इस वर्ष का प्रतिष्ठित 'राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान'सीहोर, मध्यप्रदेश के कहानीकार पंकज सुबीर और योगिता यादव को प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। मुंशी प्रेमचंद द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'हंस'द्वारा यह सम्मान प्रतिवर्ष 'हंस'के पूर्व संपादक तथा हिन्दी साहित्य के शलाका पुरुष राजेन्द्र यादव की स्मृति में प्रदान किया जाता है। यह सम्मान हंस में प्रकाशित किसी कहानी पर प्रदान किया जाता है। वर्ष 2013 में किरण सिंह, वर्ष 2014 में आकांक्षा पारे एवं टेकचंद तथा 2015 में यह प्रकृति करगेती को प्रदान किया गया था। इस वर्ष यह सम्मान पंकज सुबीर को उनकी कहानी 'चौपड़े की चुड़ैलें'हेतु प्रदान किया जा रहा है। मोबाइल के माध्यम से अश्लील बातें करके युवाओं को भ्रमित करने की समस्या पर लिखी गई इस कहानी को हंस के अप्रैल अंक में प्रकाशित किया गया था। कहानी को पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया था। हंस द्वारा जारी सूचना के अनुसार इस वर्ष का सम्मान पंकज सुबीर और योगिता यादव को संयुक्त रूप से प्रदान किया जा रहा है। हर वर्ष यह सम्मान स्व. राजेन्द्र यादव की जयंती 28 अगस्त को प्रदान किया जाता है। इस वर्ष भी यह सम्मान 28 अगस्त को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित समारोह में पंकज सुबीर और योगिता यादव को प्रदान किया जाएगा।
प्रतिष्ठित 'राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान'पंकज सुबीर को
"शिवना साहित्यिकी"का अक्टूबर-दिसम्बर अंक
शिवना प्रकाशन की त्रैमासिक पत्रिका "शिवना साहित्यिकी" का अक्टूबर-दिसम्बर अंक अब ऑनलाइन उपलब्ध है। अंक में शामिल हैं
आवरण कविता तथा अवरण चित्र / पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi , संपादकीय Shaharyar , व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar , शख़्सियत (मलका नसीम) डॉ. विजय बहादुर सिंह Vijay Bahadur Singh , कविताएँ - कुछ नज़्में / राजेश मिश्रा @raj , दो कविताएँ / रोज़लीन , कहानी- सेंसलेस / महेश शर्मा Mahesh Sharma , आलोचना- राकेश बिहारी (तरुण भटनागर Tarun Bhatnagarकी कहानी पर एकाग्र) , फिल्म समीक्षा के बहाने - पिंक / वीरेन्द्र जैन Virendra Jain , डायरी- कृष्णा अग्निहोत्री Krishna Agnihotri , ग़ज़ल - इस्मत ज़ैदी Ismat Zaidi Shifa‘शिफ़ा’, ख़बर-कथा - हेलो कौन भावना दीदी / समीर यादव Sameer Yadav , पेपर से पर्दे तक... / कृष्णकांत पंड्या Krishna Kant Pandya , समीक्षा- पाँच विधाएँ - पंच कन्याएँ ( Neelesh Raghuwanshi, Pragya Rohini, Pallavi Trivedi, Joyshree Roy, angha joglekar) सौरभ पाण्डेय Saurabh Pandey / निकला न दिग्विजय को सिकंदर Zaheer Qureshi , दिविक रमेश Divik Ramesh / शुक्रगुज़ार हूँ दिल्ली Santosh Shreyaans , अमृतलाल मदान Amrit Lal Madan / छुअन Nijhawan Vikeshतथा अन्य कहानियाँ , महेश कटारे Mahesh Katare / उत्तरायण @sudershan Priydarshini , पड़ताल- बाल-रंगमंच : सम्भावनाएँ और चुनौतियाँ / डॉ. प्रज्ञा Pragya Rohini, डिज़ाइन Sunny Goswami
संरक्षक तथा प्रधान संपादक Sudha Om Dhingra, प्रबंध संपादक Neeraj Goswamy, संपादक Pankaj Subeer, सह संपादक Parul Singh, कार्यकारी संपादक Shaharyar
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दीपावली का त्योहार सामने है, आइये दीपावली के इस त्योहार को तरही मुशायरे की रंगबिरंगी, झिलमिलाती ग़ज़लों से मनाएँ।
मित्रो बहुत समय हो जाता है आजकल ब्लॉग पर आए हुए। असल में व्यस्तता का क्रम इतना बढ़ रहा है कि चाहते हुए भी यहाँ आना नहीं हो पाता है। जैसा कि मैंने आपको पिछले आयोजन के समय बताया था कि मेरे लिए ब्लॉग राइटिंग का मतलब माइक्रोसाफ़्ट का विंडोज़ लाइव राइटर था। असल में यह साफ़्टवेयर इतना अच्छा था कि उससे ब्लॉगिंग आसान हो जाती थी। लेकिन पिछले साल पता नहीं किस कारण से गूगल ब्लॉगर ने उस साफ़्टवेयर के साथ सारे संबंध समाप्त कर दिए। मतलब यह कि विंडोज लाइव रायटर के द्वारा आप ब्लॉगर पर कुछ भी पोस्ट नहीं कर सकते। उसके बाद से ब्लॉगिंग का मेरा काम कुछ कम हो गया। इस बीच पता चला कि उसके स्थान पर एक नया साफ़्टवेयर आया है ओपन लाइव रायटर, लेकिन उसके बारे में भी यह कि वह विंडोज़ सेवन या उसके बाद की ऑपरेटिंग सिस्टम्स पर ही चलता है। मेरा पर्सनल कम्प्यूटर विंडोज़ एक्सपी पर चलता था इसलिए यह साफ़्टवेयर भी मेरे लिए पत्थर का अचार ही था। खैर अब अपने कम्प्यूटर को अपडेट कर दिया है तथा अब यह पोस्ट ओपन रायटर से ही लिख रहा हूँ। यह साफ़्टवेयर विंडोज़ लाइव रायटर के जैसा ही है, बल्कि कई सारे ऑप्शन्स उसकी तुलना में ज़्यादा बेहतर हैं। तो यह एक बड़ी बाधा जो मेरे और ब्लॉगिंग के बीच थी वह दूर हुई। और अब यह नई पोस्ट जो है यह नए साफ़्टवेयर पर लिखी जा रही है।
जो कुछ भी बीत जाता है वह हमेशा सुहाना लगता है। पुराने दिन, पुरानी यादें, पुराने काम, सब जैसे स्मृतियों के कोश में जमा हो जाते हैं। ब्लॉगिंग भी हमारे लिए अब शनैः शनैः उसी प्रकार होता जा रहा है। मुझे याद आता है कि लगभग दस साल पहले ब्लॉगिंग नाम का यह परिवार बना था। और हम सब इसमें जुड़ते चले गए थे। कितनी खुशियाँ, कितने हंगामे, कितने आयोजन हमने इस परिवार में किए। ऐसा लगता था मानो यह आभासी दुनिया है ही नहीं, सचमुच का एक परिवार ही है। भले ही ब्लॉगिंग की दुनिया आज उस प्रकार की नहीं रही, लेकिन वह रिश्ते जो बने थे वह आज भी कायम हैं। कई रिश्ते तो खून के रिश्तों की तरह मज़बूत हो गए हैं। आभासी दुनिया में ब्लॉगिंग ने जो रिश्ते बनाए उनको ख़त्म करने का काम किया फेसबुक ने, जहाँ रिश्तों से ज़्यादा इस बात की अहमियत हो गई कि उसने मेरी पोस्ट को लाइक किया या नहीं किया। उसने कमेंट किया या नहीं किया। कमेंट तो ब्लॉग पर भी होते थे, लेकिन वह सहज और सरल होते थे आत्मियता से भरे हुए होते थे। यहाँ पर कमेंट कारणवश होते हैं फेसबुक की दुनिया में।
खैर जो हो सो हो लेकिन हमें तो अपनी परंपरा कायम रखते हुए दीपावली के मुशायरे का आयोजन करना है। इस बार सोचा है कि आसान सी बहर हो और आसान सा मिसरा हो। कम समय है तो यह इसलिए जिससे सब लोग समय पर काम कर सकें। तो बहुत सोचने के बाद एक छोटी सी बहुत ज़्यादा प्रयोग में आने वाली बहर को चुना है। बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ अल आख़िर जिसका वज़न है 1222-1222-122 मतलब मुफाएलुन-मुफाएलुन-फऊलुन(ललालाला-ललालाला-ललाला)। बहुत ही कॉमन बहर है। बहुत अच्छी ग़ज़लें इस पर बनती हैं। जगजीत सिंह साहब की गाई हुई नवाज़ देवबंदी जी की ग़ज़ल है –तिरे बारे में जब सोचा नहीं था, मैं तनहा था मगर इतना नहीं था। तिरे बारे (मुफाएलुन), में जब सोचा(मुफाएलुन), नहीं था (फऊलुन)। बहुत सीधी और सरल सी बहर है, छोटी बहर है। तो आइए इसी पर इस बार काम किया जाए। मिसरा कुछ यूँ है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
मुफाएलुन-मुफाएलुन-फऊलुन
आसानी को और बढ़ाते हुए हम यह करते हैं कि हम “रहे” में “ए” की मात्रा को क़ाफ़िया बनाते हैँ और “हैं” को रदीफ़ बनाते हैं। इससे ग़ज़ल कहने में आसानी होगी। अभी तो दीपावली में करीब पन्द्रह दिन हैं, तब तक तो इस आसान बहर और आसाना रदीफ़ क़ाफ़िया पर आप जैसे गुणी लोग ग़ज़ल कह ही सकते हैं।
और अंत में एक छोटा सा आमंत्रण आप सबके लिए यदि आप आएँगे तो अच्छा लगेगा । पर केन्द्रित कार्यक्रम आयोजित किए तथा अब उसी क्रम में "मन्तव्य-भोपाल" द्वारा "अकाल में उत्सव" उपन्यास पर केन्द्रित पुस्तक चर्चा का अयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता देश के शीर्ष व्यंग्यकार पद्मश्री डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी करेंगे, विशेष वक्ता के रूप में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार, आलोचक तथा दूसरी परंपरा के संपादक डॉ. सुशील सिद्धार्थ उपन्यास पर अपना वक्तव्य प्रदान करेंगे। उपन्यास पर प्रारंभिक वक्तव्य श्री राजेश मिश्रा देंगे। कार्यक्रम का संचालन श्री समीर यादव करेंगे। कार्यक्रम भोपाल के पॉलीटेक्निक चौराहा स्थित "हिन्दी भवन" के "महादेवी वर्मा सभागार" में 16 अक्टूबर रविवार शाम 5.30 बजे आयोजित किया जाएगा। आप आएँगे तो आपके इस मित्र को अच्छा लगेगा, आशा है आप आएँगे।
आज से शुरू हो रहा है दीपावली का महापर्व, आइए आज से हम भी शुरू करते हैं अपना तरही मुशायरा सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी और डॉ. कुमार प्रजापति के साथ।
वर्ष बीत जाता है और पता ही नहीं चलता है, समय की रफ़्तार कुछ तेज़ हो गई है शायद। दीपावली का त्योहार एक बार फिर सामने आ गया है। वर्ष बीत जाने का संकेत देते हुए। महापर्व इसलिए भी इसे कहा जाता है क्योंकि यह त्योहार महापर्व कहलाने योग्य भी है। पाँच दिन का त्योहार और पाँच ही क्यों, सही मायने में तो यह उससे भी लम्बे समय तक चलता है। कई जगहों पर तो कार्तिक पूर्णिमा तक दीपावली का त्योहारा जारी रहता है। धनतेरस से प्रारंभ होकर वैसे भाई दूज तक चलने वाला होता है यह त्योहार। मुझे याद पड़ता है कि इस ब्लॉग की जब मैंने शुरूआत की थी, तो सबसे पहले दीपावली पर एक मुशायरे का आयोजन किया था। वह हालाँकि तरही मुशायरा नहीं था लेकिन उसमें सबने अपनी-अपनी कविताएँ प्रस्तुत की थीं। उसके बाद से सिलसिला चलता रहा। हर बार ऐसा लगता है कि कम लोग आएँगे, कम रचनाएँ आएँगीं लेकिन लोग दौड़ते-दौड़ते भी गाड़ी पकड़ ही लेते हैं और आ जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ है और सम्मानजनक संख्या में रचनाएँ आ गई हैं। ब्लॉगिंग के इस सिमटते-सिकुड़ते समय में सम्मानजनक होना ही बहुत बड़ी बात है।
इस बार का मिसरा देखने में आसान था लेकिन जो देखने में आसान होता है वही कठिन होता है, यह भी सच बात है। छोटी बहर में पूरी बात का निर्वाह करना ज़रा कठिन होता है। लेकिन बहुत ही अच्छे से निर्वाह किया गया है। आज हम तीन शायरों के साथ मुशायरे को प्रारंभ करते हैं। तीनों गुणी शायर हैं। इनमें से एक हमारे मुशायरे में पहली बार आ रहे हैं। सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी और डॉ. कुमार प्रजापति के साथ आज हम धनतेरस मनाने जा रहे हैं।
सौरभ पाण्डेय
इन आँखों में जो सपने रह गये हैं
बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं
अमावस को कहेंगे आप भी क्या
अगर सम्मान में दीपक जले हैं
अँधेरों से भरी धारावियों में
कहें किससे ये मौसम दीप के हैं
सड़क पर शोर से कब है शिकायत,
चढ़ी नज़रें मुखर आवाज़ पे हैं !
प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे
अमीरों के बनाये क़ायदे हैं
उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से
तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ भरे हैं
उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे --
कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं
करेगा कौन मन की बात, अम्मा !
