मित्रों ये समय बहुत व्यस्तताओं से भरा हुआ है । कई सारे काम एक साथ समानांतर चल रहे हैं । और उनमें ही अपना ये तरही मुशायरा भी चल रहा है। व्यस्तताओं का अपना ही एक आनंद होता है । और उनके बीच में से ही निकल आता है थोड़ा सा समय। विचार और व्यस्तता का छत्तीस का आंकड़ा होता है। जहां व्यस्तता है वहां विचार होना ज़रा मुश्किल होता है। लेकिन बात वही है कि फिर भी संभावना तो हर समय होती ही है। जैसे इस समय है । कुछ लोग कहते हैं कि लेखक रचना को रचता है । मेरा मानना है कि विचार ही किसी रचना को रचते हैं, लेखक नहीं । और विचार के लिये आवश्यक है कि दिमाग कुछ व्यस्तता से दूर हो। खैर । आइये आज चलते हैं। तरही मुशायरे की ओर। आज हमारे चिर परिचित धर्मेंद्र कुमार सिंह हैं और एक नये शायर भुवन निस्तेज हैं। भुवन के रूप में हमारे मुशायरे में पहली बार नेपाल से कोई शायर आ रहे हैं। भुवन का फोटो मैंने बस अंदाज से इंटरनेट पर तलाश करके लगा दिया है । तो आइये दोनों का स्वागत करते हैं और दोनों से उनकी ग़ज़लें सुनते हैं।
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
मुस्कुराने जब लगी नन्हीं परी सोई हुई
रूह में जगने लगी हर गुदगुदी सोई हुई
आप को जो लग रही है बेख़ुदी सोई हुई
फाड़ देगी छेड़िये मत शेरनी सोई हुई
मेघ का प्रतिबिम्ब दिल में किन्तु जनहित के लिए
बाँध की बाँहों में है चंचल नदी सोई हुई
जाग जाए तो यकीनन क्रांति का हथियार ये
है दमन की सेविका भर लेखनी सोई हुई
मौत के पैरों तले कुचली गई थी कल मगर
आज फिर फुटपाथ पर ही जिंदगी सोई हुई
आ के आधी रात को चुम्बन लिया नववर्ष ने
ले के अँगड़ाई उठी है जनवरी सोई हुई
उस मिलन से खूबसूरत दॄश्य फिर देखा नहीं
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई
हूं.... चूंकि धर्मेंद्र जी बांधों आदि से जुड़े हैं उसी महक़मे में हैं इसलिये बांध की बांहों में चंचल नदी के सोने का कमाल दृश्य खींचा है। और अहा हा हा जनवरी के उठने का सीन तो कमाल है। नव वर्ष का ये मुशायरा सार्थक हो गया है। आ के आधी रात को चुम्बन लिया नव वर्ष ने अहा। मौत के पैरों तले कुचलने के बाद भी उसी फुटपाथ पर सोने की बेबसी को बहुत मार्मिक ढंग से शेर में बांधा गया है। शायर की लेखनी उस दर्द को उकेरने में कामयाब रही है। और अंतिम शेर पर जिसे कमाल के साथ मिसरे पर गिरह लगाई है उसके लिये सलाम। उस मिलन से खूबसूरत दृश्य फिर देखा नहीं । वाह वाह । क्या बात है।
भुवन निस्तेज
मैं भुवन बोहरा हूँ नेपाल से और आपके ब्लॉगका नया नया पाठक हूँ. नेपाली भाषा में गजले लिखा करता हूँ और सीखने के उद्देश्य से हिंदी भाषा में भी लिखने का प्रयत्न करता हूँ. आपके द्वारा नए साल्पर तरही मयोजन्संचलित होने की खबर कल ही पढ़ पाया तो मुझमे भी एक रचना प्रेषित करने की इच्छा जाग गयी. आशा है उचित मार्ग दर्शन होगा.
ख्वाब देखा बांह में थी उर्वशी सोई हुई
जग गई फिर नींद से शाइस्तगी सोई हुई
ये ख़ुशी सोई हुई ये शायरी सोई हुई
ज़िन्दगी-जिंदादिली सोई हुई सोई हुई
खामुशी की बर्फ़ को यों भी कुरेदा मत करो
है यहाँ चुपचाप कोई हिमनदी सोई हुई
इस महल के खंडहर से ये हवा टकराई तो
आगई लेकर कहानी अनकही सोई हुई
चोट खाकर मुस्कुराती मूर्ति पत्थर बनी
ज़िन्दगी बेजान पत्थर में मिली सोई हुई
बाग़ में अब भी असर उस रात का बाकी ही है
रतजगे से फूल की है पंखुड़ी सोई हुई
राह भटके जुगनुओं के ये उजाले देखकर
गुनगुनाने लग गई है खामुशी सोई हुई
क्यों किसी मज़लूम को इतना डराया जाये कि
जागने लग जाये अन्दर छावनी सोई हुई
रात ने शामो-सहर औ’ चाँद से पूछा मगर
'मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई'
मैकदे की रौनकें जिसको जगा पाई न हो
जग उठी तन्हाई में वो तिश्नगी सोयी हुई
क्या कमाल की इण्ट्री की है। विशेष कर उस शेर में जहां सोई हुई के ही दोहराव से काफिये को बांधने की कोशिश की है । रदीफ को काफिया में बदलने का कमाल किया है। खूब। और ठीक उसके बाद का शेर भी खूब है जिसमें हिमनदी का काफिया चौंकाता हुआ आया है। नदी काफिया तो हर गजल में आ रहा है लेकिन हिमनदी आना और सुंदर हो गया है। बाग में फूल की पंखुरी के सोने का बिम्ब भी सुंदर बन पड़ा है। और एक और शेर जिसमें छावनी काफिये को सुंदर तरीके से गूंथा गया है। जागने लग जाये अन्दर छावनी सोई हुई। वाह वाह । कई कई आंदोलनों को प्रतिध्विनत करता है ये शेर। खूब वाह वाह वाह।
तो ये हैं आज के दोनों शायर । दोनों की ग़ज़लें सुनिये और दाद दीजिये । मिलते हैं अगले अंक में ।