
तमाम शे’र ये ‘नुस्रत’ से रब की आते हैं
हुये कलामशुदा हैं ‘भरोल’ कुछ ऐसे
‘सुबीर’ देख के फूले नहीं समाते हैं
‘शिफ़ा’ के हाथ की मेंहदी के देख कर बूटे
“सुबीर सेवा” पे ‘डिम्पल’ सँवर के आते हैं
‘सुधा’ बरसती है ‘लावण्य’ निखरा आता है
बड़ी ‘सुलभ’ता से अशआर कहे जाते हैं
हुआ है ‘दानी’ भी ‘शाहिद’ ये ‘हाशमी’ ने कहा
‘नवीन’ क्या है ये ‘सज्जन’ समझ न पाते हैं
किरण से चमके हैं ‘पंकज’ पे कण तुहिन के या
“अंधेरी रात में ये दीप झिलमिलाते हैं”
और ये शे'र पूरी सुबीर संवाद सेवा की ओर से राकेश खंडेलवाल जी को । इसे राकेश जी ने नहीं लिखा बल्कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के ने लिखा है ।
खड़े ही रहते हैं ‘भभ्भड़ कवि भी भौंचक्के’
मधुर सा गीत जो ‘खंडेलवाल’ गाते हैं
क्या कोई नाम छूटा है ? नहीं छूटा है। सब के सब आ गये हैं। क्या बात है पूरी की पूरी दीपावली तरही के रचनाकारों के नाम शामिल हो गए हैं । कहीं कोई भी नहीं छूटा । ये राकेश जी का ही कमाल है, वो शायद सोचते भी गीतों में ही हैं । उनके विचार भी छंदों के ही रूप में आते हैं । सुबीर संवाद सेवा के आयोजन दरअसल पारिवारिक आयोजन होते हैं। यहां हम मिलते हैं उत्सव मनाते हैं और आनंद लेते हैं। और ये जो सजल है ये उसी आनंद में कुछ बढ़ोतरी कर रही है ।
मन्सूर अली हाशमी
ढली है उम्र, मगर अब भी वो लजाते हैं
वो 'फेसबुक'पे भी पहने नक़ाब आते हैं।
है प्यार मैके से लेकिन वो कम ही जाते है
बस अपनी मम्मी को जब-तब यहीं बुलाते हैं।
वो करवा चौथ को कुछ इस तरह मनाते हैं
न खाते ख़ुद है, न हमको ही वो खिलाते हैं।
उन्हें भी लत लगी अब फेसबुक पे जाने की
सुहानी रात में हमको परे हटाते हैं !
कभी वो 'चकड़ी'पकड़ती तो हम 'चगाते'थे
अब अपनी-अपनी पतंगें अलग उड़ाते हैं।
जीवन में हर रस का अपना महत्व है । और हास्य का तो विशेष तौर पर महत्व है। हजल विशुद्ध हास्य की रचनाएं होती हैं। क्योंकि व्यंग्य तो सामान्य रूप से ग़ज़लों में ही होता है। हजल गुदगुदाती है आनंद देती है। वैसे इस हजल में एक शेर ऐसा भी है जो हजल से हट कर है । आखिरी शेर दूसरे अर्थ में देखा जाए तो मन को गहरे तक छू जाता है और पलकों की कोरों को भिगो भी देता है। वरना हँसने के लिए तो करवा चौथ और फेसबुक है ही। ग़नीमत है अभी इस प्रकार की करवा चौथ पूरे देश में नहीं हुई है। अंतिम शेर का आनंद लेने में जिन लोगों को देशज शब्दों के कारण दिक्कत आ रही हो तो उनके लिए ये कि पतंग दो लोग मिलकर उड़ाते हैं। एक धागे चरखी ( चकड़ी और चड़खी भी कहते हैं जिसे बोली में) पकड़ता है और दूसरा पतंग उड़ाता है, धागा छोड़ता है ( चगाता है ) । आनंद लीजिए इस शेर का और मुस्कुराते रहिए।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के इस समय सचमुच में भौंचक्के हैं। कुछ सूझ नहीं रहा है कि अपनी इज्जत ( इज़्ज़त नहीं इज्जत) कैसे बचाई जाए। खैर कुछ न कुछ तो सूरत निकलेगी ही अभी तो देव उठनी ग्यारस में तीन दिन हैं बीच में संडे है तो कुछ न कुछ तो होगा। तो आज की दोनों रचनाओं का आनंद लीजिए और दाद देते रहिए।