सभी टीवी, मुबाइल में लगे हैं
जला इस ओर दीपक तो उधर भी
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
नयी फुनगी दिखी है फिर तने पर
बया की चोंच में तिनके दिखे हैं
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। सौरभ जी की कहन में एक अलग बात होती है। उनकी ग़ज़लें कुछ अलग तरह की ध्वनियों से भरी होती हैं। यह बात अलग है कि उनका मन गीतों में ज़्यादा रमता है। मतले से ही जो कमाल शुरू किया है वह पूरी ग़ज़ल में बरकरार रहता है। सड़क पर शोर से कब है शिकायत, चढ़ी नज़रें मुखर आवाज पे हैं, बहुत ही गूढ़ बात को बहुत सरलता और तरलता के साथ कह दिया है। आवाज़ पर नज़रें होना गहरे संकेत दे रहा है। प्रजातंत्री गणित के क़ायदे वाला शेर भी एक बार फिर कई-कई अँधेरे कोनों की ओर इशारा कर रहा है। बहुत खूब शेर। नयी फुनगी का तने पर दिखना और बया की चोंच में तिनके नज़र आना शायद यही तो असली दीपावली होती है। गिरह का शेर भी खूब बना है। बहुत ही उम्दा ग़ज़ल, अलग ढंग और अलग रंग की ग़ज़ल। वाह वाह वाह ।
गिरीश पंकज
हमारे हाथ में नन्हें दिये हैं
अँधेरे खुदकशी करने लगे हैं
उजाले ने खुशी की तान छेड़ी
अँधेरे पढ़ रहे अब मर्सिये हैं
मनाए ख़ैर अब पसरा अँधेरा
मसीहा दीप ले कर चल पड़े हैं
अँधेरा बाँटते हैं जो जगत को
न जाने कैसी मिट्टी से बने हैं
चलो हम दीप उस घर भी जलाएँ
जहाँ रोते हुए बच्चे खड़े हैं
अँधेरा भाग जाएगा यहाँ से
''उजाले के दरीचे खुल रहे हैं ''
बुझाना दीप है आसान 'पंकज'
जलाएँ जो, वही इन्साँ बड़े हैं
गिरीश पंकज जी न केवल गुणी शायर है बल्कि बहुत अच्छे व्यंग्यकार भी हैं। व्यंग्यकार के रूप में उनकी ख्याति ने उनके शायर को छुपा रखा है। लेकिन जब-जब वह शायर सामने आता है तो कमाल की ग़ज़लें हमें मिलती हैं। यह एक मुसलसल ग़ज़ल है, एक ही विचार और एक ही विषय को साधती हुई ग़ज़ल। मतले से शुरू करके बहुत सुंदर शेर गिरीश जी ने कहे हैं। सकारात्मक विचार पूरी गज़ल़ में हैं। अँधेरे और उजाले के बीच के समर में उजालों का हामी ही कविता हमेशा होती है। मसीहा का दीप लेकर चल पड़ने वाला शेर हमारी सारी सकारात्मकता को एक दिशा प्रदान करने वाला शेर है। अँधेरा हर युग में होता है और उससे लड़ने वाला भी हमें हर युग में मिलता है। अँधेरा बाँटते हैं जो जगत को में दीप की मिट्टी की चर्चा शेर को नई ऊँचाई प्रदान करती है। गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर लगा है। वाह वाह वाह।
डॉ 'कुमार'प्रजापति
लगी है चोट दिल पे रो चुके हैं
कहाँ अब आँख में आँसू बचे हैं
किसी ने आपको समझा दिया है
भरोसा कीजिए हम आपके हैं
सभी मिट्टी में मिल जायेंगे इक दिन
सभी इन्सान मिट्टी के बने हैं
तमन्ना थी कि उनसे बात करते
ये हालत है कि बस चुप-चुप खड़े हैं
अभी उम्मीद है आने की उसके
अभी रौशन सितारों के दिये हैं
अँधेरे का कलेजा फट रहा है
'उजाले के दरीचे खुल रहे हैं'
'कुमार'उसको सुनाने की है चाहत
ग़ज़ल के शेर जो हमने कहे हैं
राउलकेला ओडिशा के कुमार जी ने बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। पहली बार उनकी आमद हुई है लेकिन लग नहीं रहा है कि हम उनको पहली बार पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं। क्या कमाल की ग़ज़ल कही है उन्होंने। ग़ज़ब का मतला, और उस पर मिसरा सानी तो कमाल-कमाल है। और ठीक उसके बाद का शेर उफ़्फ़…. मिसरा सानी –भरोसा कीजिए, तो चौंका दे रहा है। मिट्टी में मिल जाने की बात कहने वाला शेर दर्शन और सूफ़ी रंग को लिए हुए है और खूब बना है। गिरह के पहले के दोनो शेर भी कमाल कर रहे हैं। अभी उम्मीद है आने की उसके में मिसरा सानी खूब बना है। कुमार जी को मिसरा सानी गढ़ना खूब आता है, यह एक ही ग़ज़ल से पता चला रहा है। मिसरा सानी किसी भी शायर के लिए सबसे कठिन स्वप्न होता है। गिरह और मकते का शेर दोनों ही उसी रंग में हैं जिस पर पूरी ग़ज़ल है। पहली आमद कमाल आमद, वाह वाह वाह।
तो यह हैं हमारे आज के ओपनिंग खिलाड़ी जो कमाल का प्रदर्शन कर रहे हैं। आप बस इस प्रदर्शन को देखिए और मेरी तरह वाह वाह करिए। आगे हम कल और कुछ शायरों को सुनेंगे। तब तक बजाते रहिए तालियाँ और आनंद लीजिए आज की तीनों ग़ज़लों का। आप सभी को धनतेरस की शुभकामनाएँ। शुभ-शुभ।
कल तीन रचनाकारों ने अपनी ग़ज़लों से धमाल मचाया और पाँच रचनाकार अपनी रचनाओं से रूप चतुर्दशी का रूप बढ़ाने आ रहे हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, पूजा भाटिया, गुरप्रीत सिंह और संध्या राठौर प्रसाद के साथ मनाते हैं आज की यह रूप चतुर्दशी।
मित्रो कई बार ऐसा लगता है कि दस साल पहले जो परिवार इस ब्लॉग पर बना था, जुड़ा था, वह कहीं बिखर तो नहीं गया? लेकिन फिर एक मुशायरा होता है और सारा परिवार एक बार फिर से एकजुट हो जाता है। मुझे लगता है कि यह ब्लॉग अब हम सबके नास्टेल्जिया में जुड़ गया है। यह हम सबका वह चौपाल है जहाँ पर हम समय मिलते ही फिर फिर लौटना पसंद करते हैं। और कोई अवसर आते ही सूचनाएँ प्राप्त होना प्रारंभ हो जाती हैं कि क्या बात है इस बार मिसरा अभी तक नहीं दिया गया। इस ब्लॉग पर हमने यह परंपरा प्रारंभ की है कि यहाँ पर जो भी मिसरा दिया जाएगा वह किसी पूर्वरचित ग़ज़ल का न होकर एकदम नया होगा। कई बार इस नया देने के चक्कर में ही काफी देर हो जाती है मिसरा देने में। इस बार भी एक पूरी रात की मशक़्क़त के बाद यह मिसरा सुबह-सुबह मानों सपने में आया। बात चल रही थी इस बात की कि यह तरही मुशायरा अब हम सबकी आदत बन चुका है। जो लोग आते हैं वो आते ही हैं। और हाँ आपको ज्ञात ही होगा कि इस बीच दो पत्रिकाएँ शिवना साहित्यिकी तथा विभोम स्वर प्रारंभ की गईं हैं। आपमें से जिनके पते रिकार्ड में थे उनको पत्रिकाएँ भेजी जा रही हैं लेकिन जिनके पते नहीं है उनको नहीं भेज पा रहे हैं, अनुरोध है कि अपने डाक के पते प्रदान करने का कष्ट करें। और हाँ जिस प्रकार इस ब्लॉग के लिए आप ग़जलें भेजते हैं उसी प्रकार पत्रिकाओं के लिए भी ग़ज़लें भेजें।
आज रूप की चतुर्दशी है। कहीं कहीं इसको नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। आज सुबह जल्दी उठकर स्नान करने तथा विशेष रूप से उबटन लगाकर स्नान करने का बहुत महत्व है। तो आइये आज रूप की चतुर्दशी पर हम पाँच रचनाकारों की रूपवान रचनाएँ सुनते हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, पूजा भाटिया, गुरप्रीत सिंह और संध्या राठौर प्रसाद के साथ मनाते हैं आज की यह रूप चतुर्दशी।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
एल ई डी की कतारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं
दुआ सब ने चरागों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं
उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं
न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं
रखो श्रद्धा न देखो कुछ न सोचो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं
अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं
एक बड़ी बात कह रहा हूँ और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ, आज इस ग़ज़ल ने दुष्यंत कुमार की याद दिला दी। वही तेवर, वही कटाक्ष, वही तंज़। इस ग़ज़ल के एक-एक शेर के अर्थ में जाइये और फिर सोचिए कि यह शेर कहाँ-कहाँ चोट कर रहा है। सलीक़ा यही होता है ग़ज़ल का जिसमें सब कुछ कह दिया जाए बिना कुछ कहे। दुआ सबने चरागों के लिए की में झुनझुनों का फलना रोंगटे खड़े कर देता है। और अगले ही शेर में उजाले के शुभ्र होने की बात और रंगों की पहचान में एक बार फिर गहरा कटाक्ष किया गया है। करेंग एक दिन वो भी उजाला में अभी केवल धुँआ देने का ग़ज़ब तंज़ है, ग़ज़ब मतलब सचमुच का ग़ज़ब। रखो श्रद्धा में कुछ न सोचो के रूप में एक बार फिर शायर ने अपनी आक्रामकता को बरकरार रखा है। क्या कमाल के शेर रचे गए हैं इस ग़ज़ल में। याद आते हैं प्रेमचंद भी –क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।
दिगंबर नासवा
तभी तो दीप घर घर में जले हैं
सजग सीमाओं पर प्रहरी खड़े हैं
जले इस बार दीपक उनकी खातिर
वतन के नाम पर जो मर मिटे हैं
सुबह उठ कर छुए हैं पाँव माँ के
मेरे तो लक्ष्मी पूजन हो चुके हैं
झुकी पलकें, दुपट्टा आसमानी
गुलाबी गाल सतरंगी हुए हैं
अमावस की हथेली से फिसल कर
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
पटाखों से प्रदूषण हो रहा है
दीवाली पर ही क्यों जुमले बने हैं
सफाई में मिली इस बार दौलत
तेरी खुशबू से महके ख़त मिले हैं
दिगंबर ने इस बार मतला उलटबाँसी करके रचा है, एकबारगी तो लगा कि मिसरा सानी को उला होना चाहिए और उला को सानी। लेकिन एक दो बार पढ़ा तो लगा कि नहीं उस उलटने का भी अपना एक आनंद है, सौंदर्य है। यदि किसी प्रयोग करने से सौंदर्य बढ़ रहा हो तो वह प्रयोग जायज़ माना जाता है। मतला खूब बन पड़ा हे। इसलिए भी क्योंकि इसमें हमारे प्रहरियों को सलामी दी गई है। मतले के बाद पहला ही शेर एक बार फिर सीमाओं पर शहीद हो रहे हमारे उन सपूतों के नाम है जिनके कारण हम दीपावली मना रहे हैं। इस पूरे ब्लॉग परिवार की और से इस शेर की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए हमारे शेरों को नमन। दो अनूठे प्रेम के शेर भी इस ग़ज़ल में हैं झुकी पलकें और सफाई में मिली इस बार दौलत, यह दोनों ही शेर प्रेम की महक से भरे हुए हैं। तेरी खुशबू से महके खत मिलना तो कमाल है। बहुत ही सुंदर। गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर तरीके से बाँधा गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
पूजा भाटिया
हमें प्यारे वो सारे वसवसे हैं
हमारे नाम जिन में जुड़ गए हैं
हमारे अश्क तकिये पर बिछे हैं
मगर हम ख़ाब में तो हँस रहे हैं
उसे मिलने से लेकर अब तलक हम
उसी के और होते जा रहे हैं
कहाँ तक हम फिरें सब को संभाले
हमारे अपने भी कुछ मसअले हैं
कुछ इक दिन तो सहारा देंगे दिल को
ये ग़म पिछले ग़मों से कुछ नए हैं
ये माना शहर बिल्कुल ही नया है
मगर चेहरे सभी देखे हुए हैं
अजी हाँ प्यार है हमको तुम्हीं से
चलो जाने दो अब दस बज चुके हैं
ज़मीं पर हर तरफ़ बिखरे ये ज़र्रे
सितारे थे..अँधेरा ढो रहे हैं
ख़बर सुनते ही आने की तुम्हारे
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
पूजा जी भी हमारे मुशायरों में आती रहती हैं। इस बार प्रेम और विरह के खूबसूरत शेर उन्होंने रचे हैं। बहुत ही अलग तरीक़े से ये शेर कहे गए हैं। सबसे पहले बात उसे शेर की जो ग़ज़ब ही है, विशेषकर उसका मिसरा सानी –चलो जाने दो अब दस बज चुके हैं। क्या बात है ग़ज़ल के फार्मेट पर एकदम पूरा पूरा उतरता हुआ मिसरा। ग़ज़ब। हमारे अश्क तकिये पर बिझे हैं और ख़ाब में हँसने वाला शेर भी खूब बना है। विरोधाभास पर लिखी गई हर रचना पढ़ने वाले को अलग आनंद देती है। कुछ इक दिन तो सहारा देंगे दिल को में एक बार फिर से मिसरा सानी कमाल बना है। एकदम कमाल। सितारों के अँधेरा ढोने में एक बार फिर से विरोधाभास को सौंदर्य बढ़ाने के लिए बहुत ही खूबसूरत तरीके से उपयोग किया गया है। उसे मिलने से लेकर में उसीके और होते जाना बहुत अच्छा प्रयोग बना है। और गिरह का शेर भी अंत में बहुत ही खूब बनाया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कमाल के शेर, वाह वाह वाह ।
संध्या राठौर प्रसाद
उजालो के दरीचे खुल रहे हैं
दिये जो बुझ गए थे जल गए हैं
कमी ऐसी नहीं थी कोई उनमें
मगर फिर भी किसी को खल गए हैं
पुरानी शाख है बूढ़ा शज़र है
खिले हैं फूल जो, वो सब नए हैं
थी कैसी प्यास जो आँखों में ठहरी
जहाँ देखो वहीं दरिया बहे हैं
तुझे आवाज़ दी तुझको पुकारा
तिरी यादों के घर खंडहर किये हैं
यहाँ आया है क्या सैलाब कोई
ये किसके कैसे हैं घर जो ढहे हैं
संध्या जी का चित्र भी उपलब्ध नहीं हो पाया और ना ही उनके बारे में कोई जानकारी मिल पाई। लेकिन इस ब्लॉग की परंपरा है कि जो आता है उसका स्वागत है। बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है संध्या जी ने। मतले में ही गिरह को बाँधा है और बहुत ही सुंदर तरीके से बाँधा है। दियों के जलने से उजाले के दरीचों के खुलने की बात बहुत सुंदर तरीक़े से कही है। उसके बाद अगला ही शेर बहुत खूब है जिसमें जीवन की एक कड़वी सच्चाई को सामने लाया गया है। पुरानी शाख है बूढ़ा शजर है में नए फूलों के खिलने से एक प्रकार की सकारात्मक सोच सामने आ रही है। प्यास और दरिया वाले शेर में विरोधाभास को कमाल तरीक़े से उपयोग में लाया गया है। उसमें भी दो शब्द ठहरी और बहे का एक ही द्श्य में प्रयोग खूब किया है। प्यास का ठहरना और दरिया का बहना दो अलग बातें एक साथ होना बहुत सुंदर बन पड़ा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है संध्या जी ने । वाह वाह वाह ।
गुरप्रीत सिंह
अँधेरे के ये पल कुछ ही बचे हैं
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
हवा बहती गज़ल कहती है देखो
शजर आ कर वजद में झूमते हैं
खिलौने से पराये जैसे बच्चा
वो ऐसे दिल से मेरे खेलते हैं
न चमकाओ हकीकत का ये शीशा
मेरे ख्वाबों के बच्चे सो रहे हैं
अभी कुछ रोज़ पहले दिल है टूटा
अभी ताज़ा ही हम शायर बने हैं
गुरप्रीत का भी चित्र उपलब्ध नहीं हो पाया है। लेकिन एक बात बताना चाहूँगा कि गुरप्रीत ने इस ब्लॉग के प्रारंभिक अध्यायों को पढ़कर ग़ज़ल के बारे में जानकारी प्राप्त की है। पाँच-छह माह पूर्व ईमेल के उत्तर में गुरप्रीत को मैंने इस ब्लॉग के बारे में बताया था और इस ग़ज़ल को पढ़कर लग रहा है कि गुरप्रीत में बहुत संभावनाएँ हैं। मतले में ही बहुत सुंदर ढंग से गिरह को बाँधा है। पहले बात उस शेर की जो बहुत सुंदर बना है। अंतिम शेर जिसमें दिल टूटने की बात को ताज़ा शायर बनने से जोड़ा गया है बहुत सुंदर है। न चमकाओ हक़ीक़त का ये शीशा में ख़्वाबों के बच्चों के जाग जाने का भय बहुत खूब है। तुलनात्मक तरीके से बहुत अच्छा प्रयोग किया है ख्वाब और हक़ीक़त का। गुरप्रीत का यह हमारे मुशायरे में पहला ही प्रयास है और ग़ज़ल को पढ़कर यह संभावना तो जाग ही रही है कि हमें गुरप्रीत की बहुत सुंदर ग़ज़लें आने वाले समय में पढ़ने को मिलनी हैं। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
तो यह हैं आज के हमारे पाँच शायर जिन्होंने कमाल की रचनाएँ पेश की हैं। और दाद देने के आपके काम को बहुत बढ़ा दिया है। रूपवान ग़ज़लों के सौंदर्य में आज की यह रूप चतुर्दशी दिपदिपा रही है। कल दीपावली पर हम कुछ और ग़ज़लों के साथ मनाएँगे दीपपर्व तब तक आप दाद देते रहिए इन पाँचों रचनाकारों को।
शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आज अश्विनी रमेश जी, दिनेश कुमार, मंसूर अली हाशमी जी, डॉ. संजय दानी जी, राकेश खंडेलवाल जी, नुसरत मेहदी जी और लावण्या दीपक शाह जी के साथ दीपपर्व के दीप हम जलाते हैं।
दीपावली का यह पर्व आप सबके जीवन में खुशियाँ लाए और आपकी सारी इच्छाएँ पूरी करे। वह सब कुछ जो आपने सोचा है वह सब कुछ आपको मिले। सबसे अच्छी शुभकामना यह कि आप सब रचते रहें, लिखते रहें और आपका लिखा हुआ सराहा जाता रहे। लेखक के लिए रचनाकार के लिए सबसे बड़ी दुआ तो यही हो सकती है। हाँ और एक दुआ इस परिवार के लिए भी, इस ब्लॉग के परिवार के लिए, हमारा यह प्रेम यह सद्भाव इसी प्रकार बना रहे। हम सबके बीच प्रेम का यह भाव बना रहे। कोई नहीं बिछड़े कोई नहीं दुखी हो। हम सब इसी प्रकार बरसों बरस तक प्रेम के यह दीपक जलाते रहें।
आइये आज हम छः रचनाकारों के साथ दीपावली का यह पर्व मनाते हैं आज अश्विनी रमेश जी, दिनेश कुमार, मंसूर अली हाशमी जी, डॉ. संजय दानी जी, राकेश खंडेलवाल जी, नुसरत मेहदी जी और लावण्या दीपक शाह जी के साथ दीपपर्व के दीप हम जलाते हैं।
अश्विनी रमेश
दिवाली के दिवे कुछ यूँ जले हैं
उजाले झिलमिलाने से लगे हैं
गिले शिकवे भुलाकर लोग अपने
खुशी से आज सब से ही मिले हैं
मिटा दे सब अंधेरे जो ज़हन के
उजाले यों दमक दिल के रहे हैं
दिवाली के जुनूँ में आज खोकर
पटाखे फुलझड़ी झर-झर झरे हैं
दिवारें नफरतों की तोड़ कर हम
उजाला प्यार का करने चले हैं
दिवाली इस कदर रोशन ये होवे
मिटे रंजिश इबादत कर रहे हैं
दिवाली बज़्म यों सजती रहेगी
हसीं अशआर के दीपक जले हैं
दीपावली के त्योहार की सारी भावनाएँ समेटे हुए बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है। दीपावली की एक-एक रस्म को शेर में पिरोते हुए बहुत ही भावनात्मक बातें कही गईं हैं। नफ़रतों को हटा का प्रेम का रंग चारों ओर बिखेरना यही तो हर पर्व का कार्य होता है। प्रेम और स्नेह के रंगों से रौशनी से हर तरफ नूर बिखर जाए यही कामना होती है। पटाखे फुलझड़ी का झर झर झरना, खुशी से लोगों का गले मिलना, रंजिशों का मिटना, यही तो हम सबकी कामना है। और हमारी कामना को शब्दों में ढाल दिया है अश्विनी जी ने बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
दिनेश कुमार
उजाले का लिए परचम खड़े हैं
हवा में जल रहे नन्हे दिये हैं
शराफ़त का नक़ाब ओढ़े हुये हैं
अधिकतर आदमी बगुले बने हैं
नफ़ा नुक़सान अक़्सर देखते हैं
उसूलों के भी अपने क़ाइदे हैं
लगी ठोकर तो उठ कर चल दिए हैं
हमारे ख़्वाब भी चिकने घड़े हैं
सफलता पाँव भी चूमेगी इक दिन
चुनौती के मुक़ाबिल हौसले हैं
ये सच है हम भी मेंढक हैं कुएं के
हमारी सोच के भी दायरे हैं
'प्रदूषण'के पटाखे मत चलाओ
ये सुन सुन कान के पर्दे हिले हैं
कहाँ मिटता है भीतर का अँधेरा
अगरचे हर तरफ़ दीपक जले हैं
उजाले का परचम लिए खड़े दीपकों को समर्पित यह ग़ज़ल बहुत ही सुंदर है। जिसमें हर अँधेरे को अपने तरीके से आईना दिखाने की कोशिश की गई है। नफा नुकसान देखने वाले उसूल हों, ठोकर पर चल देने वालो ख्वाब हों, या शराफत का नकाब हो। हर शेर अपने ही ढंग से अँधेरों को उजाले में लाने का प्रयास कर रहा है। सोच के दायरे वाला शेर भी बहुत सुंदर बना है जिसमें मेंढक होने के प्रतीक से बहुत अच्छे से कहा गया है। चुनौती के मुकाबल हौसलों को खड़े करने वाला शेर भी शानदार है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
मन्सूर अली हाश्मी जी
1
हमें अपने से वो क्यूँ लग रहे हैं
कोई सपना है या हम जगे हैं
है हिन्दू भी, मुसलमॉ, सिख इसाई
नगीने बन वतन में सब जड़े हैं
निराशा से उभर कर अब तो देखो
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
ये काकुल भी तुम्हारे नैन भी तो
ये तुम से ही गिला क्यों कर रहे हैं ?
तग़ाफुल है,भरम या ख़ुद पसंदी ?
खड़े हैं आईने को तक रहे हैं
कही नेता कही रावण दहन है
विचारों के पुलिन्दे जल रहे हैं
जिये हम जिसकी ख़ातिर और मरे भी
वो पहलूए रकीबाँ में खड़े हैं
2
बहुत ज़ोरों से अब क्यूँ बज रहे हैं
नही लगता कि वो थोथे चने हैं ?
ये फिर 'यूपी'में कोई 'कैकेयी'है
कोई फिर राम क्या वन को चले हैं?
तमस्ख़ुर, तन्ज़ है और जुमलाबाज़ी
सियासत में सभी क्या मसख़रे है !
बड़ी अच्छी बहर दी इस दिवाली
पटाख़ों पर पटाख़े छुट रहे है !
