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Channel: सुबीर संवाद सेवा
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आइये आज ज्ञान की देवी सरस्‍वती का पूज करते हैं शब्‍दों से भावों से और विचारों से। पूजा की थाली में गीत की दीपक और द्विपदी की धूप लिये आए हैं श्री राकेश खंडेलवाल जी।

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या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

आज का दिन साहित्‍यकारों का दिन होता है। क्‍योंकि आज ज्ञान की देवी सरस्‍वती के पूजन का दिवस होता है। आज हम सबके लिए यही प्रार्थना करते हैं कि सबको ज्ञान मिले सबको बुद्धि का वरदान मिले और सबके अंदर साहित्‍य के प्रति अनुराग उत्‍पन्‍न हो।

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

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आज वरिष्‍ठ गीतकार और बहुत ही अच्‍छे कवि श्री राकेश खंडेलवाल के साथ हम सब मिलकर करते हैं मां सरस्‍वती की आराधना अपने भावों से विचारों से और शब्‍दों से।

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श्री राकेश खंडेलवाल जी

भोर की ले पालकी आते दिशाओं के कहारों
के पगों की चाप सुनते स्वप्न में खोई हुई
नीम की शाखाओं से झरती तुहिन की बूँद पीकर
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

पूर्णिमा में ताज पर हो
छाँह तारों की थिरकती
याकि जमाना तीर पर हो
आभ रजती रास करती
झील नैनी में निहारें
हिम शिखर प्रतिबिम्ब अपना
हीरकणियों में जड़ित
इक रूप की छाया दमकती

दूध से हो एक काया संदली धोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

वर्ष के बूढ़े थके हारे
घिसटते पाँव रुककर
देखते थे अधनिमीलित
आँख से वह रूप अनुपम
आगतों की धुन रसीली
कल्पना के चढ़ हिंडोले
छेड़ती थी सांस की
सारंगियों पर कोई सरगम

मोतियों की क्यारियों में रागिनी बोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

एक पंकज पर सिमट कर
क्षीर सागर आ गया हो
खमज,जयवंती कोई
हिंडोल के सँग गा गया हो
देवसलिला  तीर पर
आराधना में हो निमग्ना
श्वेत आँचल ज्योंकि  प्राची का
तनिक लहरा गया हो

या कहारों ने तुषारी, कांवरी ढोई  हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

सोम का हो अर्क आकर
घुल गया वातावरण में
कामना की हों उफानें
कुछ नईं अंत:करण  में
विश्वमित्री भावनाओं का
करे खण्डन  समूचा
रूपगर्वित मेनका के
आचरण के अनुकरण में

पुष्पधन्वा के शरों  में टाँकती कोई सुई
मोगरे के फूल पर है चांदनी सोई हुई

तो आप ये भी चाह रहे हैं कि मेरे जैसा अकिंचन इस गीत की प्रशंसा के लिये शब्‍द जुटाए भी और उन शब्‍दों से प्रशंसा करने की धृष्‍टता भी करे। जो शब्‍द राकेश जी ने इस गीत में टांके हैं उन शब्‍दों के सामने ठहर सकने वाले शब्‍दों को मैं कहां से लाऊं। आचरण के अनुकरण जैसा वाक्‍य रचने वाले रचनाकार के आगे मेरी और मेरे शब्‍दों की क्‍या बिसात । तो मैं भी वही करता हूं जो आप कर रहें हैं कि बस मौन होकर सुनता हूं इस गीत को फिर फिर। 

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श्री राकेश खंडेलवालजी

सुबीर संवाद सेवा पर आने वाली मनमोहक रचनायें अपनी महक से सराबोर किये हुये हैं. उस्ताद शायरों की गज़लें पढ़ कर कलम ने सहसा ही एक द्विपदी की दिशा में अग्रसर कर दिया. आपके समक्ष प्रस्तुत है यह द्विपदी

कोई प्रतिमा मरमरी हो दूध की धोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

आजकल तो राम गाड़ी से उतरता ही नहीं
रह गई फिर से शिला में गौतमी सोई हुई

क्यों उसे भगवान मानूँ ये बताओ तो जरा
छोड़ता अर्धांगिनी जो लुम्बिनी सोई हुई

रहनुमा की आँख में उतरी नहीं है आज तक
वर्ष सड़सठ की हुई, शर्मिन्दगी सोई हुई

द्वारका में जिस्म है पर प्राण तो ब्रज में बसे
बाँसुरी में तान ढूँढ़े, रुक्मिणी, सोई हुई

"शीघ्र ही फ़िर जायेंगे दिन" इस कथन की सत्यता
कुम्भकर्णी नींद से जागी नहीं सोई हुई

हो नमन स्वीकार पंकजजी, यहाँ अब मंच पर
नृत्य करती गुनगुनाती चाँदनी सोई हुई

मैं गज़ल कह कर करूँ गुस्ताखियाँ ? संभव नहीं
हो गज़ल में जो निहां शाइस्तगी सोई हुई.

पहली ही द्विपदी से जो भाव उत्‍पन्‍न होते हैं वो पूरी रचना में चलते रहते हैं। कोई प्रतिमा मरमरी में दूध से धोए जाने की बात बहुत सुंदर आई है। और उतना ही सुंदर है राम तथा बुद्ध के बारे में प्रतीकों के माध्‍यम से कहना। बुद्ध का प्रतीक तो वैसे भी मेरे मन के करीब है। और शर्मिंदगी के सड़सठ सालों से सोए होने का प्रतीक भी कमाल का बना है। खूब।

तो आज आनंद लीजिए दोनों रचनाओं का और दाद देते रहिये। मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ।


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