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Channel: सुबीर संवाद सेवा
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होली है भई होली है रंगों वाली होली है। आज होली का दिन है आप सबको रंग भरी शुभकामनाएँ। आइए आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं होली का पर्व आदरणीय तिलक राज कपूर जी, राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी, सुमित्रा शर्मा जी, मन्सूर अली हाश्मी जी और अनीता तहज़ीब जी के साथ।

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होली है भइ होली है रंगों वाली होली है, रंगबिरंगी होली है। बुरा न मानो होली है, बुरा न मानो होली है। उल्लास, उमंग और तरंग लिए होली आपके द्वार पर आ खड़ी हुई है। आइये होली के रंग में हम सब डूब जाएँ और आज रंगमय हो जाएँ। सब परेशानियाँ भूल जाएँ, सारी रंज़िशें भुला दें और बस होली मय हो जाएँ। जो रंग हो वह बस होली का ही हो। बाकी सारे रंगों को अब कुछ दिनों के लिए भूल जाएँ हम। 

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आइए आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं होली का पर्व आदरणीय तिलक राज कपूर जी, राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी, सुमित्रा शर्मा जी, मन्सूर अली हाश्मी जी  और अनीता तहज़ीब जी के साथ।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर

बंद अधरों में है अधखिले रंग में
एक नाज़ुक कली मदभरे रंग में।

शह्र डूबा कहूँ कौनसे रंग में
दिख रहे हैं सभी आपके रंग में।

श्याम के रँग डूबी हुई राधिका
क्या दिखा तू बता साँवले रंग में।

चाँद छत पर ठहर देखता ही रहा
चाँद आग़ोश में चांद के रंग में।

एक दुलहिन हथेली रचाते हिना
सोचती है सपन क्या भरे रंग में।

रास का अर्थ तुम भी समझ जाओगे
”आओ रंग दें तुम्हें  इश्क  के रंग में।”

तिलक जी की एक ग़ज़ल हम कल भी सुन चुके हैँ, यह दूसरी ग़ज़ल है उनकी। मतला ही मानों श्रंगार रस से सराबोर होकर लिखा गया है। घनघोर श्रंगार का मतला। और अगला हुस्ने मतला भी प्रेम की अलग कहानी कह रहा है। सारे शहर किसी एक के रँग में रंग जाए तो क्या कहा जाए फिर। प्रेम से आध्यात्म की ओर जाता हुआ अगला शेर जिसमें श्याम के रंग में डूबी हुई राधिका से कवि पूछ रहा है कि क्या रखा है भला साँवले रंग में, उधो याद आ गए इस शेर को पढ़ कर।  हथेली पर हिना सजाती दुलहन की सोच कई अर्थ समेटे है आने वाले समय को लेकर अनिश्चितता के चलते। और अंतिम शेर में रास का अर्थ समझाने के लिए इश्क़ के रंग में रँगने का शेर ख़ूब बना है। बहुत सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह। 

rakesh khandelwal ji

राकेश खंडेलवाल

आई होली पे तरही नयी इस बरस
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
और मैं सोचता सोचता रह गया
भाई पंकज हैं डूबे लगा भंग में

कौन सी तुक है आई समझ में नहीं
आज टेपा यहाँ इश्क करने लगे
सूरतो हाल का रंग सारा उड़ा
और वे इश्क का रंग भरने लगे
अब तो नीरज के, पंकज के कुछ शेर ले
हम भी कह देंगे सब एक ही संग में
जब खुमारी उतर जायेगी, तब  कहें
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

इश्क की बोतलें आई गुजतात से ?
या कि गंगा किनारे सिलों पर घुटी
इश्क हम तब करेंगे हमें दें प्रथाम
चार तोले की लाकर के शिव की बुटी
पास में अपने कोई ना चारा बचा
आजकल जेब भी है जरा तंगमय
होलियों का चढ़े थोड़ा महुआ तो फ़िर
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