मिली है 'हाश्मी'को दाल-रोटी
गधे है कि मिठाई खा रहे है।
दोनों ही ग़ज़लें मंसूर भाई ने अपने ही अंदाज़ में कही हैं। एक सीधी सादी ग़ज़ल और दूसरी तंज़ की ग़ज़ल। पहली ग़ज़ल में गिरह बहुत ही सकारात्मक तरीके से बाँधी गई है। उजाले के दरीचे खुलने का मतलब यही तो होता है कि आप निराशा से उभर कर सकारात्मक हो जाएँ। एक मिसरा तो ऐसा ग़ज़ब बना है कि बस, खड़े हैं आईने को तक रहे हैं, वाह वहा कमाल का मिसरा बना है। दूसरी ग़ज़ल का मतला ही खूब बन पड़ा है। ग़ज़ब। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
डा संजय दानी दुर्ग
फ़क़ीरी के सितम हम भी सहे हैं,
मुहब्बत की वक़ालत कर चुके हैं ।
अंधेरा अब अंधेरे में रहेगा ,
उजाले के दरीचे खुल रर्हे हैं ।
पहाड़ों को बुलाना मत घरों में ,
ज़मीनी धोखों से ही दिल भरे है ।
विदेशी चीज़ें अच्छी लगती हैं पर,
वतन के हाट रोने से लगे हैं ।
चलो दीवाली में अच्छा करें कुछ,
ग़रीबों की गली में बैठते हैं ।
चलो फिर गांव में ढूंढे ख़ुशी को,
सुकूं शहरों के बस चिकने घड़े हैं ।
दगाबाज़ी का बादल ख़ौफ़ में है,
मदद के दीप हम दोनों रखे हैं ।
वतन पे मरने वाले कब डरे हैं ।
अंधेरा अब अंधेरे में रहेगा, वाह यह होती है बात, यही तो वह बात है जिसके कारण काव्य में रस आता है। क्या खूब गिरह लगाई है मज़ा ही आ गया। वाह। पहाड़ और ज़मीन को प्रतीक बना कर बड़ी बात कहने का प्रयास अगले शेर में किया गया है। बहुत ही सुंदर। ग़जल का एक शेर सकारात्मक होता है और अगला नकारात्मकता पर प्रहार करता है। बहुत ही सुंदर। मकते में सेना को समर्पित मिसरा भी ख्ब है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।
नुसरत मेहदी जी
पंकज बहुत गड़बड़ हो गई तुमने मिसरा दिया मैंने सिर्फ वो पढ़ा और चलते फिरते शेर कह दिए ये पढ़ा ही नहीं कि तुमने क्या रदीफ़ क़ाफ़िया तय किये हैं।
हमारे ग़म में वो कब घुल रहे हैं
सुना है फिर कहीं मिलजुल रहे हैं
ये किन रंगों में मौसम खुल रहे हैं
ग़मों की धूप में हम धुल रहे हैं
अभी हैं बेख़बर सिम्तो से फिर भी
उड़ानों पर परिंदे तुल रहे हैं
नहीं टूटा तअल्लुक़, ठीक,लेकिन
ग़लत कुछ फ़ैसले बिलकुल रहे हैं
अँधेरे छुप गए गोशो में जाके
"उजालों के दरीचे खुल रहे हैं "
असासा हैं ये तहजीबों के रिश्ते
दिलों के दरमियां ये पुल रहे हैं
मुक़द्दर है चराग़ों का ये 'नुसरत'
कि अपनी ज़ात में खुद घुल रहे हैं
नुसरत दी के कहने में एक अलग ही अंदाज़ होता है। इस बार जैसा कि उन्होंने लिखा कि वे रदीफ और काफिया क्या है यह नहीं देख पाईं औ र ग़ज़ल कह दी। लेकिन इस ग़फ़लत से हमें एक अलग प्रकार की सुंदर ग़ज़ल मिल गई। मतला ही ऐसा ग़ज़ब बना है कि अश अश करने को जी चाह रहा है। ग़ज़ब। सिम्तों से बेखबर परिंदों का उड़ानों पर होना क्या कमाल है। यही तो जोश होता है। नहीं टूटा तअल्लुक क्या कमाल का शेर है, जीवन की कड़वी सच्चाई को बयाँ करता शेर, ग़लत फैसलों की ओर इशारा करता हुआ शेर। वाह। अँधेरे छुप गए गोशों में जाकर मिसरे से क्या खूब गिरह बाँधी गई है। वाह। मकते में मानों हर उस शख्स की बात कह दी गई है जो अँधेरों से लड़ रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह ।
1
सिमट कर रातरानी की गली से
तुहिन पाथेय अपना है सजाता
अचानक याद आया गीत, बिसरा
मदिर स्वर एक झरना गुनगुनाता
बनाने लग गई प्राची दिशा में
नई कुछ बूटियां राँगोलियों की
हुई आतुर गगन को नापने को
सजी है पंक्तपाखी टोलियों की
क्षितिज करवट बदलने लग गया है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
चली हैं पनघटों की और कलसी
बिखरते पैंजनी के स्वर हवा में
मचलती हैं तरंगे अब करेंगी
धनक के रंग से कुछ मीठी बातें
लगी श्रृंगार करने मेघपरियां
सुनहरी, ओढनी की कर किनारे
सजाने लग गई है पालकी को
लिवाय साथ रवि को जा कहारी
नदी तट गूंजती है शंख की ध्वनि
उजाले ले दरीचे खुल रहे हैं
हुआ है अवतरण सुबहो बनारस
महाकालेश्वरं में आरती का
जगी अंगड़ाइयाँ ले वर्तिकाये
मधुर स्वर मन्त्र के उच्चारती आ
सजी तन मन पखारे आंजुरि में
पिरोई पाँखुरी में आस्थाएं अर्चनाये
जगाने प्राण प्रतिमा में प्रतिष्ठित
चली गंगाजली अभिषेक करने
विभासी हो ललित गूंजे हवा में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
2
शरद ऋतु रख रही पग षोडसी में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
उतारा ताक से स्वेटर हवा ने
लगे खुलने रजाई के पुलंदे
सजी छत आंगनों में अल्पनाएं
जहां कल बैठते थे आ परिंदे
किया दीवार ने श्रृंगार अपने
नए से हो गए हैं द्वार, परदे
नए परिधान में सब आसमय है
श्री आ कोई वांछित आज वर दे
दिए सजने लगे बन कर कतारें
उजाले के दरीचे खुल रहे है
लगी सजने मिठाई थालियों में
बनी गुझिया पकौड़ी पापड़ी भी
प्लेटों में है चमचम, खीरमोहन
इमरती और संग में मनभरी भी
इकठ्र आज रिश्तेदार होकर
मनाने दीप का उत्सव मिले है
हुआ हर्षित मयूरा नाचता मन
अगिनती फूल आँगन में खिले है
श्री के साथ गणपति सामने है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
पटाखे फुलझड़ी चलने लगे हैं
गगन में खींचती रेखा हवाई
गली घर द्वार आँगन बाखरें सब
दिए की ज्योति से हैं जगमगाई
मधुर शुभकामना सबके अधर पर
ग़ज़ल में ढल रही है गुनगुनाकर
प्रखरता सौंपता रवि आज अपनी
दिये की वर्तिका को मुस्कुराकर
धरा झूमी हुई मंगल मनाती
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
अब राकेश जी के गीतों पर कोई क्या टिप्पणी करे। टिप्पणी करे या ठगा सा रहे। दीपावली का त्योहार मानो गीतों में साकारा हो उठा है। सारे प्रतीक सारे बिम्ब एक एक करके मानो किसी द्श्य की तरह सामने आ रहे हैं। ऐसा लगता है मानों राकेश जी ने ब्लॉग की दहलीज़ पर एक सुंदर सी राँगोली बना दी है शब्दों से। जिसे बस ठगा रह कर देखा ही जा सकता है। दूसरा गीत तो मानों दीपावली को थीम साँग है। एक एक पंक्ति दीपमाला सी सजी है। क्या बात है वाह वाह वाह।
लावण्या दीपक शाह जी
तू जलना धीरे-धीरे दीप मेरे
तझे है रात भर ऐसे ही जलना
है आया पर्व दीपों का अनूठा
अमावस से है तुझको आज लड़ना
मनाते हैं सभी खुशियाँ घरों में
उमंगों से है महका-महका आंगन
हर इक घर में सदा हो शुभ औ मंगल
ये व्रत लक्ष्मी का फिर आया है पावन
कृपा सब रहे ओ माँ ये तेरी
यही बिनती है तुझसे आज मेरी
तेरे आशीष से ही बस कटेगी
अमावस की निशा है ये घनेरी
उमंगों के कई दीपक जले हैं
उजालों के दरीचे खुल रहे हैं
गुणी पिता की गुणी बिटिया। ज्योति कलश छलके जैसा अमर ज्योति गीत लिखने वाले अमर गीतकार की बिटिया। दीपक को प्रतीक बनाकर बहुत ही सुंदर गीत रचा है। कामना और भावना से भरा हुआ गीत, जो भारतीय परंपरा है कि सबके लिए हम शुभ की कामना करते हैं, सबके घरों में खुशी हो यही प्रार्थना करते हैं। यह गीत भी उसी प्रकार के भावों से भरा हुआ है। बहुत ही सुंदर गीत क्या बात है, वाह वाह वाह ।
तो यह हैं आज के सारे रचनाकार। अभी कुछ रचनाकार बाद में गाड़ी पकड़ेंगे ऐसा लग रहा है। यदि आते हैं तो हम बासी दीपावली उनके साथ ही मनाएँगे। तिलक जी, नीरज जी जैसे कुछ वरिष्ठ भी शायद अभी गाड़ी पकड़ने की तैयार में हैं। आप सबको दीवाली मंगलमय हो। हँसते रहें झिलमिलाते रहें। शुभ दीपावली।
इस बार तो लगता है कि बासी दीपावली का सिलसिला कुछ दिनों तक चलने वाला है, आइए आज दो गुणी शायरों की जोड़ी नीरज गोस्वामी जी और तिलकराज कपूर जी के साथ बासी दीपावली मनाते हैं।
बासी दीपावली का अपना महत्व होता है। बासी दीपावली का मलब होता है, बचे हुए पटाखों को चलाना। हम लोग बचपन में बासी पटाखों को दिन में चलाते थे। यह देखने के लिए कि रात में तो यह राकेट केवल रोशनी की लकीर की तरह दिखता है लेकिन दिन के उजाले में जब इसे चलाएँगे, तो यह बाक़ायदा पूरा दिखेगा। बचे हुए बमों की बारूद को निकाल कर उसका एक अलग पटाखा बनाना और उसे चलाना, जो एक बहुत ख़तरनाक खेल था। कितना सुख मिलता था, जब रात को चलाई गई लड़ के कचरे में से कुछ जीवित बम मिल जाते थे। वही होता था हमारे लिए कारूँ का ख़ज़ाना। उन बमों को एकत्र करना और फिर एक-एक करके जलाना। बहुत सी यादें हैं, जो आज आ रही हैं। असल में त्योहार के बीत जाने के बाद मन ज़रा उदास हो जाता है। बीत जाने के बाद उदासी आ ही जाती है। उदासी इस बात की, कि अब जब आनंद के क्षण बीत गए हैं, तो एक बार फिर जीवन को उसी ढर्रे पर लौटना होगा। उसी दुनिया में, जहाँ नकारात्मकता भरी हुई है, जहाँ नफ़रतों का साम्राज्य पसरा हुआ है। शायद यह लौटना ही हमें अधिक उदास करता है। काश कि यह दुनिया इतनी अच्छी होती कि हर दिन हमारे मन में त्योहार वाली सकारात्मकता होती। काश कि हमें सकारात्मक होने के लिए किसी त्योहार की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। लेकिन हमारे काशों का कोई उत्तर होता कब है।
इस बार का मिसरा बहरे हज़ज पर था। बहरे “हज़ज” जिसका कि स्थाई रुक्न होता है “मुफाईलुन” या 1222, यह बहर गाई जाने वाली बहर होती है। बहरे हज़ज का जो रुक्न है वह दो प्रकार के “जुज़” से बना है पहले एक “वतद् मज़मुआ” और उसके बाद दो “सबब-ए-ख़फ़ीफ़”। “12+2+2”, हमने बहुत पहले “जुज़” के बारे में जानकारी प्राप्त की थी उसमें इन “जुज़” का ज़िक्र आया था। “वतद् मजमुआ” उस तीन हर्फों वाली व्यवस्था को कहते हैं जिसके पहले दो हर्फ “गतिशील” हों तथा तीसरा “स्थिर” हो, “स्टेटिक्स” एंड “डायनेमिक्स” या “डामीनेंट” एंड “रेसेसिव” वाली थ्योरी। जैसे “अगर” शब्द में “अ” और “ग” डामिनेंट हैं तथा “र” रेसेसिव है। तो “अगर” शब्द या इसके जैसी ध्वनि वाले सभी शब्द या व्यवस्थाएँ “वतद् मज़मुआ” कहलाएँगीं। अगर, मगर, चला, दिखा, रुका, नहीं, चलो, उठो, उठे। अब देखते हैं “सबब-ए-ख़फीफ़” को, बात ठीक पहले जैसी ही है लेकिन अंतर केवल इतना है कि यह दो हर्फों वाली व्यवस्था है जिसमें पहला “डामिनेंट” है और दूसरा “रेसेसिव”। उर्दू में इस “स्टेटिक” और “डायनेमिक वर्ण के लिए “मुतहर्रिक” और “साकिन” शब्द हैं। “मुतहर्रिक” मतलब “गतिशील” तथा “साकिन” मतलब “स्थिर”। तो “सबब-ए-ख़फ़ीफ़” में दो हर्फ हैं पहला “गतिशील” और दूसरा “स्थिर”। जैसे अब, हम, तुम, चल, हट, आ, जा, खा, तू, मैं, ये, ले, दे, के, वो, पी, ई, ऊ, ऐ। तो यदि हम हज़ज के रुक्न को देखें तो उसमें यही व्यवस्था है । 12+2+2 मुफा+ई +लुन
आइये अब अपनी इस बार की बहर पर ज़रा बातें करते हैं। इस बार की बहर का नाम है बहरे “हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़”। यह एक “मुज़ाहिफ़” बहर है, मतलब यह कि जिस बहर के किसी रुक्न में छेड़छाड़ की गई है, इस छेड़छाड़ को “जिहाफ़” कहते हैं और उसके द्वारा बनी बहर को “मुज़ाहिफ़” बहर कहा जाता है। “मुसद्दस” तो आप सब जानते ही हैं कि तीन रुक्नों वाली बहर को “मुसद्दस” कहते हैं। इसमें भी तीन रुक्न हैं तो यह हुई “मुसद्द्स”। यह जो पीछे “महज़ूफ़” की पूँछ लगी है यह क्या है ? असल में यह यही बताने के लिए है कि रुक्न में किस प्रकार की छेड़छाड़ की गई है। किसी भी रुक्न के अंतिम “सबब-ए-ख़फ़ीफ़” को ढिचक्याऊँ करके गोली मार देने को कहा जाता है “हज़फ़” करना। मतलब 1222 रुक्न के अंतिम 2 को हटा दिया गया और रह गया केवल 122, तो जो “जिहाफ़” किया गया उसका नाम था “हज़फ़” तथा उससे जो रुक्न बना उसका नाम है “महज़ूफ़” रुक्न।
“उजाले के” – (12+2+2) 12 उजा (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 ले (सबब-ए-ख़फ़ीफ़), 2 के (सबब-ए-ख़फ़ीफ़)
“दरीचे खुल” – (12+2+2) 12 दरी (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 चे (सबब-ए-ख़फ़ीफ़), 2 खुल (सबब-ए-ख़फ़ीफ़)
“रहे हैं” (12+2) 12रहे (वतद्-ए-मज़मुआ), 2 हैं (सबब-ए-ख़फ़ीफ़) केवल एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है यहाँ
तो इस प्रकार से इस बार के मिसरे की बहर का नामकरण होता है बहरे “हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़” (कहीं कहीं “महज़ूफ उल आख़िर” या “महज़ूफ़ुल आख़िर” या “महज़ुफ़ुलाख़िर” भी कहा जाता है यह बताने के लिए कि जिहाफ़ किस स्थान पर, किस रुक्न में किया गया है, लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं है।)
तो आइये, हमने रेसिपी तो जान ली मिठाई की, अब हम मिठाई भी खाते हैं। आज मिठाई लेकर आ रहे हैं दो हलवाई, हलवाई जो जोड़ी के रूप में भी बहुत मशहूर हैं। नीरज गोस्वामी जी और तिलक राज कपूर जी। और हाँ अभी और भी कुछ शायर आने वाले दिनों में आपको यहाँ पढ़ने को मिलेंगे। एक सुखद सरप्राइज़ यह भी है कि हमें इस ब्लॉग परिवार के किसी सदस्य की अगली पीढ़ी की ग़़जल भी इस बार यहाँ पढ़नी है। और हाँ दौड़ते भागते भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी इस बार गाड़ी पकड़ने के मूड में हैं।
नीरज गोस्वामी जी
सभी दावे दियों के खोखले हैं
अँधेरे जब तलक दिल में बसे हैं
पुकारो तो सही तुम नाम लेकर
तुम्हारे घर के बाहर ही खड़े हैं
अहा ! क़दमों की आहट आ रही है
“उजाले के दरीचे खुल रहे हैं”
है आदत में हमारी झुक के मिलना
तभी तो आपसे हम कुछ बड़े हैं
बड़ा दिलकश है गुलशन ज़िन्दगी का
कहीं काँटे कहीं पर मोगरे हैं
भरोसा कर लिया हम पर जिन्होंने
यक़ीनन लोग वो बेहद भले हैं
ग़मों के बंद कमरे खोलने को
तुम्हारे पास 'नीरज'क़हक़हे हैं
यह तो तय है कि एक रंग अब ग़ज़लों का हो चुका है जिसे रंग-ए-नीरज कहा जाता है। नीरज जी की ग़ज़लों में बहुत ही सीधी-सादी बातें होती हैं, हमारी-आपकी ज़िंदगी से उठाई गई बातें। इसीलिए यह ग़ज़लें हमें अपनी-सी लगती हैं। इस बार तो नीरज जी बासी दीवाली मनाने आ रहे हैं। लेकिन हमारे लिए उनकी आमद ही महत्वपूर्ण है। इस पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आदरणीया भाभीजी शीघ्र पूर्णतः स्वस्थ होकर घर लौटें। आमीन। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी नीरज जी जैसे लोग मुस्कराने की वजह तलाश लेते हैं। ग़ज़ब का मतला है। सच कहा है जब तक अँधेरा हमारे अंदर है तब तक बाहर जलाए जा रहे इन हज़ारों दीपकों का कोई मतलब नहीं। उसके बाद का शेर एकदम रंग-ए-नीरज में आ गया है पुकारो तो सही तुम नाम लेकर, वाह क्या बात है। और उसके बाद गिरह का शेर भी कमाल है, क्या कमाल का जोड़ लगाया है क़दमों से उजालों के बीच। और उसके बाद एक बार फिर रंग-ए-नीरज का कमाल झुक कर मिलना और अपना क़द बढ़ा लेना। भरोसा कर लिया हम पर जिन्होंने में मेरा नाम जोकर याद आती है और वह पंक्ति भी अपने पे हँस कर जग को हँसाया। वाह क्या बात है। और मकते का शेर भी उसी रंग-ए-नीरज में रँगा हुआ है। ग़मों के बंद कमरे खोलने हेतु क़हक़हे लगाने की सलाह नीरज गोस्वामी के अलावा और कौन दूसरा शायर दे सकता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। कठिन समय में लिखी गई सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।
