मित्रो इस बार का मुशायरा बहुत आनंद प्रदान कर रहा है। हर बार कुछ नए भावों की ग़ज़लें सुनने को मिल रही हैं। मिसरे को नए नए तरीकों से गिरह में बाँधा जा रहा है। बहुत उम्दा शेर सुनने को मिल रहे हैं। त्योहार का ऐसा माहौल बन गया है कि लगता है जैसे यह चलता रहे बस यूँ ही। और अभी जिस प्रकार ग़ज़लें बची हुईं हैं उससे तो लगता है कि हम इस मुशायरे को देव प्रबोधिनी एकादशी तक तो चला ही पाएँगे।
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
आज की दीपावली हम मनाने जा रहे हैँ दो शायरात की ग़ज़लों के साथ। दोनों ही बहुत समर्थ रचनाकार हैं और इस ब्लॉग परिवार की आधी आबादी की सशक्त प्रतिनिधि हैं। आदरणीया देवी नागरानी जी और शिफ़ा कजगाँवी जी की ग़ज़लों के साथ आइये आज दीपावली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।
देवी नागरानी जी
दिवाली के कई दीपक जले हैं
ग़ज़ल के रंग शब्दों में सजे हैं
सुमन सूरजमुखी कितने खिले हैं
‘उजाले के दरीचे खुल रहे हैं’
सितारे गर्दिशों के आज़माएँ
सितम खारों के लगते फूल से हैं
चले घर से थे जिन राहों पे हम तुम
कई अनजान राहों से मिले हैं
समाये सब्ज़ मौसम आँखों में जो
वही सपनों की राहें तक रहे हैं
शजर कोई न था, साया न ‘देवी’
सफ़र सहरा में करते जा रहे हैं
वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। मतला हमारे इस मुशायरे को मानो परिभाषित कर रहा है, ग़ज़ल के शब्दों के रंग से दीपावली मनाता हुआ सा मतला। और उसके बाद गिरह का शेर हुस्ने मतला भी खूब बना है। सूरजमुखी के फूलों के खिलने से उजाले के दरीचों के खुलने का बहुत ही सुंदर चित्र बनाता हुआ शेर। और उसके बाद जीवन के कठिन समय को समर्पित दो शेर। सचमुच यह बड़ी बात है कि यदि आप अपने जीवन के कठिन समय को याद करेंगे तो वर्तमान समय की परेशानियाँ आपको फूल सी ही लगेंगी। सोच से ही सब कुछ होता है। प्रेम में डूबा शेर जिसमें आँखों में समाए सब्ज़ मौसम सपनों की राह तक रहे हैं खूब है। मकते का शेर भी अच्छा बना है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है क्या बात है वाह वाह वाह।
‘शिफ़ा’ कजगाँवी
धमाके जब से बच्चों ने सुने हैं
कलेजे माँओं के थर्रा रहे हैं
न जाने कितनी गुड़ियाँ फूँक डालीं
न जाने कितने बस्ते जल चुके हैं
लहू से सींचते हैं बाग़ ओ गुलशन
जो दहशत की तिजारत चाहते हैं
ख़मोशी वादियों की कह रही है
कि परवाज़ों के पर टूटे हुए हैं
जिन्होंने अम्न का परचम उठाया
वो ज़ुल्म ओ जौर की ज़द में खड़े हैं
किसी जानिब शफ़क़ फूटी है शायद
"उजाले के दरीचे खुल रहे हैं"
आदरणीया इस्मत दी ने इस ग़ज़ल के साथ एक भावुक पत्र भी लिखा था जिसकी भावना यही थी कि हमारा देश एक बार फिर से उसी प्रकार भाईचारे और सुकून का देश बन जाए। यह आतंक या नफरत सब मिट जाए। पूरा ब्लॉग परिवार आमीन के स्वर में उस दुआ के स्वर में स्वर मिलाता है। पूरी ग़ज़ल लगभग मुसलसल ग़ज़ल है लेकिन जैसा कि साहित्य का स्वभाव होता है वह अंत में आशा के साथ समाप्त होता है वही यहाँ भी हो रहा है। मतला बहुत ही प्रभावी है बच्चे धमाके सुन रहे हैं और माँओं के कलेजे थर्रा रहे हैं,सच में यही तो होता है, दुनिया की हर बारूद केवल माँ के कलेजे को ही फूँकती है। और उसके बाद आतंकवाद का एक और घिनोना चेहरा दूसरे शेर में उभर कर सामने आया है। जिसे अगले शेर में भी मुसलसल कायम रखा गया है। बहुत ही साहसिक और पैने शेर हैं ये दोनों। अगले शेर में वादियों की ख़मोशी और परवाजों के टूटे पर जैसे एक पूरा कैनवस है जिस पर दर्द के रंगों से चित्रकारी की गई है। बहुत ही सुंदर। और अगला शेर एक बार फिर उन सब अच्छे लोगों की पीड़ा को बयाँ करता है जो अमपसंद हैं लेकिन हर बार उन्हीं पर बिजलियाँ टूटती हैं। यह चारों शेर मिलकर मानों पूरी कहानी कह रहे हैं, दर्द कर कहानी। लेकिन अंत का गिरह का शेर आशा की किरण को लेकर आता है ग़ज़ब की सकारात्मक गिरह बाँध कर शेर बनाया है। पूरी ग़ज़ल जिस सन्नाटे में छोड़ती है उससे यह शेर आशा की राहत देकर निकालता है। बहुत ही प्रभावशाली और सामयिक ग़ज़ल कही है क्या बात है वाह वाह वाह।
तो यह हैं आज की दोनों ग़ज़लें, बहुत ही सुंदर और प्रभावी ग़ज़लें। आपके पास अब काम है कि इन सुंदर ग़ज़लों को उतनी ही सुंदर दाद देकर सराहें। और हम अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ मिलते हैं। भभ्भड़ कवि भी जुरासिक पार्क के युग से लौटने की तैयारी कर रहे हैं।