अपने माथे पे हमने तिलक कर लिया
और सौरभ रखा टेसुओं का निकट
सज्जनों को दिगम्बर करे होलिका
सामने आ खड़ी है समस्या विकट
अश्विनी हो गई उत्तराफ़ाल्गुनी
आज पारुल भी, गुरप्रीत भी दंग हैं 
और नुसरत ने ये मुस्कुरा कर कहा
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

राकेश जी का यह गीत हमारे ब्लॉग परिवार को ही समर्पित है। होली के रंग लेकर आए हैं वे सबको हास्य के रंग में सराबोर करने के लिए। यही शिष्ट और शालीन हास्य तो होली की विशेषता होती है कविता में। राकेश जी ने उस रंग से हम सबको सराबोर कर दिया है। मिसरा ए तरह से लेकर क़ाफिया तक सभी को लपेट लिए हैं राकेश जी। जोगीरा सारारारा की धुन पर राकेश जी ने नीरज जी, सौरभ जी, तिलक जी से लेकर युवाओं तक सभी को रँग में रंग दिया है। उनकी कलम से चली हुई पिचकारी ने किसी को भी नहीं छोड़ा है। सबके माथे पर प्रेम से चंदन मिश्रित गुलाल उन्होंने लगा दिया है। बहुत ही सुंदर गीत हम सब इसके रंग में रंग चुके हैं। बहुत ही भावपूर्ण और सुंदर गीत क्या बात है वाह वाह वाह।

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अश्विनी रमेश

चाँद तारों भरी महफिले रंग नें
”आओ रंग दें तुम्हें  इश्क  के रंग में।”

मद भरा ये समां नाचे झूमे यहां
रम गये हम यहाँ यों नये रंग में

रंग में रँग गये हम किसी के यहां
खो गये अब नयन  मदभरे रंग में

होली आयी रे आयी रे होली ए हो
रँग के इक दूजे को नाचो रे रंग में

छेड़ दो रागिनी प्रेम की आज तो
खो सके  सुरमयी  बावरे रंग में

दौलते हुस्न के रंग तो  कम चढ़े
रँग गये हम मगर  सांवले रंग में

माफ़ करना हमें हो गये मस्त हम
रँग गये इस कदर हम तिरे रंग में

अश्विन जी ने बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। पूरी ग़ज़ल होली के रंग में ही रँगी हुई है। होली के मूड को और ज़्यादा रंग में बढ़ाती हुई यह ग़ज़ल है। किसी के मदभरे रंग में रँग जाना ही तो होली होती है। मदभरे नयनों के रंग में जब कोई रंग जाता है तो उसके बाद ही तो होली होती है। होली में यही तो होता है कि हम एक दूसरे को रंग कर नाचते हैं गाते हैं और धमाल मचाते हैं। दौलते हुस्न के रंग हमेशा ही कम पड़ते हैं क्योंकि मन तो हमेशा ही साँवले रंग में रँगना चाहता है। यही तो असली रंग है। जो रंग मन पर चढ़ जाए वही असली रंग होता है जो तन पर चढ़ता है वह तो नकली रंग होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