तिलक राज कपूर जी
तरही ग़ज़ल-1
अंधेरे में उजाले जागते हैं
उजाले में अंधेरे सो रहे हैं
तरक्की आप जिसको कह रहे हैं
हक़ीक़त में वो झूठे आंकड़े हैं
मुखौटे हैं, खिलौने फुसफुसे हैं,
ये कैसे दीप हमने चुन लिए हैं
कभी कुछ तो हक़ीक़त में करें भी
बहुत कुछ भाषणों में बोलते हैं
मुवक्किल हम न हाकिम और न मुन्सिफ़
मसाइल क्यूँ हमारे सामने हैं
पलेवा के समय पानी नहीं था
फ़सल पकते ही बादल छा गये हैं
समय पिय से मिलन का हो रहा है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
जैसा कि आपने शीर्षक में देखा होगा कि लिखा है तरही ग़ज़ल 1 तो इसका मतलब यह है कि अभी कुछ और भी ग़ज़लें तिलक जी की आने वाले दिनों में बासी पोस्टों में आएँगी। मतले पर तो जैसे फिदा हो जाने को दिल कर रहा है। उफ़ क्या कमाल की कहन। एक ऐसी बात जिसे आप चाहे जिस विषय से जोड़ दो, दर्शन, सूफ़ी, तंज़, कटाक्ष, मिलन, वस्ल जिस विषय से जोड़ दो यह मतला वैसा ही लगेगा। यह कमाल बहुत दिनों बाद किसी शेर में मिला है। ग़ज़ब। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा जिसमें मिला दो लगे उस जैसा। उस पर जो विरोधाभास का सौंदर्य है वह तो सोने पर सुहागा ही है। ऐसा लग रहा है कि मतले के बाद आगे के शेरों के बारे में कुछ भी न बोलूँ, बोलने के के लिए कुछ बचा ही न हो तो ? बाद के तीनों शेर गहरे और तीखे तंज़ के शेर हैं। वास्तव में वह भी मतले के रूप में ही लिखे गए हैं हुस्न-ए-मतला के रूप में। और मतले से किसी रूप में कमजोर नहीं पड़ रहे हैं। तरक्की और झूठे आँकड़े के प्रतीकों को बहुत खूबसूरती से गूँथा गया है। कभी कुछ तो हक़ीक़त में करें भी में भाषणों का जिक्र खूब हुआ है। बहुत ही सुंदर। पलेवा के समय पानी नहीं होना और फ़सल के पकते ही बादल छाना, उफ़ सारी व्यथा को दो पंक्तियों में व्यक्त कर दिया गया है। ग़ज़ब। और गिरह के शेर का मिसरा क्या खूबसूरत है। अलग तरह की गिरह। वस्ल में भी तो उजाले के दरीचे ही खुलते हैं। वाह वाह वाह कमाल की ग़ज़ल। सुंदर।
तो यह हैं युगल जोड़ी की ग़ज़लें अभी और भी कुछ ग़ज़लें आनी शेष हैं। लेकिन आज का काम तो आपके पास आ गया है कि आपको दोनों ग़ज़लों का आनंद लेना है और उन पर दिल खोलकर दाद देनी है।
बासी दीपावली तो देव प्रबोधिनी एकादशी तक जारी रहती है तो आइए आज देवी नागरानी जी और शिफ़ा कजगाँवी जी की ताज़ा ग़ज़लों के साथ मनाते हैँ बासी दीवाली।
मित्रो इस बार का मुशायरा बहुत आनंद प्रदान कर रहा है। हर बार कुछ नए भावों की ग़ज़लें सुनने को मिल रही हैं। मिसरे को नए नए तरीकों से गिरह में बाँधा जा रहा है। बहुत उम्दा शेर सुनने को मिल रहे हैं। त्योहार का ऐसा माहौल बन गया है कि लगता है जैसे यह चलता रहे बस यूँ ही। और अभी जिस प्रकार ग़ज़लें बची हुईं हैं उससे तो लगता है कि हम इस मुशायरे को देव प्रबोधिनी एकादशी तक तो चला ही पाएँगे।
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
आज की दीपावली हम मनाने जा रहे हैँ दो शायरात की ग़ज़लों के साथ। दोनों ही बहुत समर्थ रचनाकार हैं और इस ब्लॉग परिवार की आधी आबादी की सशक्त प्रतिनिधि हैं। आदरणीया देवी नागरानी जी और शिफ़ा कजगाँवी जी की ग़ज़लों के साथ आइये आज दीपावली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।
देवी नागरानी जी
दिवाली के कई दीपक जले हैं
ग़ज़ल के रंग शब्दों में सजे हैं
सुमन सूरजमुखी कितने खिले हैं
‘उजाले के दरीचे खुल रहे हैं’
सितारे गर्दिशों के आज़माएँ
सितम खारों के लगते फूल से हैं
चले घर से थे जिन राहों पे हम तुम
कई अनजान राहों से मिले हैं
समाये सब्ज़ मौसम आँखों में जो
वही सपनों की राहें तक रहे हैं
शजर कोई न था, साया न ‘देवी’
सफ़र सहरा में करते जा रहे हैं
वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। मतला हमारे इस मुशायरे को मानो परिभाषित कर रहा है, ग़ज़ल के शब्दों के रंग से दीपावली मनाता हुआ सा मतला। और उसके बाद गिरह का शेर हुस्ने मतला भी खूब बना है। सूरजमुखी के फूलों के खिलने से उजाले के दरीचों के खुलने का बहुत ही सुंदर चित्र बनाता हुआ शेर। और उसके बाद जीवन के कठिन समय को समर्पित दो शेर। सचमुच यह बड़ी बात है कि यदि आप अपने जीवन के कठिन समय को याद करेंगे तो वर्तमान समय की परेशानियाँ आपको फूल सी ही लगेंगी। सोच से ही सब कुछ होता है। प्रेम में डूबा शेर जिसमें आँखों में समाए सब्ज़ मौसम सपनों की राह तक रहे हैं खूब है। मकते का शेर भी अच्छा बना है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है क्या बात है वाह वाह वाह।
‘शिफ़ा’ कजगाँवी
धमाके जब से बच्चों ने सुने हैं
कलेजे माँओं के थर्रा रहे हैं
न जाने कितनी गुड़ियाँ फूँक डालीं
न जाने कितने बस्ते जल चुके हैं
लहू से सींचते हैं बाग़ ओ गुलशन
जो दहशत की तिजारत चाहते हैं
ख़मोशी वादियों की कह रही है
कि परवाज़ों के पर टूटे हुए हैं
जिन्होंने अम्न का परचम उठाया
वो ज़ुल्म ओ जौर की ज़द में खड़े हैं
किसी जानिब शफ़क़ फूटी है शायद
"उजाले के दरीचे खुल रहे हैं"
आदरणीया इस्मत दी ने इस ग़ज़ल के साथ एक भावुक पत्र भी लिखा था जिसकी भावना यही थी कि हमारा देश एक बार फिर से उसी प्रकार भाईचारे और सुकून का देश बन जाए। यह आतंक या नफरत सब मिट जाए। पूरा ब्लॉग परिवार आमीन के स्वर में उस दुआ के स्वर में स्वर मिलाता है। पूरी ग़ज़ल लगभग मुसलसल ग़ज़ल है लेकिन जैसा कि साहित्य का स्वभाव होता है वह अंत में आशा के साथ समाप्त होता है वही यहाँ भी हो रहा है। मतला बहुत ही प्रभावी है बच्चे धमाके सुन रहे हैं और माँओं के कलेजे थर्रा रहे हैं,सच में यही तो होता है, दुनिया की हर बारूद केवल माँ के कलेजे को ही फूँकती है। और उसके बाद आतंकवाद का एक और घिनोना चेहरा दूसरे शेर में उभर कर सामने आया है। जिसे अगले शेर में भी मुसलसल कायम रखा गया है। बहुत ही साहसिक और पैने शेर हैं ये दोनों। अगले शेर में वादियों की ख़मोशी और परवाजों के टूटे पर जैसे एक पूरा कैनवस है जिस पर दर्द के रंगों से चित्रकारी की गई है। बहुत ही सुंदर। और अगला शेर एक बार फिर उन सब अच्छे लोगों की पीड़ा को बयाँ करता है जो अमपसंद हैं लेकिन हर बार उन्हीं पर बिजलियाँ टूटती हैं। यह चारों शेर मिलकर मानों पूरी कहानी कह रहे हैं, दर्द कर कहानी। लेकिन अंत का गिरह का शेर आशा की किरण को लेकर आता है ग़ज़ब की सकारात्मक गिरह बाँध कर शेर बनाया है। पूरी ग़ज़ल जिस सन्नाटे में छोड़ती है उससे यह शेर आशा की राहत देकर निकालता है। बहुत ही प्रभावशाली और सामयिक ग़ज़ल कही है क्या बात है वाह वाह वाह।
तो यह हैं आज की दोनों ग़ज़लें, बहुत ही सुंदर और प्रभावी ग़ज़लें। आपके पास अब काम है कि इन सुंदर ग़ज़लों को उतनी ही सुंदर दाद देकर सराहें। और हम अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ मिलते हैं। भभ्भड़ कवि भी जुरासिक पार्क के युग से लौटने की तैयारी कर रहे हैं।
आइये नई पीढ़ी के साथ मनाते हैं बासी दीपावली आज युवा शायर नकुल गौतम, अंशुल तिवारी और गुरप्रीत सिंह लेकर आ रहे हैं अपनी ग़ज़लें।
मित्रों दीपावली के बाद का उल्लास बना हुआ है और हम लगातार बाद के आयोजनों में वयस्त हैं। मज़े की बात यह है कि लोग भाग-भाग कर ट्रेन पकड़ रहे हैं। आप तो जानते ही हैं कि हमारा यह तरही मुशायरा उस शिमला की खिलौना ट्रेन की तरह होता है जिसे कोई भी कभी भी भाग कर पकड़ सकता है। सबका स्वागत है। लेखन समयबद्ध नहीं किया जा सकता। विचार जब हलचल मचाएँगे तभी तो लेखन होगा। इसलिए अपना तो एक ही नियम है कि कोई नियम नहीं है।
उजाले के दरचे खुल रहे हैं
मित्रों आज तीन एकदम युवा शायर अपनी ग़ज़लें लेकर आ रहे हैं। नकुल गौतम को आप सब जानते हैं। अंशुल तिवारी हमारे ब्लॉग के पुराने सदस्य श्री मुकेश तिवारी के सुपुत्र हैं दूसरी पीढ़ी के रूप में वे इस मुशायरे में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। और गुरप्रीत दूसरी बार मुशायरे में आ रहे हैं। पहली बार उनका फोटो नहीं लग पाया था इसलिए दूसरी इण्ट्री फोटो के साथ। याद आता है फिल्म कभी-कभी का गीत –कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले।
नकुल गौतम
लुटेरे मॉल सज-धज कर खड़े हैं
सनम दीपावली के दिन चले हैं
लगी दीपावली की सेल जब से
मेरी बेग़म के अच्छे दिन हुए हैं
मेरे बटुए का बी.पी. बढ़ रहा है
मेरे बच्चे खिलौने चुन रहे हैं
सफाई में लगी हैं जब से बेग़म
सभी फनकार तरही में लगे हैं
तरन्नुम में सुना दी सब ने गज़लें,
मगर हम क्या करें जो बेसुरे हैं
कहाँ थूकें भला अब पान खा कर
सभी फुटपाथ फूलों से सजे हैं
यक़ीनन आज फिर होगी धुलाई
गटर में आज फिर पी कर गिरे हैं
नहीं दफ़्तर में रुकता देर तक अब
मेरे बेगम ने जब से नट कसे हैं
इन्हें खोजेंगे कमरे में नवासे
छिपा कर आम नानी ने रखे हैं
चलो छोड़ो जवानी के ये किस्से
'नकुल'अब हम भी बूढ़े हो चले हैं
हज़ल के रूप में लिखी गई सुंदर ग़ज़ल। मतले में तीखा कटाक्ष बाज़ारवाद पर किया गया है। उसके बाद एक बार फिर से बाज़ारवाद पर कटाक्ष करता हुआ शेर है जिसमें बच्चों के खिलौने चुनने पर पिता के बटुए का बीपी बढ़ने के बात कही गई है। बहुत ही अच्छा शेर। पिता की पीड़ा पिता हुए बिना नहीं जानी जा सकती। कहाँ थूकें भला अब पान खाकर में हमारी मनोवृत्ति पर अच्छा व्यंगय कसा गया है। ज्यादा सज धज हमें परेशान कर देती है कि अब हम कचरा कहाँ फेंकेंगे। बाद के दो शेर विशुद्ध हास्य के शेर हैं। बहुत अच्छे। कमरे में नवासों द्वारा आमों को खोजा जाना मुझे बहुत कुछ याद दिला गया। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।
अंशुल तिवारी
अंधेरे रोशनी में घुल रहे हैं,
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं।
ख़ुशी बिखरी है चारों ओर देखो,
दर-ओ-दीवार में गुल खिल रहे हैं।
दीवाली साथ में ले आई सबको,
पुराने यार फिर से मिल रहे हैं।
मोहल्ले में मिठाई बँट रही है,
गली में भी पटाखे चल रहे हैं।
सभी आँखों में रौनक़ छा रही है,
सुहाने ख़्वाब जैसे पल रहे हैं।
भुलाए ज़ात, मज़हब, नफ़रतों को,
मिलाए हाथ इंसाँ चल रहे हैं।
ये मंज़र देख, दिल को है तसल्ली,
हरेक आँगन में दीपक जल रहे हैं।
अंशुल के रूप में हमारे यहाँ अगली पीढ़ी ने दस्तक दी है अंशुल ने भी उसी तरह ग़़जल कही है जिस प्रकार नुसरत दी ने कही थी मतलब क़ाफ़िये को ज़रा पीछे खिसका कर। मतला ही बहुत सुंदर बना है। यह पूरी ग़ज़ल सकारात्मक ग़ज़ल है। असल में इस समय जितनी नकारात्मकता हमारे समय में घुली हुई है उसमें हमें इसी प्रकार के सकारात्मक साहित्य की आवश्यकता है। दीवाली साथ में ले आई सबको पुराने यारों का फिर से मिलना यही तो दीवाली का मूल स्वर है। भुलाए ज़ात मज़हब नफ़रतों को मिलाए हाथ इन्साँ चल रहे हैं, यह शेर नहीं है बल्कि एक दुआ है, हम सबको एक स्वप्न है जो शायद कभी पूरा हो आमीन। और अंत का शेर शायर के साथ हम सबको भी तसल्ली देता है कि हरेक आँगन में दीपक जल रहे हैं अभी समय बहुत खराब नहीं हुआ। सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
गुरप्रीत सिंह
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
अंधेरे दुम दबा के भाग उठे हैं
हुई सीने पे बारिश आँसुओं की
तो शिकवे दिल के सारे धुल गए हैं
उजाले में जिसे खोया था हमने
अंधेरे में अब उसको ढूंढते हैं
चलो करते हैं दिल की बात दिल से
चलो चुप चाप कुछ पल बैठते हैं
ये माना ज़िंदगी इक गीत है तो
ये मानो लोग कितने बेसुरे हैं
गुरप्रीत का यह दूसरा प्रयास है। गुरप्रीत ने इस ब्लॉग की पुरानी पोस्टों से ग़ज़ल कहना सीखा है। हुई सीने पे बारिश आँसुओं की तो शिकवे दिल के सारे धुल गए हैं में प्रेम का बहुत जाना हुआ और भीगा हुआ रूप सामने आ रहा है। उसके बाद का शेर एकदम चौंका देता है उजाले में जिसे खोया था हमने, अँधेरे में अब उसको ढूँढ़ते हैं में एकदम से बड़ी बात कह डाली है। तसल्ली होती है कि ग़ज़ल की अगली पीढ़ी कहने में ठीक हस्तक्षेप कर रही है। अगले शेर में दिल की बात दिल से करने के लिए चुपचाप बैठने की बात भी बहुत सुंदर कहन के साथ सामने आई है। और अंत का शेर भी बहुत खूब बन पड़ा है। जिंदगी का गीत होना और लोगों का बेसुरा होना। बहुत अच्छी बात कही गई है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
तो मित्रों ये हैं आज की तीनों ग़ज़लें, तीन युवाओं का प्रभावी हस्तक्षेप। इसके बाद एक और पोस्ट आएगी जिसमें दो बुज़ुर्ग शायर अपनी ग़ज़लें ला रहे हैं और उसके बाद चिर युवा कवि भभ्भड़ कवि भौंचक्के यदि मेरे करण अर्जुन आएँगे की तर्ज पर आ पाए तो आकर समापन करेंगे। लेकिन आज तो आपको इन युवाओं को जी भर कर दाद देना है कि ये हमारे ध्वज वाहक हैं आगे के सफ़र में।
सभी को देव प्रबोधिनी एकादशी की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। आइए बोर-भाजी-आँवला, उठो देव साँवला के सुर में सुर उचारते हैं मन्सूर अली हाशमी जी और तिलकराज कपूर जी की द्वितीय ग़ज़लों के साथ।
मित्रों कहा जाता है कि हर त्योहार हमें कुछ समय तक उत्साह और उल्लास से जीने की अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है। यह ऊर्जा हम सबके लिए बहुत आवश्यक होती है। हमें समझना चाहिए कि यह ऊर्जा ही हमारा वास्तविक जीवन है बाकी सब तो एक फिज़ूल की कवायद भर है। एक दौड़ है जिसमें हम दौड़े जा रहे हैं बस। किसी को रोक के पूछो कि भई क्यों दौड़ रहे हो तो उसके पास कोई उत्तर नहीं होता है। बस दौड़ना है सो दौड़ रहे हैं। हम सब एक ठिठके हुए समय में जी रहे हैं जिसमें हम बाहर से जितनी तेज़ी के साथ दौड़ रहे हैं, अंदर उतने ही ठहरे हुए हैं। स्थिर हैं। अरूज़ की भाषा में कहें तो हम बाहर से भले ही मुतहर्रिक दिख रहे हैं लेकिन अंदर से हम सब साकिन होते जा रहे हैं। स्थिर होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन जड़ होना तो बुरी बात है ही। आइए अपने अंदर की जड़ता को आज तोड़ते हैं।
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
मित्रों आज गोलमाल रिटर्न्स या धूम 2 की ही तरह हाशमी रिटर्न्स और तिलक 2 का दिन है। आज मन्सूर अली हाशमी जी और तिलक राज कपूर अपनी अपनी दूसरी ग़ज़लों के साथ अवतरित हो रहे हैं।
मन्सूर अली हाश्मी जी
नये हैं जी, अजी बिल्कुल नये हैं
रदीफों, काफियों में फिट करे हैं।
मिरे अशआर में ढूँढो न माअनी
जुनूँ हद से बढ़ा तो ये हुए हैं।
हुआ है क़त्ल कोई मेरे अन्दर
ग़ज़ल के लफ़्ज़ भी ख़ूँ से सने हैं।
अब उनसे बे वफाई का गिला क्या?
