तरही का समापन होने को है। बस एक अंक और लगना है इसके बाद। जैसा कि तय किया था कि जनवरी के अंत तक समापन कर लेंगे तो उसी प्रकार से हो रहा है। चूंकि भभ्भड़ कवि तो स्वतंत्र कवि हैं वे कभी भी आ सकते हैं तो वे समापन के बाद कभी भी तशरीफ का टोकरा लिये अ सकते हैं। फिलहाल तो ये कि आप सब विश्व पुस्तक मेले में सादर आमंत्रित हैं शिवना प्रकाशन के स्टॉल पर। अगली पोस्ट में आपको स्टॉल की पूरी जानकारी उपलब्ध करवाने की कोशिश की जाएगी। विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर शिवना प्रकाशन कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन करने जा रहा है। आप भी उस अवसर पर उपस्थित रहेंगे तो अच्छा लगेगा।
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
सुमित्रा शर्मा
स्वेद -मोती की फसल सी दूब थी सोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
ख्वाब की कब्रें वहां थीं अश्क के दरिया बहे
देखने में आँख यूँ हर एक थी सोई हुई
जननि के उस दर्द को कैसे भला अल्फ़ाज़ दे
लाड़ला जिसका लुटा औ भीड़ थी सोई हुई
द्रोपदी का चीर खिचता ही रहा ,खिंचता रहा
गूँगा बहरा ज्ञान था और नीति भी सोई हुई
कंचकों के गीत थे जब घर गली चौपाल पर
शहर के घूरे पे इक नवजात थी सोई हुई
प्रसव क्रंदन से सिया के जब हुआ जंगल द्रवित
चैन से थी राम की नगरी तभी सोई हुई
इन अंधेरों को झटक कर उठ खड़ी होगी ज़रूर
है तमस की क़ैद में जो रोशनी सोई हुई
सुमित्रा जी हमारे मुशायरों में पिछले कुछ समय से आती रही हैं तथा अपनी फिक्र, अपनी सोच से श्रोताओं को प्रभावित करती रही हैं। इस बार भी उन्होंने अपनी ग़ज़ल के साथ लगभग दौड़ते हुए ट्रेन पकड़ी है तरही मुशायरे की। सबसे पहले बात की जाए अंतिम शेर की। उसे शेर में जाने क्या ऐसा है उसे खास बना रहा है। शायद उसकी बनावट में ही वो वैशिष्ट्य अ गया है। और ऐसा ही एक शेर बना है सिया के प्रसव और राम की नगरी का। बहुत अच्छा शब्द चित्र बना है उस शेर में। बहुत ही अच्छी गज़ल़ कही है सुमित्रा जी ने । वाह वाह वाह।
पारुल सिंह
बस अना है ये उधर के सादगी सोई हुई
जाग ना जाए इधर सादादिली सोई हुई
आप के कान्धे झुका था सर हमारा, यूँ लगा
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई
छोड़ दी है राह तकनी मुद्दतें हमको हुई
जागती पर आहटों से देहरी सोई हुई
रात मैं लोरी न बेटी को सुना पायी इधर
पार सरहद जाग जाती माँ दुखी सोई हुई
नूर जो माँ बाप की आँखों का लेकर चल दिए
थे बङे हैवान उनकी रूह थी सोई हुई
जब मसलते जा रहे थे फ़ूल वो मासूम से
ऐ खुदा तेरी खुदाई क्यूं रही सोई हुई
शायराना हो गया मौसम गज़ल मैं बन गयी
वादिये दिल मे उमंग फिर से जगी, सोई हुई
वो खफ़ा हो जाए तो भी छोड़ कर जाती नहीं
साहिलों पर है समन्दर के, नदी सोई हुई
कह रहे हैं प्यार तुम से, ना, नहीं रे, है नहीं
मुस्कुराहट के तले 'हाँ', है अभी सोई हुई
रात भर ढूढाँ किये हम चाँद, तारे, आसमां
कहकशा, आंगन सजन के जा मिली सोई हुई
गलतियां भगवान भी तो कर चुके अक्सर यंहा
चल दिए बस छोड़ गौतम संगिनी सोयी हुई
सबसे पहले तो बात गिरह की की जाए। ये वो ही गिरह है जिसके बारे में नुसरत मेहदी जी ने कहा था कि पंकज ये मिसरा बहुत ही नाज़ुकी की मांग कर रहा है। सचमुच बहुत ही खूबसूरत तरीके से ये गिरह लगाई गई है। शायरना हो गया मौसम शेर भी बहुत ही सुंदर बन है उसमें जगी काफिया तो कमाल आया है। शब्दों का बहुत ही बेहतरीन सामंजस्य हुआ है उस शेर में विशेष कर उस मिसरे में। और उसके ठीक बाद की प्रेम रस में पगे हुए तीनों शेर भी वैसा ही कमाल रच रहे हैं। मुस्कुराहटों के तले हां है अभी सोई हुई । अलग अलग प्रकार से नकारना और एक हां। कमाल है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है वाह वाह वाह।
डॉ. संजय दानी
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई,
तबले के सीने पे मानो बांसुरी सोई हुई।
जाना सच्चाई के कमरे में कठिन है सदियों से,
क्यूंकि सच के दर के आगे है बदी सोई हुई।
ये हवस का दौर है सच्ची मुहब्बत अब कहां,
ज़र के बिस्तर पर है सारी आशिक़ी सोई हुई।
आज भी हिन्दू मुसलमां की लड़ाई जारी है,
माज़ी के उस दौर से गोया सदी सोई हुई।
आज हर सर पे नई कविता का छाता है तना,
गठरी में दरवेशों के गो शायरी सोई हुई।
वृद्धा- आश्रम में है डाला मां को जब से बच्चों ने
है ग़मों के तकिये में मां की ख़ुशी सोई हुई।
अब के बच्चों में नहीं है दानी पहले सा जुनूं,
बस नशे में ,हौसलों की पालकी सोई हुई,
डॉ: संजय दानी अपने अलग तरह के शेरों को लेकर मुशायरों में आते रहे हैं। उनकी ग़ज़लों में समसामयिक व्यंग्य और सरोकारों को लेकर एक प्रकार की बेचैनी होती है। वास्तव में यही बेचैनी किसी भी रचना के लिए महत्तवपूर्ण होती है। और इस ग़ज़ल में तो दानी जी ने लगभग हर सरोकार को अपने शेरों में गूंथ लिया है। चाहे वो साम्प्रदायिकता हो, साहित्य हो, बुजुर्गों की समस्या हो या नशे की लत की समस्या हो । हर समस्या को उन्होंने अपने शेरों में ढाल कर अपनी सजगता का परिचय दिया है। बहुत सुंदर गजल वाह वाह वाह ।
तो आनंद लीजिए इन तीनों रचनाओं का और देते रहिये दाद। मिलते हैं अगले समापन अंक में 31 जनवरी को ।