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सुमित्रा शर्मा 

झूम हर तृण रहा फाग के रंग में    
बूटी ज्यों  घुल गई हो हरे रंग में

शीत में थीं विरह के जो धूसर हुईं
चाह बौरा गईं  फागुने  रंग में

छोड़ दो जोगिया और  वलकल  अभी  
आओ रंग दें तुम्हे इश्क के रंग में

ढाई आखर के रंग में जो डूब गया
रंग रहा वो हरेक दिन नए  रंग में

पास घर के तुम्हारे क्या पार्लर खुला
रोज़ तुम सज रही जो  नए  रंग में

रंग भरने की बिरियाँ वो कौली भरें
बेधड़क हो अनंग ज्यों घुले रंग में

केश चांदी हुए तो अलग रौनकें
गात उजला लगे इस पके रंग में

पार सरहद उड़े रंग ये इश्क का
जो न भीगे ज़मीं खून के रंग में

ये जुनूँ इश्क का इस क़दर तक बढ़े
सांस रँगने लगे सांवरे रंग में

वाह वाह क्‍या ही सुंदर ग़ज़ल कही है सुमित्रा जी ने आनंद ही ला दिया है । मतले में ही जो बात कही है कि किस प्रकार से फाग के रंग में हर तिनका झूम रहा है जैसे कोई भांग पी रखी हो। बहुत ही सुंदर। और गिरह का शेर तो शायद पूरे मुशायरे का सबसे ज़बरदस्‍त शेर बना है। जोगिया और वलकल को छोड़कर इश्‍क़ के रंग में रंगने की जो बात कही है वह बहुत ही ग़ज़ब कही गई है बहुत ही सुंदर। ढाई आखर के रंग में डूबने की बात भी अगले ही शेर में बहुत अच्‍छे से कही गई है। और यहां से अपने रंग में आते हुए हास्‍य का रस ग़ज़ल ने पकड़ लिया है घर के पास पार्लर का खुलना और रोज़ नए रंग में दिखना यह बहुत ही सुंदर प्रयोग है। अगले शेर में ग़ज़ल घनघोर श्रंगार में डूब जाती है रंग भरने की बिरियां वो कौली भरें, अहा आनंद ही आनंद और मिसरा सानी रहस्‍य को खोलता हुआ। फिर उसके बाद अगला शेर केश में चांदी घुल जाने के बाद भी उस रंग का आनंद ले रहा है पके रंग का आनंद उठा रहा है। अंतिम शेर भी श्रंगार के रंग को समेटे हुए बहुत ही खूब बन पड़ा है, सांस के सांवले रंग में रंगना वाह क्‍या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है क्‍या बात है वाह वाह वाह।

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अनिता 'तहज़ीब'

आई होली सभी रँग गये रंग में
हैं मुलाकातों के सिलसिले रंग में

सुब्ह आई सँवर सुनहरे रंग में
शाम घुलने लगी साँवरे रंग में

रंग अपना ज़रा घोल दे रंग में
देखूँ कैसी लगूँ मैं तेरे रंग में

रंग उतरे न ताउम्र इसका कभी
"आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में"

द्वार आँगन हँसी कहकहे गूँजते
रँग गया फ़ाग भी मसखरे रंग में

रंग ही रंग आयें नज़र हर तरफ़
रँग गई ज़ीस्त उम्मीद के रंग में

कोई जादू ही आता है शायद तुझे
अब मेरे रतजगे हैं तेरे रंग में

चाँदनी छा गई हर गली बाम पर
चाँद भीगा हुआ प्रीत के रंग में

लाल पीला हरा जामुनी चम्पई
भर गई हैं बहारें नये रंग में

एक झोंका हवा का मिला पत्तों से
छाँव सजने लगी धूप के रंग में

अनीता जी ने हमारे ब्लॉग परिवार के बारे में कहीं पढ़ा और बस वे आ गईं इस मुशायरे में शामिल होने। उनका चित्र नहीं मिला तो एक छोटी बिटिया का चित्र लगाया जा रहा है। मतला बहुत ही सुंदर है मुलाक़ातों के सिलसिले ही तो होते हैं जो किसी भी त्योहार को त्योहार बनाते हैं। अगले दोनों हुस्ने मतला भी सुंदर बन पड़े हैं सुबह का सुनहरे रंग में रँगना और शाम का साँवले रंग में डूबना, सुंदर चित्र है। और अगला हुस्ने मतला तो कमाल है किसी से अपना रंग रँग में घोलने की चाह ताकि उसमें स्वयं को रँग कर देखा जा सके, वाह क्या बात है। उसके बाद गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर शेर। एक और सुंदर शेर जिसमें ज़ीस्त का उम्मीद में रँग जाना और हर तरफ़ प्रेम ही प्रेम दिखाई देना चित्रित है। और एक शेर जिसमें जादू से रतजगे का रंग जाना बहुत ही कमाल का शेर है। सच में यही तो ग़ज़ल का शेर होता है। अंतिम शेर में भी बहुत नाज़ुक बात कही गई है जिसमें हवा के झोंके से पत्तों का मिलना और छाँव का धूप के रंग में रँगना। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है अनीता जी ने। वे इस ब्लॉग पर पहली बार आईं हैं उनका स्वागत है। बहुत सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वा​ह वाह वाह।