दग़ा हम भी तो ख़ुद से ही किये हैं।
अंधेरों अब समेटो अपनी चादर
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं।
कलामे 'हाश्मी' है बस तमाशा !
ये बाताँ आप कैसी कर रिये हैं ?
बहुत ही सुंदर द्वितीय ग़ज़ल कही है हाशमी जी ने। एक मज़ाहिया अंडर टोन हाशमी जी की सभी ग़ज़लों में मिलता है और उसका होना उनकी ग़ज़लों को एक अलग प्रकार का सौंदर्य प्रदान करता है। यह पूरी गज़ल मानों अपने ही ऊपर हँसने के लिए लिखी गई है। मतला हास्य के साथ गहरा तंज़ कसता है उन पर जो मात्र तुक मिलाने और क़ाफ़िया मिलाने को ही कविता या ग़ज़ल कहना मान कर चलते हैं। उसके बाद का शेर बहुत खूब बना है एक प्रबल विरोधाभास का शेर । उसके बाद का शेर जिसमें अंदर क़त्ल होना और शेरों का खून से सन जाना प्रतीक बन कर खूबसूरती से सामने आया है। बेवफाई का शेर और गिरह का शेर भी अच्छा बना है । और मतले का शेर तो कहन के अंदाज़ में बहुत ही सुंदर है बहुत ही अच्छे से बातचीत के अंदाज़ में शेर कह दिया गया है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
तिलक राज कपूर
ग़ज़ल हमारे सीमा-प्रहरियों के लिये
लकीरों में लिखाये रतजगे हैं
हमारे, सरहदों पर घर बसे हैं।
नहीं दिखता है अंतर देह में पर
अलग जज़्बा हम इसमें पालते हैं।
धुआँ, बारूद, दनदन गोलियों की
हमें तोहफे ये उत्सव पर मिले हैं।
जहाँ मुमकिन नहीं इन्साँ का बचना
वहीँ दिन-रात रहते बाँकुरे हैं।
जहाँ इक ज़िद लिये फौजी खड़ा हो
कठिन हालात्, मौसम हारते हैं।
सुकूँ से आप सोयें देश वालों
अभी सीमा पे प्रहरी जागते हैं।
यकीं हम प्रहरियों को है वतन में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि कुछ कहा न जाए कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाए, बस निःशब्द होकर सुना जाए। तिलक जी ने हमारे सेना के जवानों के लिए जो ग़ज़ल कही है वह ऐसी ही है। इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की जाए। मतला ही इतनी खूबसूरती के साथ कहा गया है कि वहीं पर निःशब्द हो जाने की जी करता है। और उसके बाद अलग जज़बा समान देह में वालने का शेर भी बाकमाल तरीके से कहा गया है। उत्सव के तोहफे भी बहुत खूबसूरती के साथ चुने हैं शायर ने, जो एक सैनिक की पूरी पीड़ा को स्वर प्रदान कर रहे हैं। और फौजी की ज़िद के आगे कठिन हालात और मौसमों का हारना कितना बड़ा सच है यह हमारे समय का। और उसके ठीक बाद का शेर एक आश्वस्ति है देशवासियों को सेना की ओर से कि अभी हम हैं चिंता मत करिए। और अंत के शेर में बहुत ही खूबसूरत तरीके से गिरह लगाई गई है। बहुत ही सुंदर। यह निश्चित ही एक अलग प्रकार की और बेहद सुंदर ग़ज़ल है। वाह वाह वाह।
तो यह हैं आज के दोनों शायर अपनी-अपनी ग़ज़लों के साथ। बहुत ही सुंदर ग़जलें कही हैं दोनों ने। आपका दाद देने का काम बढ़ा दिया है। अभी शायद एकाध पोस्ट और आनी है उसके बाद यदि सब कुछ ठीक रहा तो भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल के साथ आ सकते हैं।
धीरे-धीरे हम तरही के समापन पर आ गए हैं, आज नवीन चतुर्वेदी जी और तिलक राज कपूर जी की ग़ज़लों के साथ मनाते हैं बासी दीपावली।
मित्रों हर शुरुआत का एक समापन भी पूर्व निर्धारित होता है। जो शुरू होता है उसे अंत तक भी आना होता है। समयावधि कम ज्यादा हो सकती है। दीपावली की यह तरही भी लगभग अपने अंत तक आ चुकी है। जैसा मैंने पहली पोस्ट में कहा था कि दीपावली कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाला त्योहार है तो आज की यह पोस्ट और यदि रविवार तक भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल आ गई तो हम उनके साथ कार्तिक पूर्णिमा को तरही का समापन कर लेंगे। और उसके बाद देखते हैं फिर नए साल की ओर कि नए साल का स्वागत किस प्रकार करना है।
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
आइए आज हम दो और ग़ज़लों के साथ मनाते हैं बासी दीपावली। आज तिलकराज कपूर जी की तृतीय ग़ज़ल और नवीन चतुर्वेदी जी की ब्रज भाखा में लिखी गई ग़ज़ल के साथ हम बासी दीपावली मना रहे हैं।
नवीन सी चतुर्वेदी
नयन क्यों आप के तर है रहे हैं।
ये अँसुआ तौ हमारे भाग के हैं॥
बने हौ आप जब-जब भोर के पल।
हम'उ तब-तब सुमन जैसें झरे हैं॥
तनिक देखौ तौ अपनी देहरी कों।
जहाँ हम आज हू बिखरे परे हैं॥
हृदय-सरवर मधुर क्यों कर न होवै।
किनारे आप के रस में पगे हैं॥
उलझ कें आप सों नयना हमारे।
सियाने सों दिवाने है गये हैं॥
हृदय-प्रासाद में आए हौ जब सों।
"उजाले'न के झरोखा खुल रहे हैं"॥
अरे ऊधौ हमें उपदेश दै मत।
हमारे भाग में दुखड़ा लिखे हैं॥
निश्चित रूप से स्थानीय बोलियों तथा भाषाओं का अपना सौंदर्य होता है, जब वे साहित्य की मुख्य धारा में आती हैं तो वे भाषा को सजाने का काम करती हैं। नवीन जी ने ब्रज की भाषा में ग़ज़ल कही है, यह भी एक सुंदर प्रयोग है। मतले में ही बहुत सुंदर तरीके से प्रेम के समर्पण की भावना को व्यक्त किया गया है। और उसके बाद का शेर भी बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है किसीकी भोर होना और किसीका सुमन जैसे झर जाना। उलझ कें आप सों नयना हमारे में बहुत ही सुंदर तरीके और भाव के साथ प्रेम की बात कह दी गई है जो आनंद उत्पन्न कर रही है। और उसके बाद गिरह का शेर भी बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है तरही मिसरे को ब्रज में देख कर बस आनंद ही आ गया। ग़ज़ब। ब्रज की बात चले और ऊधो नहीं आएँ, गोपियाँ नहीं आएँ ऐसा कभी हो सकता है, अंतिम शेर उसी भाव से भरा हुआ है, बहुत ही खूबसूरत तरीके से गोपियों की मन की व्यथा को व्यक्त करता हुआ शेर । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तिलक राज कपूर
अगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं
मगर सोचें किधर हम जा रहे हैं।
सवालों से भरी इन बस्तियों में
चलो हम कुछ के उत्तर खोजते हैं।
उधर सुरसा किसी की चाहतों की
ज़रूरत पर इधर ताले लगे हैं।
हमें भी इन पुलों से है गुजरना
दरारें नींव में क्यूँ डालते हैं।
लगाऊँ किस तरह सीने से उनको
जो खंजर पीठ पीछे मारते हैं।
समन्दर में लगाते हैं जो डुबकी
वही गहराई इसकी जानते हैं।
दुपहरी कट गयी अंधियार में, अब
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं।
मतले के साथ ही तीसरी ग़ज़ल को बहुत ऊँचाइयों के साथ उठाया है, आज के समय पर गहरा कटाक्ष करता हुआ मतला, अगर है दौड़ना तो दौड़ते हैं, मगर सोचें किधर हम जा रहे हैं, वाह क्या बात है, दिशाहीनता को लेकर इससे बेहतर और क्या कहा जा सकता है। एक दिशाहीन समय पर खूब तंज़। सवलों से भरी बस्तियों में उत्तर तलाशने का साहस और अनुरोध केवल कवि ही कर सकता है, क्योंकि कवि हमारे समय का स्थाई प्रतिपक्ष होता है। उधर सुरसा किसीकी चाहतों की में दूसरी तरफ ज़रूरतों पर लगे हुए ताले खूब प्रयोग है। सच यही तो है हमारा आज का समय। पुलों वाला शेर भी उसी तंज़ से भरा हुआ है जिसको इस पूरी ग़ज़ल में देखा जा सकता है। लगाऊँ किस तरह सीने से उनको में पीठ पीछे खंजर मारने की बात ही अलग है। यह शेर दूर तक जाने वाला शेर है। अंतिम शेर गहरे विरोधी स्वर लिए हुए है, दुपहरी का अँधेरे में कटना और रात को उजाले के दरीचे खुलना, वाह क्या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तो यह है अंत से पहले की प्रस्तुति। यदि भभ्भड़ कवि का पदार्पण होता है तो हम कार्तिक पूर्णिमा, गुरुनानक जयंती आदि आदि त्योहार उनके साथ मनाएँगे। देखें क्या होता है।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के आज दीपावली के तरही मुशायरे का विधिवत् रूप से समापन करने जा रहे हैं। उनका वादा था कि वे आएँगे, तो वे आ चुके हैं।
मित्रों हर बार यह तरही मुशायरा उत्साह से भर देता है। ऐसा लगता है कि परिवार का गेट टु गेदर हो गया है। एक दूसरे से मिलना-मिलाना, स्नेह, प्रेम, आशिर्वाद। दीपावली का मतलब यही तो होता है। सबसे अच्छी बात यह होती है कि तरही में लोग उत्साह के साथ आते हैं। लम्बे-लम्बे कमेंट्स द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। यही अपनापन तो इस ब्लॉग की पहचान है।
इस बार जो मिसरा दिया गया था उसमें छोटी ईता का दोष बनने की संभावना थी। जब भी हम मात्रा को क़ाफिया की ध्वनि बनाते हैं तो यह होने की संभावना बढ़ जाती है। हालाँकि छोटी ईता के दोष को अब उतना नहीं देखा जाता, किन्तु दोष तो दोष होता है। जैसे इस बार के मिसरे में “ए” की मात्रा क़ाफ़िये की ध्वनि थी। अब यदि आपने “दिखे” और “सुने” को मतले में क़ाफ़िया बनाया, तो यदि “दिखे” में से “ए” की मात्रा हटाई जाए तो शब्द बचता है “दिख” जो कि एक अर्थवान शब्द है, उसी प्रकार यदि “सुने” में से “ए” की मात्रा हटाई जाए तो शब्द बचता है “सुन” जो कि पुनः एक अर्थवान शब्द है। और ईता के दोष के बारे में हम जानते हैं कि उसमें यह नियम है कि मतले के दोनों मिसरों में क़ाफ़िया के शब्दों में से क़ाफ़िया की ध्वनि हटाने पर किसी एक मिसरे के शब्द (ध्यान दें कि किसी एक मिसरे में, दोनों में होना आवश्यक नहीं है, हो जाए तो भी ठीक) को अर्थहीन हो जाना चाहिए। जैसे “फ़ासले” में से “ए” की मात्रा हटा देने पर “फ़ासल” शब्द बचेगा जो अर्थहीन शब्द है। इसका मतलब यह कि हमें मतले में किसी एक मिसरे में फ़ासले, सिलसिले, फ़ायदे, पूछते जैसे शब्द का क़ाफ़िया बनाना होगा। मैं एक बार फिर से कह रहा हूँ कि छोटी ईता को आजकल इग्नोर किया जाता है, किन्तु यदि हम बच कर चल सकें तो उसमें बुरा ही क्या है ?
तो मित्रों हम आज दीपावली के तरही मुशायरे का विधिवत् समापन करने जा रहे हैं। जैसा कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के ने वादा किया था कि वे आएँगे तो वे आ चुक हैं। लम्बी ग़़ज़ल झिलाना उनकी आदत है सो ज़ाहिर सी बात है वे लम्म्म्म्बी ग़ज़ल ही लेकर आए हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता है। मतले का शेर, गिरह का शेर और मकते का शेर हटा कर कुल पच्चीस शेर भभ्भड़ कवि भौंचक्के ने कहे हैं। झेलना आपकी मजबूरी है सो झेलिए…….
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
सभी को दीपावली की राम-राम भभ्भड़ की ओर से पहुँचे। इस बार जो ग़ज़ल कही है वह पूरी प्रेम पर है। क्योंकि इस समय पूरी दुनिया को प्रेम की बहुत ज़रूरत है। हाँ बस गिरह को कुछ अलग तरीके से लगाने की कोशिश की है। पूरी ग़ज़ल को कुछ पारंपरिक तरीके से कहने की कोशिश की है। बातचीत के अंदाज़ में। आशा है आपको पसंद आएगी। सूचना समाप्त हुई।
पहाड़ों के मुसलसल रतजगे हैं
न जाने प्रेम में किसके पड़े हैं
ज़रा तो रात भी है ये अँधेरी
और उस पे वो भी थोड़ा साँवले हैं
जहाँ बोए थे तुमने लम्स अपने
वहाँ अब भी महकते मोगरे हैं
हमारे ज़िक्र पर उनका ये कहना
"हाँ शायद इनको हम पहचानते हैं"
फ़साना आशिक़ी का है यही बस
अधूरे ख़्वाब, टूटे सिलसिले हैं
हुआ है इश्क़ बरख़ुरदार तुमको
तभी ये आँख में डोरे पड़े हैं
है मुश्किल तो अगर दिल टूट जाए
मगर फिर फ़ायदे ही फ़ायदे हैं
कोई पागल भला होता है यूँ ही
तुम्हारे नैन ही जादू भरे हैं
कहा बच्चों से हँस कर चाँदनी ने
“तुम्हारे चाँद मामा बावरे हैं”
है अंजामे-मुहब्बत ये दोराहा
यहाँ से अपने-अपने रास्ते हैं
तेरी आँखों ने, ज़ुल्फ़ों ने, हया ने
ग़ज़ल के शेर हमने कब कहे हैं
"उजाले के दरीचे खुल रहे हैं"
नहीं है दिल लगा जिनका अभी तक
भला वो रात कैसे काटते हैं
बजी है बाँसुरी पतझड़ की फिर से
हज़ारों दर्द सोते से जगे हैं
फ़क़त हम ही नहीं गिनते सितारे
सुना है वो भी शब भर जागते हैं
ज़रा कुछ बच-बचा के चलिए साहब
हमारे हज़रते-दिल सिरफिरे हैं
रहे पल भर अकेला कोई कैसे
तुम्हारे घर में कितने आईने हैं
कहानी मुख़्तसर है रात भर की
कई मौसम मगर आए-गए हैं
मुकम्मल जो हुआ, वो मर गया फिर
अधूरे प्रेम सदियों से हरे हैं
दवा इतनी है मर्ज़े-इश्क़ की बस
है क़ाबू में, वो जब तक सामने हैं
नहीं कुछ लोग मरते दम तलक भी
मुहब्बत का मोहल्ला छोड़ते हैं
इन्हें सिखलाओ कोई इश्क़ करना
ये बच्चे तो बहुत सच बोलते हैं
हवा है, फिर हवा है, फिर हवा है
हमारे बीच कितने फ़ासले हैं
था दावा तो भुला देने का लेकिन
हमारा हाल सबसे पूछते हैं
इलाही ! और साँसें बस ज़रा-सी
ख़बर है घर से वो चल तो दिए हैं
दिया जाए जवाब इसका भला क्या
"हो किसके प्रेम में ?" वो पूछते हैं
है शहरे-इश्क़ से रिश्ता पुराना
यहाँ सब लोग हमको जानते हैं
“सुबीर” उस टोनही लड़की से बचना
नयन उसके निशाना ढूँढ़ते हैं
मित्रों यदि ठीक-ठाक लगे ग़ज़ल तो दाद-वाद दे दीजिएगा, वरना कोई ज़रूरी नहीं है। यह आज समापन है दीपावली के तरही मुशायरे का, अब हम इंशा अल्लाह मिलेंगे नए साल के तरही मुशायरे में। तब तक जय राम जी की।
"अकाल में उत्सव"की आकाशवाणी के इन्द्रप्रस्थ चैनल से प्रकाशित समीक्षा। समीक्षक हैं सुप्रस्द्धि कहानीकार, समीक्षक तथा आलोचक डॉ. प्रज्ञा।
शिवना साहित्यिकी का जनवरी-मार्च 2017 अंक
मित्रों, संरक्षक तथा सलाहकार संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर तथा सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का जनवरी-मार्च 2017 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है। इस अंक में शामिल है :- आवरण चित्र पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi, आवरण कविता / लालित्य ललित Lalitya Lalit संपादकीय शहरयार Shaharyar व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar संस्मरण नासिरा शर्मा Nasera Sharma (सौजन्य गीताश्री Geeta Shree) कविताएँ, कुछ कविताएँ सरहद पार से.. ज़ेबा अल्वी । कहानी दिलों की एक आवाज़ ऊपर उठती हुई ... मुकेश वर्मा Mukesh Verma आलोचना राकेश बिहारी Ravi Buleyकी कहानी पर । फिल्म समीक्षा के बहाने, दंगल, वीरेन्द्र जैन Virendra Jain पुस्तक-आलोचना, सत्कथा कही नहीं जाती, क्यों?, संतोष चौबे Santosh Choubey डायरी, धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं, नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy पेपर से पर्दे तक..., कृष्णकांत पंड्या Krishna Kant Pandya यात्रा-वृत्तांत, अंडमान निकोबार द्वीप, संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastava, समीक्षा, महेश दर्पण Mahesh Darpan / डेक पर अँधेरा / हीरालाल नागर Hiralal Nagar , सरिता शर्मा / पृथ्वी को हमने जड़ें दीं / नीलोत्पल Neelotpal Ujjain , जया जादवानी Jaya Jadwani / नक़्क़ाशीदार केबिनेट/ सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , हृदेश सिंह/ वाबस्ता / पवन कुमार Pawan Kumar Ias , महत्त्वपूर्ण पुस्तकें, तीन विधाएँ, तीन लेखक, तीन पुस्तकें / लता सुरगाथा- यतीन्द्र मिश्र Yatindra Mishra , हाशिये का राग- सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth , चांद डिनर पर बैठा है- स्वप्निल तिवारी Swapnil Tiwari पड़ताल- शिवना पुस्तक विमोचन समारोह Partap Sehgalप्रेम जनमेजयSushil SiddharthPragya RohiniJyoti JainSuryakant NagarNirmla KapilaNeeraj GoswamyParul SinghSudha Om Dhingra , तरही मुशायरा Nusrat MehdiNeeraj GoswamyTilak Raj KapoorIsmat Zaidi ShifaSaurabh Pandeyगिरीश पंकज kumar Prjapati धर्मेन्द्र कुमार सिंहDigamber Naswa naveen chaturvedi Devi NangraniSanjay DaniAshwini RameshPooja Bhatia sandhya rathore prasad dinesh kumar anshul tiwari नकुल गौतमPankaj Subeer डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswamiआपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
ऑन लाइन पढ़ें
http://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-january-march-2017
https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_january_march
होली के तरही मुशायरे के बारे में आपका क्या विचार है ? हो जाए ?
मित्रों यह सच है कि हम सबकी व्यस्तताएँ इन दिनों बढ़ी हुई हैं लेकिन इन व्यस्तताओं के बीच ही हमें अपने लिए, अपने शौक़ के लिए समय तो निकालना ही होगा। जीवन की तो अपनी गति होती है और वह उसी गति से चलता रहेगा। उस गति के बीच-बीच से हमें अपने लिए समय के टुकड़े चुराने होंगे। पहले हम साल भर में चार या पाँच मुशायरे करते थे फिर धीरे-धीरे कम होते हुए यह हुआ कि साल भर में एक ही हो पा रहा था। अब चूँकि आपने देखा होगा कि शिवना साहित्यिकी में हमारा यह मुशायरा जस का तस प्रकाशित हो रहा है और शिवना साहित्यिकी त्रैमासिक पत्रिका है तो अब हमें साल भर में कम से कम चार मुशायरे तो करने ही होंगे। चलिए इसी बहाने से निरंतरता बनी रहेगी। चूँकि प्रकाशन का मामला है तो यह भी हो जाएगा कि इस बहाने आप सबकी ग़ज़लें ऑन द रिकार्ड भी आती जाएँगी।
होली को लेकर हमने पूर्व में कई आनंद उत्सवों का आयोजन किया है। इस ब्लॉग के होली के मुशायरे आभासी दुनिया का एक बहुत ही लोकप्रिय आयोजन हुआ करते हैं। होली के मुशायरे में ग़ज़लों से ज़्यादा आनंद कमेंट्स में आता रहा है। कई- कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि सौ से भी ज़्यादा रोचक और दिलचस्प कमेंट्स आए। होली का त्यौहार होता ही ऐसा है, आनंद से भरा हुआ, ख़ुशियों से छलकता हुआ। एक ऐसा त्यौहार जो बहुत ख़र्च नहीं करवाता, बस अंदर से प्रसन्न हो लीजिए तो होली हो जाती है। इस ब्लॉग के होली आयोजनों की कई ग़ज़लें सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं होली पर। नीरज जी की एक ग़ज़ल तो पिछली दो होलियों से धूम मचा रही है सोशल मीडिया पर। कई समाचार पत्रों ने अपने होली अंकों में इस ब्लॉग की ग़ज़लों को जस का तस प्रकाशित किया है। हमारी सफलता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।
होली के मुशायरे को लेकर इस बार दो-तीन दिन से मिसरे को लेकर मशक़्क़त चल रही थी। असल में कोई ऐसा मिसरा देने की इच्छा थी जिस पर होली के साथ-साथ प्रेम भी हो। हास्य या व्यंग्य लिखना थोड़ा मुश्किल होता है ऐसे में यदि कोई होली पर सीधी-सादी प्रेम की ग़ज़ल भी कहना चाहे तो उसे भी परेशानी नहीं आए। बहुत सोचने के बाद लगा कि सुरीली बहर को लिया जाए। सुरीली बहर की बात चली तो याद आ गई मुतदारिक बहर। सोचा क्यों न मुतदारिक मुसमन सालिम पर ही इस बार होली का मुशायरा आयोजित किया जाए। हमने पहले इस पर दीपावली को मुशायरा आयोजित किया था। 2122-2122-2122-2122 फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन। होली तो वैसे भी गीत-संगीत का उत्सव है तो ऐसे में सुरीली और गाई जाने वाली बहर का अलग आनंद आएगा। तो इस बार हम इसी बहर पर मुशायरा आयोजित करते हैं। मिसरा यह रहा
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इसमें “के” में जो “ए” की मात्रा है वह हमारे क़ाफ़िये की ध्वनि होगी और “रंग में” रदीफ़ होगा। मतलब कि नए, हरे, साँवले, के, जैसे क़ाफ़ियों का उपयोग किया जा सकता है। नए रंग में, हरे रंग में, साँवले रंग में, मद भरे रंग में जैसे टुकड़े जोड़े जा सकते हैं।
जैसा कि पूर्व में सूचित किया कि यह मुशायरा जस का तस शिवना सहित्यिकी के अप्रैल अंक में प्रकाशित किया जाएगा तो अपनी ग़ज़लों के साथ अपने फोटो भी भेजिए। साथ ही अपना डाक का पता भी भेजिए ताकि आपको पत्रिका भेजी जा सके। समय कम है इसलिए आज से ही कार्य प्रारंभ कीजिए। जो आप लिखना चाहें यदि होली के अवसर पर हास्य व्यंगय का तड़का लगाना चाहें तो आपका स्वागत है। क़ाफ़िया और रदीफ़ का कॉम्बिनेशन कुछ कठिन है इसलिए सोच-समझ कर क़ाफ़ियों का चयन कीजिएगा। तो उठाइए क़लम और शुरू कीजिए कार्य, होली में अब बहुत कम दिन बचे हैं। मेरे बहुत अच्छे मित्र तथा बहुत अच्छे गीतकार डॉ. विष्णु सक्सेना का इसी बहर पर लिखा हुआ यह गीत सुनिये। गीत बहुत लोकप्रिय हुआ और इसे एक फ़िल्म में भी उपयोग किया गया है। सुनिए डॉ. विष्णु सक्सेना के मधुर स्वर में, धुन को गुनगुनाइए और धुन पर ग़ज़ल कहिए यदि मुश्किल हो तो
आइये आज से प्रारंभ करते हैं होली 2017 का धमाका। शुरुआत करते हैं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर केवल महिलाओं की ग़ज़लों के ही साथ नुसरत मेहदी जी और रजनी नैयर मल्होत्रा जी के साथ।
मित्रो हमारा सफ़र अब दस साल पूरा करने जा रहा है। पता ही नहीं चला कि कब हम सबको साथ-साथ चलते हुए पूरे दस साल बीत भी गए। वर्ष 2007 में इस ब्लॉग की शुरुआत हुई थी। धीरे-धीरे आप सब मिलते गए और यह परिवार बड़ा होता गया।खैर दसवीं सालगिरह का जश्न तो हम आने वाले समय में जब तारीख के हिसाब से इस ब्लॉग के दस साल पूरे होंगे मनाएँगे ही अभी तो हम होली आरंभ करते हैं।
होली की शुरुआत के लिए ब्लॉग परिवार की महिला सदस्यों से अच्छा कोई नहीं हो सकता। आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी है और दूसरा यह भी कि होली के हुड़दंग से पूर्व ही हम इनकी ग़ज़लें सुन लें क्योंकि आपको तो पता है कि जब इस ब्लॉग पर होली का रंग चढ़ता है तो फिर उसके बाद कुछ और सूझता नहीं है। तो आइये आज से हम होली का अबीर गुलाल और रंग उड़ाना प्रारंभ करते हैं। शुभारंभ करते हैं आदरणीया नुसरत मेहदी जी की ग़ज़ल के साथ, इस संदेश के साथ कि यह वो देश है जहाँ होली के पर्व की शुरुआत नुसरत मेहदी जी की ग़ज़ल के साथ होती है, यह हमारी साझी संस्कृति का एक चित्र है। और उसके बाद रजनी नैयर मल्होत्रा जी की ग़ज़ल नुसरत जी के स्वर में स्वर मिलाने को तैयार है।
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इस बार के मिसरे और उसमें रदीफ काफिये के कॉम्बिनेशन को लेकर कई लोगों ने कठिनता की बात की। कहा कि इस पर लिखना असंभव है। मित्रों हमें दस वर्ष हो गए हैं यदि अब भी हम कठिन नहीं लिखेंगे तो फिर कब लिखेंगे। चुनौतियों को स्वीकार किए बिना कोई भी रचना साकार नहीं हो सकती। तो आइये प्रारंभ करते हैं मुशायरे को।
नुसरत मेहदी जी
मैंने लिक्खी ग़ज़ल जब तेरे रंग में
आ गए सब के सब क़ाफिये रंग में
"आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में"
ऐसी होली कि ता आसमाँ रंग है
आग पानी हवा सब घुले रंग में
सुब्ह से रंग चूनर बदलती हुई
तू ही तू है मगर हर नए रंग में
जिस्म से रूह तक तर बतर कर गया
इश्क़ था इश्क़ है परद ए रंग में
सोच में हूँ कि रक़्स ए भँवर तो नहीं
बन रहे हैं जो ये दायरे रंग में
हम से सहरा मिज़ाजों को रँगना है गर
कुछ जुनूँ भी मिला, बावरे, रंग में
रंग चेहरे पे हों लाख 'नुसरत'मगर
मत डुबोना कभी आईने रंग में
वाह वाह वाह क्या बात है, इधर हम सब मिसरे के, रदीफ-क़ाफिया के कठिन होने पर बहस करते रहे और नुसरत जी ने उस्तादाना अंदाज़ में आकर अपनी ग़ज़ल इतनी सरलता के साथ कह दी कि ग़ालिब याद आ गए “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे”। मतले में मिसरा सानी ऐसा कमाल का बाँधा गया है कि कठिन काफ़िये तक को लगाम लगा कर उसमें क़ाफ़िये के रूप में ही कस दिया गया है। कमाल। उसके बाद हुस्ने मतला में गिरह को इतनी ख़ूबसूरती के साथ बाँधा गया है कि उफ़। और अगले ही शेर में एकदम सूफ़ियाना अंदाज़ में इश्क़ को ईश्वर तक पहुँचा दिया है। मैंने कहीं पढ़ा था कि किसी ने नुसरत जी को हिन्दुस्तानी परवीन शाकिर कहा, तुलना तो मैं पसंद नहीं करता लेकिन नुसरत जी के शेरों में प्रेम बहुत पवित्र और समर्पित रूप में सामने आता है “तू ही तू है मगर हर नए रंग में” वाह प्रेम का इतना विस्तार कि वही हर जगह हो जाए। जिस्म से रूह तक तर बतर कर गया में होली और प्रेम के एकाकार होने का मानों शब्द चित्र ही खींच दिया गया है और उसके ठीक बाद मनोविज्ञान को टटोलता दायरे रंग में पड़ने का शेर, कमाल कमाल। लेकिन मकते के ठीक पहले के शेर पर क्या कहूँ ? शब्द ही नहीं है उसके बारे में कहने हेतु “हम से सहरा मिज़ाजों को रँगना है गर, कुछ जुनूँ भी मिला, बावरे, रंग में” उफ़ बावरे शब्द तो जैसे अटका लेता है, उलझा लेता है। और अंत में मकता कई-कई अर्थ प्रदान करता हुआ, एक गहरा संदेश अपने आप में समेटे हुए। वाह वाह वाह, इससे बेहतर और क्या आरंभ हो सकता था भला हमारे तरही मुशायरे का। सुंदर ग़ज़ल।
रजनी नैयर मल्होत्रा
राधिका रँग गयी श्याम के रंग में
तुम भी रँग जाओ ऐसे मेरे रंग में
मैं तेरे रंग में तू मेरे रंग में
दोनो खो जाएँ हम मदभरे रंग में
क्या रखा लाल पीले हरे रंग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
चढ़ गया है नशा सबपे फागुन का यूँ
हर कोई झूमता है नये रंग में
पीत पट का वसन और अधर लाल हैं
साँवरे जँच रहे साँवले रंग में
कह रहा मुझसे ये मेरा मन बावरा
मैं भी घुल जाऊँ केसर घुले रंग में
है लिबास अपना मौसम बदलने लगा
अब धरा दिख रही है हरे रंग में
रजनी जी ने भी कठिन क़ाफ़िया को बहुत अच्छे से निभाया है और बहुत ही ख़ूबसूरत शेर कहे हैं। असल में होता क्या है कि यदि हम चढ़ाई को पहले से ही कठिन मान कर चलते हैं तो वह सचमुच कठिन हो जाती है। राधिका और श्याम के मतले के साथ ग़ज़ल एकदम ठीक सुर में शुरू होती है। और उसके बाद दो दो हुस्ने मतला आए हैं, दोनों अलग-अलग रंग में रँगे हुए हैं। मैं तेरे रंग में तू मेरे रंग में के ठीक बाद जो मिसरा सानी आता है वह प्रेम की ऊँचाइयों को छू लेता है। और फिर उसके बाद ही दूसरे हुस्ने मतला में गिरह को बहुत कमाल के साथ बाँध दिया गया है, क्या रखा लाल पीले हरे रंग में के बाद यह कहना कि आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में, कमाल की गिरह बाँधी है। पीत पट का वसन और अधर लाल हैं में कृष्ण की छवि एकदम सामने आ जाती है। कहा रहा मुझसे ये मेरा मन बावरा में केसर घुले रंग में घुल जाने की इच्छा प्रेम को एक बार फिर से पूरी तरह से अभिव्यक्ति दे देती है। और अंत का शेर मौसमों के प्रतीक के द्वारा प्रेम के अगले रूप की बात करता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह क्या बात है, ख़ूबसूरत ग़ज़ल।
तो आनंद लीजिए होली की इन सुंदर ग़ज़लों का और माहौल बनाईए अपनी दाद और वाह वाह से। हम आने वाले दिनों में होली की धमाल एक्सप्रेस में सवार होने जा रहे हैं, तैयार रहिए।
आइये आज होली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं चार रचनाकारों के साथ। आज होली के रंग लेकर आ रहे हैं राकेश खंडेलवाल जी, निर्मल सिद्धू जी, कुमार प्रजापति जी और भुवन निस्तेज।
मित्रों कल बहुत अच्छे से मुशायरे की शुरुआत हुई होली के मुशायरे को दोनों रचनाकारों ने नए रंग से भर दिया। होली पर हम हमेशा धमाल रचते हैं, इस बार होली का धमाल अंतिम दिन ही देखने को मिलेगा। अंतिम दिन मतलब होली वाले दिन मचेगा यह धमाल। होता क्या है कि धमाल के चक्कर में ग़ज़लें अनसुनी रह जाती हैं। तो यह सोचा कि होली का धमाल अलग से मचाया जाए और ग़ज़लें अलग सुनी जाएँ। इसलिए ही अभी आपको होली का धमाल देखने को नहीं मिल रहा है।
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इस बार मिसरे को लेकर बहुत सी बातें हो चुकी हैं, लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि उसके बाद भी इतनी सारी ग़ज़लें आईं हैं। अलग अलग क़ाफियों के साथ। असल में हमारा ठीक इससे पूर्व का मुशायरा जो होली पर हुआ था उसमें भी क़ाफिये की ध्वनि यही थी, इसलिए सुविधा यह भी है कि पिछली बार की ग़ज़लों में से काफिये छाँट लिए जाएँ। ध्यानपूर्वक क्योंकि सारे नहीं चलेंगे कुछ ही चलेंगे।
आइये आज चार रचनाकारों के साथ होली के इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। राकेश खंडेलवाल जी ने तीन बहुत सुंदर गीत भेजे हैं जो रोज़ एक के क्रम में आपके सामने आएँगे। निर्मल सिद्धू जी होली के मुशायरे की गाड़ी दौड़ते भागते पकड़ ही लेते हैं। और भुवन निस्तेज और कुमार प्रजापति होली के मुशायरे में शायद पहली बार आ रहे हैं, आइये चारों के साथ मनाते हैं होली का यह अगला अंक।
राकेश खंडेलवाल
सोच की खिड़कियां हो गई फ़ाल्गुनी
सिर्फ़ दिखते गुलालों के बादल उड़े
फूल टेसू के कुछ मुस्कुराते हुये
पीली सरसों के आकर चिकुर में जड़े
गैल बरसाने से नंद के गांव की
गा रही है उमंगें पिरो छन्द में
पूर्णिमा की किरन प्रिज़्म से छन कहे
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
स्वर्णमय यौवनी ओढ़नी ओढ़ कर
धान की ये छरहरी खड़ी बालियाँ
पा निमंत्रण नए चेतिया प्रीत के
स्नेह बोकर सजाती हुई क्यारियां
साग पर जो चने के है बूटे लगे
गुनगुनाते मचलते से सारंग है
और सम्बोधनो की डगर से कहे
आओ रंग दें तुम्हरे प्रीत के रंग में
चौक में सिल से बतियाते लोढ़े खनक
पिस रही पोस्त गिरियों की ठंडाइयाँ
आंगनों में घिरे स्वर चुहल से भरे
देवरों, नन्द भाभी की चिट्कारियाँ
मौसमी इस छुअन से न कोई बचा
जम्मू, केरल में, गुजरात में, बंग में
कह रही ब्रज में गुंजित हुई बांसुरी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
पनघटों पे खनकती हुई पैंजनी
उड़्ती खेतों में चूनर बनी है धनक
ओढ़ सिन्दूर संध्या लजाती हुई
सुरमई रात में भर रही है चमक
मौसमी करवटें, मन के उल्लास अब
एक चलता है दूजे के पासंग में
भोर से रात तक के प्रहर सब कहें
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
पूर्णिमा की किरण प्रिज्म से छन कर कहे, वाह राकेश जी इसी कला के तो हम सब कायल हैं। आपके गीतों में जो बिम्ब उभर कर आते हैं वो अद्भुत होते हैं। टेसू के फूलों का सरसों के चिकुर में आकर जड़ना वाह क्या बात है। पहले की बंद में चेतिया प्रीत का निमंत्रण तो कमाल कमाल है। चने के बूटे और सारंगों के मचलने का प्रतीक तो मानों उफ युम्मा टाइप का बन पड़ा है। दूसरे बंद में पोस्त गिरियों की ठंडाइयों का सिल और लोढ़े पर पिसना मन में ठंडक भर गया, लगा कि अभी दौड़ कर एक गिलास तो पी ही लें। और उस पर जम्मू से केरल तक ब्रज में गुंजित बाँसुरी का गूँज जाना तो बस पूरे देश में होली के रंग का एक अनूठा नमूना है। और तीसरे बंद में संध्या का लजाना ऐसा लगा मानों दूर ढलते सूरज की लालिमा आस पास फैल गई है। और अंत में भोर से रात तक के प्रहर सब के सब इश्क़ के रंग में रँगने को तैयार हैं। वाह क्या कमाल का गीत है। राकेश जी को यूँ ही तो नहीं कहा जाता गीतों का राजकुमार। वाह वाह क्या कमाल का गीत है।
राख उड़ती रही सुगबुगे रंग में
आप रंगते रहे मसअले रंग में
हाशिये भी अगरचे रँगे रंग में
रँग गए अब तो हर जाविये रंग में
रात भर ख्वाब आकर डराते रहे
और आई सुबह रतजगे रंग में
रंगसाजी करे खुद ब खुद फैसला
बस्ती फूलों की कैसे रँगे रंग में
आपके रंग में जाफरानी हवा
आपको सादगी क्या दिखे रंग में
पर्वतों से उफनती नदी ज़िन्दगी
गुनगुनाने लगी बावरे रंग में
आस्तीनों में ख़ंजर लबों पर हँसी
क्या हुई है वफ़ा आज के रंग में
बात ये खार से कौन कहता यहाँ
'आओ रंग दूँ तुम्हें इश्क के रंग में'
अब ये लहज़ा ग़ज़ल का बदलिये हुजूर
लाइए अब कहन को नए रंग में
ये नहर ने नदी से है पूछा 'सुनों
क्यों हमेशा से हो सरफिरे रंग में ?'
शायरी में दिखाओ असर फागुनी
हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।
मतले का शेर ही पूरी ग़ज़ल का रंग पहले से बता रहा है कि यह अपने समय पर कटाक्ष करती हुई ग़ज़ल होने को है। और पूरी ग़ज़ल वैसी ही है भी। मतला ही हमारे पूरे समय पर चोट करता हुआ गुज़रता है।रात भर ख़्वाबों का आकर डराना और फिर सुब्ह का रतजगे के रंग में आना, कवि की कल्पना का कमाल है यह। रंगसाज़ी वाले शेर में रँगे को ही क़ाफिया बना कर कवि ने एक और कमाल कर दिया है। और यह क़ाफिया भी पूरी तरह से निर्वाह हो गया है। आपके रंग में जाफरानी हवा अगर ध्यान से सुना जाए तो इसकी ध्वनियाँ गंभीर पोलेटिकल व्यंग्य से भरी हैं। आस्तीनों में ख़जर और लबों पर हँसी हमारा सच में आज का समय है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बनाया है, फूलों और काँटों का तुलनात्मक शेर बहुत कमाल के साथ रचा है शायर ने। और नहर का नदी से पूछना कि तुम हर समय सरफिरे रंग में क्यों हो, बहुत अच्छी कल्पना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। तीखे व्यंग्य के साथ। वाह वाह वाह कमाल।
तुम भी रँग जाओगे फिर मेरे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश
डूब तो लो ज़रा इस नये रंग में
अब तो मौसम भी मदहोश होने लगा
क्यूँ न हम भी घुलें मदभरे रंग में
रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब
जबसे देखा है तुझको हरे रंग में
साये ग़म के कभी पास आते नहीं
जब रहे हम सदा प्यार के रंग में
मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
आदमी ढल रहा कौन से रंग में
वाह वाह वाह क्या ग़ज़ल कही है। मतले में ही गिरह ठीक प्रकार से बाँधा गया है। अपने ही रंग में रँगना ही तो असल इश्क़ होता है। किसी दूसरे को अपने रंग में रँग लेना यही तो प्रेम है और मतले का शेर उस भावना को बहुत ही अच्छे से व्यक्त कर रहा है। पहला ही शेर एक निमंत्रण है अपने ही रंग में डूब जाने का। और एक चुनौती के साथ निमंत्रण है कि यह जो रंग है यह चढ़ गया तो उतरने वाला नहीं है। और मौसम फागुन का हो तो मद भरा रंग तो बिखरना ही है चारों ओर। रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब में किसी एक को हरे रंग में देख लेना और उसके बाद हर रंग फीका हो जाना, वाह क्या बात है यह शेर हर पढ़ने वाले को यादों में ज़रूर ले जाएगा। और फिर वही बात कि जब तक हम प्रेम में हैं सबसे प्यार कर रहे हैं तब तक ग़म के साये कभी पास नहीं आते। और अंत तक आते-आते प्रेम को सूफ़ियाना अंदाज़ प्रेम के रंग को भी अपने रंग में रँग लेता है। वाह वाह वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
कृष्ण कुमार प्रजापति
देख लेना सुधार आएगा ढंग में
आओ रंग दे तुम्हें इश्क़ के रंग में
उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
किस तरह आ गयी जान इक संग में
सीने छलनी हुए कट के सर गिर पड़े
कितने कम आ गए आन की जंग में
इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था
क्या मिलाया है तूने मेरी भंग में
उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा
बिजलियों सी जलन है तेरे अंग में
अपनी साँसे मेरी सासों में घोल दे
देख जमना बहा करती है गंग में
सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में
कुमार जी को शायद क़ाफिया समझने में कुछ ग़फ़लत हो गई है। उन्होंने ए की मात्रा के स्थान पर रंग को ही क़ाफिया बना लिया है। इस ब्लॉग की परंपरा है कि यहाँ जो रचनाएँ आ जाती हैं सबका सम्मान किया जाता है इस अनुरोध के साथ कि आगे से यह ग़फ़लत नहीं हो। मतला ही बहुत खूब बन पड़ा है जिसमें इश्क़ के माध्यम से सुधारे जाने की बात कही गई है। इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था में किसीके हाथों को छूकर नशे के और बढ़ जाने की बात बहुत ही सुंदर तरीक़े से कह दी गई है। वस्ल को लेकर दो अच्छे शेर कह दिये हैं कुमार जी ने पहले तो उँगलियाँ जल उठने वाला शेर है जो प्रेम के दैहिक रूप को प्रकट करता है और उसके बाद अपनी साँसें मेरी साँसों में घोलने का अनुरोध प्रेम के दूसरे रूहानी पक्ष की बात करता है। और अंत में मकते का शेर बहुत छोटी सी कामना के साथ सामने आया है जिसमें केवल चंद फूलों की बात की गई है पूरे गुलशन के स्थान पर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
लीजिए तो आज के चारों रचनाकारों ने होली के माहौल को अलग ही रंग में रँग दिया है। आपका काम तो वही है दाद दीजिए और खुल कर दाद दीजिए। दाद देते रहने में ही आपकी भलाई है नहीं तो होली पर आपके फोटो के साथ क्या होगा यह ख़ुदा ही जानता है।
होली के रंगों में रँगा हुआ यह तरही मुशायरा आइए आज पाँच शायरों की ग़ज़लें सुनते हैं धर्मेन्द्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम और जनाब शेख़ चिल्ली।
मित्रों होली तो उमगने का त्योहार है। अंदर से उमड़ जाए तो होली हो जाती है। इसमें कहीं कोई अलग से व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं होती है। जो हो जाए वो होली होती है। मौसम कुछ बेईमानी करने लगता है, कुछ अपने ही अंदर से शरारत उपजने लगती है और होली हो जाती है। होली असल में एक ऐसा त्योहार है जो हमारी बैटरी को रीचार्ज करता है। साल भर में एक बार अपनी बैटरी को रीचार्ज कर लो और उसके बाद साल भर गन्नाते रहो। कभी-कभी मुझे लगता है कि कितना बुरा किया है हमने जो होली को एक धर्म विशेष के साथ ही जोड़ दिया, जबकि इसमें धार्मिकता-वार्मिकता जैसा कुछ नहीं है, यह तो विशुद्ध आनंद का अवसर होता है। खैर…..
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इस बार तो ऐसा लग रहा है कि चुनौती की स्वीकार कर सभी ने बहुत मेहनत के साथ ग़ज़लें कही हैं। असल में कठिन कार्य करना ही तो हमें अपने आप को कसौटी पर कसने का अवसर देता है, सरल कार्य का क्या है वह तो हो ही जाता है। इसीलिए इस बार का मिसरा जान बूझ कर कुछ कठिन रखा था। कठिन था क़ाफियाबंदी में। मगर लगता है कि लोगों ने उसे भी आसान बना दिया और सहजता के साथ अपनी ग़ज़लें कह डालीं। आज पाँच शायरों की ग़ज़लें सुनते हैं धर्मेन्द्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम और जनाब शेख़ चिल्ली। शेख़ चिल्ली साहब अपनी पहचान नहीं उजागर करना चाह रहे हैं। कोई बात नहीं।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
एक दूजे को रँग दें नये रंग में
तुम गुलाबी रँगो हम हरे रंग में
आओ ऐसे मिलें एक दूजे से हम
रंग जैसे मिले दूसरे रंग में
गाल पर प्राइमर ये गुलाबी कहे
अब तो रंग दो पिया प्रीत के रंग में
रंग ये चढ़ गया तो न उतरेगा फिर
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
रंग फीके पड़ें जाति के धर्म के
ये ज़मीं खिल उठे प्रेम के रंग में
तितलियाँ भूल जाएँगी इसका पता
मत रँगो फूल को यूँ नये रंग में
एक झंडे में हँसते हैं भगवा, हरा
बात कुछ तो है इस तीसरे रंग में
सोचिए देश कैसा लगेगा, अगर
रँग दें सब को अगर एक से रंग में
मतले में कई बार रंग शब्द आकर जिस प्रकार से उसका सौंदर्य बढ़ा रहा है उसके कारण मतला ज़बरदस्त बन पड़ा है, गुलाबी और हरे रंग के प्रतीकों को उपयोग खूब हुआ है। एक दूसरे से मिलने के लिए अगले ही शेर में एक रंग के दूसरे रंग में रंगने का प्रयोग प्रेम से लेकर देश तक सबके लिए सामयिक बना है। गाल के गुलाबी प्राइमर के बाद पिया से अनुरोध के प्रीत के रंग में रँग दो वाह क्या बात है। अगले ही शेर में गिरह का शेर एक दावे के साथ आया है कि हमारे रंग में रँग जाओगे तो यह रंग फिर उतरने वाला नहीं है। एक झंडे में हँसते हैं भगवा हरा में सफेद रंग का महत्तव किस सुंदरता के साथ बखान किया गया है बिना उसका नाम लिए, यह ही कविता होती है। जब बिना नाम लिए कुछ कह दिया जाए और समझने वाले समझ भी जाएँ। और अंत का शेर एक प्रार्थना एक दुआ की तरह आता है। आमीन कहना तो बनता है। बहुत ही सुंदर गज़ल। वाह वाह वाह क्या बात है।
दिगम्बर नासवा
अपने मन मोहने साँवले रंग में
श्याम रँग दो हमें साँवरे रंग में
में ही अग्नि हूँ जल पृथ्वी वायु पवन
आत्मा है अजर सब मेरे रंग में
ओढ़ कर फिर बसंती सा चोला चलो
आज धरती को रँग दें नए रंग में
थर-थराते लबों पर सुलगती हँसी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
आसमानी दुपट्टा छलकते नयन
सब ही मदहोश हैं मद भरे रंग में
रंग भगवे में रँगता हूँ दाढ़ी तेरी
तुम भी चोटी को रँग दो हरे रंग में
जाम दो अब के दे दो ज़हर साकिया
रँग चुके हैं यहाँ सब तेरे रंग में
मतला साँवले और साँवरे को बहुत ख़ूबसूरती के साथ प्रयोग करता है। और उसमें मन मोहने का उपयोग तो कृष्णमय कर देता है। और अगले ही शेर में धर्म से सीधे आध्यात्म की ओर ग़ज़ल बढ़ जाती है। प्रेम के कृष्ण से गीता के कृष्ण की ओर। पंच तत्वों को मात्रा के हिसाब से खूब बिठाया है। और अगला शेर एकदम देश, समाज और विश्व के कल्याण हेतु वसंती रंग का आह्वान करता हुआ आता है। बहुत खूब। गिरह का शेर विशुद्ध प्रेम का शेर, प्रेम की वह भावना जो अपने रंग में रँगने को आतुर है उसका बहुत खूब चित्रण किया गया है। रंग भगवे में रँगता हूँ दाढ़ी तेरी में रंगों के माध्यम से कितनी बड़ी बात कह दी गई है। आचार्य रामधारी सिंह दिनकर की याद आ गई, जिन्होंने कहीं लिखा था कि यह दोनों रंग ठीक से मिल जाएँ तो दुनिया पर राज करेंगे। और अंत का शेर भी अच्छा बना है सब रंग ही गए तो अब क्या फ़र्क पड़ता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह क्या बात है।
गुरप्रीत सिंह
कोई जादू तो था सांवले रंग में
राधिका रँग गई श्याम के रंग में
क्या धरा लाल पीले हरे रंग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
थी इनायत बड़ी धूप के रंग में
रंग दिखने लगे बूंद बेरंग में
कौन सा रंग तूने लगाया मूझे
दाग लेकिन पड़े कौन से रंग में
कैनवस पर न क्यों जी उठे जिंदगी
ब्रश चलाता है वो डूब के रंग में
चढ़ गया रंग जिन पे मुहब्बत का वो
जी गए रंग में मर गए रंग में
रंगे जाने के साथ अब महक भी उठूं
थोड़ी खुशबू सनम घोल दे रंग में
भंवरे परवाने दोनों को न्यौता मिला
पर गया एक ही दावते रंग में
कत्ल जब भी हुआ है मेरे ख्वाब का
अश्क बहने लगे सुर्ख से रंग में
मतला वहीं से शुरू हो रहा है जहाँ से इस बार अधिकांश ग़ज़लें प्रारंभ हो रही हैं। लेकिन उसी बात को कुछ अलग अंदाज़ से कहा गया है। उसके ठीक बाद हुस्ने मतला में कमाल की गिरह बाँधी गई, सचमुच इन सारे रंगों में होता क्या है, जो होता है वह तो इश्क़ के रंग में ही होता है। और उसके बाद बूंद में प्रकाश के सातों रंगों का इन्द्रधनुषी चित्र क्या कमाल का खींचा गया है। वाह क्या बात है। कौन सा रंग तूने लगाया शेर बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है, सचमुच जो परिणाम होता है वह अक्सर वैसा नहीं होता जैसी क्रिया की गई थी, बहुत खूब। कैनवस पर रंगों का जी उठना और डूब के रंग में ब्रश चलाना वाह क्या बात है, अलग तरीके से कही गई बात। चढ़ गया रंग शेर में मिसरा सानी बहुत अच्छा बन पड़ा है, मुहब्बत यही तो होती है जिसमें आदमी जीता भी है और मर भी जाता है। रंग में खूशबू घोलने का शेर और सुर्ख से रंग में अश्क बहने का शेर भी सुंदर बना है। वाह वाह वाह क्या बात है कमाल की ग़ज़ल।
नकुल गौतम
फ्रेम कर लें सजा कर लम्हे रंग में
खेलें होली चलो इक नए रंग में
हो गयी है पुरानी मुहब्बत मगर
हैं ये किस्से नये के नये रंग में
धूप सेंकें पहाड़ों की मुद्दत के बाद
कर लें माज़ी नया धूप के रंग में
उस पहाड़ी पे कैफ़े खुला है नया
चल मुहब्बत पियें चाय के रंग में
एक भँवरे ने बोसा लिया फूल का
झूम उठी डालियाँ मद भरे रंग में
प्रिज़्म शरमा न जाये तुझे देख कर
रंग मुझको दिखें सब तेरे रंग में
जब से बूढ़ी हुई, हो गयी तू खड़ूस
डेट पर ले चलूँ क्या तुझे रंग में
चल पकौड़े खिलाऊँ तुझे मॉल पर
औ'पुदीने की चटनी हरे रंग में
आज बच्चों ने ऐसे रँगा है मुझे
घोल कर हैं जवानी गए रंग में
हम गली पर टिकाये हुए थे नज़र
और बच्चे थे छत पर डटे रंग में
छोड़ बच्चे गये अपनी पिचकारियाँ
मेरा बचपन दिखाया मुझे रंग में
एक दिन के लिए छोड़ भी दो किचन
"आओ रँग दूँ तुम्हे इश्क़ के रंग में"
मतले में नास्टेल्जिक प्रयोग के साथ अच्छा चित्रण किया है। और पहाड़ी को लेकर जो दो कमाल के शेर बने हैं उनका तो कहना ही क्या है। पहले शेर में माज़ी को धूप सेंक कर नया करने का अनूठा प्रयोग किया गया है। ग़ज़ब। और अगले शेर में तो यह कमाल आगे बढ़ गया है पहाड़ी पर बने कैफे में मुहब्बत को चाय के रंग में पीना, वाह यह हुआ है कोई शेर। कमाल। यही वो प्रयोग हैं जो आज की ग़ज़ल को करने ही होंगे यदि हम इनको नये रंग देना चाहते हैं तो। ग़ज़ल में एकदम से रंग बदलता है और हजल के शेर आ जाते हैं, जो बहुत ही मासूमियत के साथ कहे गए हैं बुढ़ापे की खड़ूसियत को दूर करने हेतु डेट पर ले चलने का मासूम से प्रस्तव गुदगुदा देता है। और उसके बाद एक और मासूम सी इल्तिजा जिसमें शिमला के प्रसिद्ध मॉल पर पकौड़े खिलाने की चाह व्यक्त की गइ है। वाह क्या बात है। और अंतिम शेर तो उफ उफ टाइप बना है। कितनी मासूमियत के साथ निवेदन है। वाह वाह वाह क्या बात है सुंदर ग़ज़ल।
शेख़ चिल्ली
इंटरनेट पर घूमते हुए होली की बातें पढ़ते हुए आपके ब्लॉग तक पहुंचा। देखा की तरही का मिसरा दिया गया है।
तो कुछ मिसरे हमारे भी हो गए। अगर अपनी पहचान बताना ज़ुरूरी न हो तो मेरी भी एक ग़ज़ल देखिये। अगर ठीक लगे तो औरों को भी पढ़वाईए। मेरी पहचान यह है कि मैं अपने हिसाब से एक शायर हूँ। इसे आप शेख़ चिल्ली का ख़्वाब मान लीजिये, जो दिन में देखता हूँ।
लोग सब कंस होने लगे रंग में
खेलें होली कहाँ कृष्ण के रंग में
आज मथुरा भी बिज़नस का गढ़ हो चला
राजनीति बनारस करे रंग में
तोड़ कर मटकियों से चुरायेंगे क्या
दूध-घी यूरिया के बुरे रंग में
घोर कलयुग है आया, कसम राम जी
कैसे कैसे रसायन घुले रंग में
बांसुरी भी पुरानी हुई अब तेरी
राधिका भी तो डी. जे. सुने रंग में
कृष्ण बोले सुदामा से घबराओ मत
जो भी है सब रँगा है मेरे रंग में
आओ अब इक गिरह भी लगा लें ज़रा
"आओ रँग दूँ तुम्हे इश्क़ के रंग में"
शेख़ चिल्ली ये बातें बुरी हैं मगर
क्या हकीकत नहीं है मेरे रंग में?
अपनी पहचान का छिपा कर शेख़ चिल्ली साहब ग़ज़ल लाए हैं। ख़ैर इस ब्लॉग मंच पर तो सबका खुले दिल से स्वागत होता है। मतला ही बहुत अच्छे से बनाया गया है। सचमुच कंसों के दौर में कृष्ण वाली होली भला कैसे खेली जाए। शेख़ चिल्ली साहब शायद उत्तर प्रदेश से हैं तभी तो अगले शेर में दो प्रमुख धार्मिक नगरों की व्यथा को इतनी बख़ूबी व्यक्त किया है। और उसके बाद यूरिया से बने हुए दूध और मटकियों को तोड़ने की कहानी, यह शेर बहुत ही अच्छा बना है। अगले शेर में जो टुकड़ा आनंद दे रहा है वह है कसम राम जी, मिसरे में टुकड़े यदि ठीक लग जाएँ तो इसी प्रकार आनंद देते हैं। बाँसुरी और डीजे के बीच समय के परिवर्तन की पड़ताल करता अगला ही शेर खूब कटाक्ष करता है समय पर। गिरह का शेर बिल्कुल ही नए तरीके से बाँधा गया है। प्रयोगधर्मी होना ही साहित्यकार को जिंदा रखता है। और मकते का शेर बहुत मासूमियत से एक तल्ख़ सवाल करता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह।
वाह वाह क्या बात है, आज तो पाँचों ही शायरों ने जलवा खींच दिया है। एक से बढ़कर एक शेर कहे हैं। अलग-अलग अंदाज़ में अपने-अपने तरीक़े से। आप लोगों के पास दिल खोलकर दाद देने के अलावा और अब चारा ही क्या है। तो दीजिए दाद ग़ज़ल की इस नई पीढ़ी को। और करते रहिए इंतज़ार।
रंगों का पर्व अब बहुत पास आ गया है आइए आज हम भी कुछ आगे बढ़ते हैं राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर', गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी के साथ।
मित्रो अब तो आपके घर में भी पकवान तैयार होने लगे होंगे। गुझिया, पपड़ी, बेसन चक्की आदि खाने से ज़्यादा मज़ा इनकी ख़ुश्बू में होता है। दो दिन पहले से घरों में जो सुगंध उठती है वह तो जानलेवा होती है। जी करता है खाएँ कुछ भी नहीं, बस बैठ कर सूँघते ही रहें। तृप्त होने के लिए ज़रूरी नहीं है कि ज़बान को तकलीफ़ दी जाए सूँघ कर, सुन कर, देख कर या महसूस करके भी तृप्त हुआ जा सकता है। मगर नहीं ऐसा भी नहीं करना है। इतनी मेहनत से जो पकवान बन रहे हैं उनको खाएगा कौन। देखिए बीमारी तो होती रहेगी, आपके न खाने से भी रुकने वाली तो है नहीं, तो खाकर ही उसका मुकाबला करने में ज़्यादा समझदारी है।
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
इस बार का मिसरा तो बहुत कमाल दिखा रहा है। सोचा भी नहीं था कि ऐसे-ऐसे क़ाफियों का ऐसा-ऐसा प्रयोग भी देखने को मिलेगा। इस बार का क़ाफिया ज़रा सी ग़लती से भर्ती का क़ाफिया हो जाने के ख़तरे की संभावना से भरा हुआ है। और उसकी सावधानी सभी रचनाकार बरत रहे हैं यह अच्छी बात है। रंग का पर्व सामने है तो आज हम भी कुछ आगे बढ़ते हैं राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर', गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी के साथ।
राकेश खंडेलवाल जी
मौसमों ने तकाजा किया द्वार आ
उठ के मनहूसियत को रखो ताक पर
घुल रही है हवा में अजब सी खुनक
तुम भी चढ़ लो चने के जरा झाड़ पर
गाओ पंचम में चौताल को घोलकर
थाप मारो जरा जोर से चंग में
लाल नीला गुलाबी हरा क्या करे
आओ रंग दें तुम्हें इशक के रंग में
आओ पिचकारियों में उमंगें भरें
मस्तियाँ घोल लें हम भरी नांद में
द्वेष की होलिका को रखें फूंक कर
ताकि अपनत्व आकर छने भांग में
वैर की झाड़ियाँ रख दे चौरास्ते
एक डुबकी लगा प्रेम की गंग में
कत्थई बैंगनी को भुला कर तनिक
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में
बड़कुले कुछ बनायें नये आज फ़िर,
जिनमें सीमायें सारी समाहित रहें
धर्म की,जाति की या कि श्रेणी की हों
वे सभी अग्नि की ज्वाल में जा दहें
कोई छोटा रहे ना बड़ा हो कोई
आज मिल कर चलें साथ सब संग में
छोड़ कर पीत, फ़ीरोजिया, सुरमई
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
आओ सौहार्द्र के हम बनायें पुये
और गुझियों में ला भाईचारा भरें
कृत्रिमी सब कलेवर उठा फ़ेंक दें
अपने वातावरण से समन्वय करें
जितना उल्लास हो जागे मन से सदा
हों मुखौटे घिरे हैरतो दंग में
रंग के इन्द्रधनु भी अचंभा करें
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
होली के आ ही जाने की सूचना को लिए हुए यह गीत राकेश जी ने लिखा है। मनहूसियत को ताक पर धर कर चने के झाड़ पर चढ़ जाने का आह्वान होली के मौसम में ही किया जा सकता है। लेकिन पहले ही बंद में होली के माहौल में मानवता का संदेश लिए गीतकार का दूसरा पक्ष समाने आता है। जिसमें द्वेष की होलिका को जलाने और भांग में अपनत्व छानने जैसे प्रतीकों के माध्यम से गीत आगे बढ़ता है। वैर को भुला कर प्रेम की गंग में डुबकी लगा लेने का आमंत्रण बंद देता है। अगले बंद में वसुधैव कुटुम्बकम की बात कही गई है। एक ऐसा परिवार जिसमें दुनिया का हर मानव सदस्य हो जाए। सब एक ही में रहें न कोई छोटा, न कोई बड़ा। तीसरा और अंतिम बंद होली के नए पकवानों की बता करता है उन गुझियों की जिनमें भाईचारा भरा हो। सचमुच आज के समय में ऐसे ही पकवानों की आवश्यकता है। वातावरण में समन्वय हो तो सब ठीक हो जाएगा। वाह वाह वाह क्या सुंदर गीत है कमाल।
द्विजेन्द्र द्विज जी
रंग सारे ही घुलमिल गये रङ्ग में
लाल पीले हरे साँवले रङ्ग में
मैं तेरे रंग में तू मेरे रंग में
चेह्रे भी रंग में आइने रङ्ग में
सूफ़ी सन्तों के मनभावने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में
क्यों हो तन्हाइयों से सने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में
रङ्ग ने रङ्ग में रङ्ग से बात की
रङ्ग कितने ही और आ गए रङ्ग में
जानेजाँ क्यों है तू अनमने रङ्ग में
आ भी जा आज तो मनचले रङ्ग में
ये बुढ़ापे की चादर उतारो ज़रा
आके हमसे मिलो चुलबुले रंग में
साल भर की उदासी! ज़रा साँस ले
आज आने दे मुझको मेरे रङ्ग में
एक सपना यकायक मुझे ले गया
उसकी ख़ुश्बू से महके हुए रङ्ग में
मुँह छिपाएँ कहाँ आज मायूसियाँ
आज हैं दोस्तो ! क़हक़हे रङ्ग में
पल छिनों में गुज़र जाएगी ज़िन्दगी
थे अभी कुछ यहाँ बुलबुले रङ्ग में
कोई रङ्ग और मुझ पर चढ़ा ही नहीं
यार ! जब से रँगा मैं तेरे रङ्ग में
रङ्ग दुनिया के हैं अब ख़लल की तरह
मेरी आँखों में आकर बसे रङ्ग में
कोई मौक़ा नहीं आज तकरार का
आज हैं सबके सब फ़लसफ़े रङ्ग में
क्या रहा ज़ायक़ा रङ्ग के खेल का
खेलने सब लगे अटपटे रङ्ग में
चढ़ गया रङ्ग रिश्तों पे बाज़ार का
कुछ तो है खोट खिलते हुए रङ्ग में
चन्द शे’र आपके हमने क्या सुन लिए
आप गाने लगे बेसुरे रङ्ग में
कितने रङ्ग उनके चेहरे पे आए, गए
‘द्विज’! ये क्या कह दिया आपने रङ्ग में
द्विज भाई अपने ही रंग में ग़ज़ल कहते हैं। उनके शेर अलग से पहचाने जा सकते हैं कि हाँ ये इन्हीं के शेर हैं। एक दो नहीं पूरे चार मतले। और चारों ज़बरदस्त मतले। सूफी सन्तों के मन भावने रंग में के साथ बहुत ही सुंदर गिरह बांधी है उन्होंने। और उसके बाद ठीक पहला ही शेर कमाल का रच दिया है रंग ने रंग में रंग से बात की, वाह वाह वाह कमाल के रंग पिरोए हैं मोती की तरह। ग़ज़ब का शेर। और दो ख़ूबसूरत शेर इसके बाद एक तो साल भर की उदासी वाला और दूसरा एक सपना यकायक। वाह क्या बात है यह रंग द्विज भाई के शेरों की ही ख़ासियत है। कुछ और आगे एक और शेर आया है रंग दुनिया के अब हैं खलल की तरह, उसमें मिसरा सानी तो कमाल ही कर रहा हे। ग़ज़ब। चंद शेर आपके में बहुत गहरा व्यंग्य है, सामयिक व्यंग्य। और मकते का शेर भी बहुत ही ख़ूबसूरत बन पड़ा है यहाँ भी मिसरा सानी बहुत ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई, क्या बात है वाह वाह वाह।
डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर'
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
डूब जाएं चलो एक से रंग में
है ये होली का दिन कुछ बुरा क्यूं लगे
सारा आलम है जब सरफिरे रंग में
सुर्ख़ गालों की लाली लगी फैलने
जब सजनवा के हम आ गए रंग में
सात रंगों के सुर से सजा जब जहां
फिर सियासत है क्यूं बेसुरे रंग में
जान पाना ये होता न आसां कभी
कौन डूबा यहां कौन से रंग में
दिख गया जब भी रंगे-लहू ठीक से
फिर ये दुनिया दिखेगी नए रंग में
छा ही जाता है सब पे अलग सा नशा
जब भी आती है महफ़िल मेरे रंग में
मधुर जी ने मतले से ही होली का सुर ठीक प्रकार से लगा दिया है। मिसरा ए तरह को उलटबांसी प्रयोग करते हुए मिसरा उला बनाने का प्रयोग उन्होंने किया है। मतले में ही यह गुंजाइश होती है। अगले शेर में होली के अमर वाक्य बुरा न मानो होली है को बहुत ही सुंदरता के साथ शेर का मिसरा बना दिया है। और अगला शेर मिलन का शेर है प्रेम और मिलन का शेर। जब एक दूसरे पर एक दूसरे का रंग चढ़ जाता है। गोरी साँवली होने लगती है। सात रंगों के सुर से सजा जब जहाँ में व्यंग्य को पिरो लिया गया है। और अगला शेर एकदम होली के त्योहार में चलते हुए रंग में ले जाकर खड़ा कर देता है आपको जहाँ पहचानना ही मुश्किल होता है कि कौन् कहाँ है। दिख गया जब भी रंगे लहू बिल्कुल अलग ही तरीक़े का शेर है। और आखिरी शेर में उस्तादों के रंग वाली शायरी दिखाई दे रही है। मेरे रंग में महफ़िल आएगी तो अलग ही नशा छाएगा सब पर का उद्घोष करते हुए। वाह वाह वाह क्या बात है सुंदर ग़ज़ल।
लाल, पीले, हठीले हरे रंग में
मन हमारा रँगा आपके रंग में
प्यार बाँटें यहां प्यार मिलता रहे
ज़िन्दगी को जिएं हम नए रंग में
फाग आया तो टूटे हैं बन्धन कई
तापसी भी दिखे मद भरे रंग में
रंग के बिन यहाँ ज़िन्दगी कुछ नहीं
देखिए लग रहे कहकहे रंग में
रंग है इक नदी डूबते सब रहे
गोरे, काले हों या सांवले रंग में
रंग का संग जिनको मिला साथियो
शान से वो जिए फिर मरे रंग में
यूं न बचते फिरो आज मौका मिला
'आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में'
हमने दिल से कहे शे'र अपने सभी
हम नहीं बोलते भंग के रंग में
आओ 'पंकज'उतारो ये चोला जरा
तुम हो कैसे अरे अनमने रंग में
लाल पीले के बाद हठीले हरे की तो क्या बात है। सुंदरता तो उसी हठीले हरे से पैदा हो रही है। प्यार बाँटें ताकि प्यार सबको मिलता रहे की भावना लिए अगना शेर ज़िंदगी को नए रंग में जीने की बात कर रहा है। सचमुच यही तो होना चाहिए हम आपस में प्यार बाँटते रहें और प्यार से ही जीते रहें। अब उस बीच चूँकि फाग आया है तो तापसी तो मदभरे रंग में आएगी ही, उसे कौन रोक सकता है। और रंगों की वह नदी हमारा जीवन ही तो है जिसमें हम सब डूब रहें हैं कोई गोरा है कोई साँवला है तो कोई काला है। और रंग का संग जिनको मिल जाए वो शान से जीते भी हैं और मरते भी शान रंग में ही मरते हैं। यही तो रंग का सबसे बड़ा कमाल होता है। और गिरह का शेर भी खूब बन पड़ा है होली का मौका सचमुच ही ऐसा अवसर होता है जिसमें हर कोई अपना इश्क़ का रंग लिए फिरता है। बचने का दिन नहीं होता है होली का दिन यह तो रंगने का दिन होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
अंशुल तिवारी
अब के फागुन है कुछ मनचले रंग में,
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में।
लाल, पीले, ग़ुलाबी पुराने हुए,
आज हम भीग जाएँ, नए रंग में।
फ़ाग का है असर, हर बशर पर यहाँ,
घूमते हैं सभी जो, बड़े रंग में।
कोई सूरज नया आसमाँ में उगा,
धूप भी आई है कुछ खिले रंग में।
बात तुमसे जो कहनी थी, कह तो गए,
पर कही हमने कुछ, अटपटे रंग में।
भाँग का भी असर मुझ पे कुछ ना हुआ,
देखा तूने यूँ कुछ मदभरे रंग में।
ढूँढ़ते हम रहे, रंग जीवन में पर,
रंग सारे मिले, प्रीत के रंग में।
जब से उल्फ़त हुई, हमने तबसे सुनो,
अपने दिल को रँगा बस तेरे रंग में।
मेरा जो भी था, सब-कुछ तेरा हो गया,
तुम भी रँग जाओ ना, अब मेरे रँग में।
एक-दूजे से मिलकर यूँ घुल जाएँ अब,
श्याम-राधा थे जैसे घुले रंग में।
वास्तव में फागुन मनचला नहीं होता है, मनचले तो हम हो जाते हैं उसे दौरान और अपना सारा इल्ज़ाम ठोंक देते हैं फागुन में यह कह कर कि अबके फागुन है कुछ मनचले रंग में। जब प्रेम हो जाता है तो लाल पीले गुलाबी रंग भला भाते ही कब हैं तब तो उसी नए प्रेम के रंग में भींगने की इच्छा होती है। अच्छा शेर। कोई सूरज नया आसमाँ में उगा में शायर ने सामान्य से हट कर कुछ नए तरीके से बात को कहने की सफल कोशिश् की है। जब सूरज नया होगा तो धूप भी कुछ अलग तो होगी ही न्, अच्छा सुंदर शेर। मेरा जो कुछ भी था सब कुछ तेरा हो गया में यह अनुरोध बहुत ही मासूमियत के साथ आया है कि मेरे रंग में रंग जाओ न अब तुम भी। सचमुच यही तो समर्पण होता है जब हम एक दूसरे को अपना सब कुछ अर्पण करके एक दूसरे के रंग में रंग जाते हैं। और अंत का शेर एक बार फिर से राधा और श्याम के प्रेम के माध्यम से प्रेम की ही बात कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
तो मित्रों यह थे आज के पाँच रचनाकार। अब आपके हवाले ये और इनकी रचनाएँ। दाद ज़रा दिल से देंगे तो आनंद आएगा। सुनने वाले को भी और सुनाने वाले को भी। तो देते रहिए दाद।
होली है भइ होली है रंग बिरंगी होली है, आइये आज होली मनाते हैं अपने इन रचनाकारों के साथ आदरणीय नीरज गोस्वामी जी, पवन कुमार जी, तिलक राज कपूर जी, सौरभ पाण्डेय जी और मुस्तफ़ा माहिर के साथ मनाते हैं होली।
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रँग में
शेर कहते रहें इश्क़ के रँग में
मिल गयीं राहतें इश्क़ के रँग में
बेख़ुदी, वहशतें इश्क़ के रँग में
भीगती बारिशें इश्क़ के रँग में
पड़ गयीं सिलवटें इश्क़ के रँग में
कूकती कोयलें इश्क़ के रँग में
सारी दुनिया रंगें इश्क़ के रँग में
हम जवाँ-से ठुमकने लगे रंग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
तू तेरे रंग में, मैं मेरे रंग में
हर कोई लग रहा है मुझे रंग में
जो मिला हम उसी के रँगे रंग में
जब तलक रह सके वो छुपे रंग में
यूँ रँगा था सभी ने मुझे रंग में
उस तरफ़ खुशनसीबी दबे रंग में।
देखिये खिंच गये हाशिये रंग में।
आपने भी लिखे फै़सले रंग में।
ग़ुम सियासत हरे गेरुए रंग में।
जिनकी खुशियाँ हैं अँधियार के रंग में।
कुछ के उत्तर दिखे अनसुने रंग में।
देखिये हर नया पल नये रंग में।
खेलते धूप में, धूल के रंग में।
”आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में।”
सुर लगा फाग का.. आ गये रंग में
मौसमों के हुए चुटकुले रंग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
अल्पना हम सजाते रहे रंग में
फावड़े और फंदे दिखे रंग में
इस तरह गाँव के दल दिखे रंग में
या खुदा, फिर खलल मत पड़े रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।
हर दफ़ा तू दिखे है नऐ रँग में।
तू मेरे रंग में मैं तेरे रंग में।
तू लगे है बुरा दूसरे रंग में।
जो रँगी जाए अच्छे बुरे रंग में।
तुमपे पटियाला वो भी हरे रंग में।