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मन्सूर अली हाश्मी

आज फिर आ गये हैं गधे रंग में
भाँग पी चल रहे हैं रँगे रंग में।

मार दें न दुलत्ती कि बचिये ज़रा
हैं गधे आज कुछ चुलबुले रंग में।

बच के रहना सखी आज होरी के दिन
रोड पर फिर रहे हैं गधे रंग में।

ए-ए करते हुए शब्द के सिर चढ़े
कैसे-कैसे मिले काफिये रंग में।

वोट के बदले मिलते यहाँ नोट हैं
अब गुलाबी, थे पहले हरे रंग में।

शब्द में, अर्थ में, गीत में, छन्द में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।

प्रीत में, रीत में, सुर में, संगीत में
गुन गुनाऊँ तुम्हें हर नये रंग में।

'हाश्मी'केसरी तो कन्हैया हरा
मित्रता से बने हैं सगे रंग में।

हाशमी जी हास्य रस की ग़ज़लें कहते हैं, यह उनका ही रंग है। मतला ही गधे को प्रतीक बना कर हास्य के माध्यम से मानसिकता पर व्यंग्य कस रहा है। बहुत ही अच्छा मतला। अगले ही शेर में एक चेतावनी सामने आ रही है जन साधारण को सूचित करते हुए। दुलत्ती से बचने की समझाइश देते हुए। और अगले शेर में सखी अपनी सखी को चेतावनी दे रही है कि बच के रहना आज सड़क पर गधे अपने रंग में फिर रहे हैं। अगले शेर में तरही मिसरा के क़ाफिये को ही लपेट लिया है शायर ने और ख़ूबी यह कि ए-ए की ध्वनि के साथ लपेटा है तो हमारे काफिये की भी ध्वनि है और गधे का भी यही स्वर होता है। वाह। वोट के बदले मिलते नोट में गुलाबी और हरे रंग का प्रयोग मिसरा सानी में बहुत ही सुंदर हुआ है, यह शेर बहुत कमाल का हुआ है। और गिरह का शेर जिस प्रकार एकदम रंग बदल लेता है वह चौंका देता है, जिन चीज़ों से रँगना चाहता है कवि वह बहुत सुंदर है। इसके ठीक बाद का शेर भी इसी प्रकार के भाव लिए हुए है। कितने तरीक़े से प्रेमी अपने महबूब को गुनगुनाना चाहता है। और मकते का शेर तो अंदर तक भिगो देता है। बहुत ही सुंदर भावना से भरा हुआ शेर। क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो आप सबको होली की शुभकामनाएँ। आपके जीवन में रंग रहें, उमंग रहे, उल्लास हो और जीवन ख़ुशियों से भरा रहे हमेशा। आप यूँ ही खिलखिलाते रहें, जगमगाते रहें। दाद देते रहें। और इंतज़ार करते रहें भभ्भड़ कवि भौंचक्के का।


हर त्यौहार का एक रंग वह भी होता है जिसे बासी रंग कहा जाता है, इस ब्लॉग पर बासी रंग और ज़्यादा खिलता है। आइए आज तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ बासी रंग मनाते हैं।

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होली का पर्व आया और चला भी गया हालाँकि हमारे इधर मालवा में तो अभी असली रंग का दिन रंग पंचमी बचा हुआ है। हमारे यहाँ होली पर तो नाम का रंग होता है असली तो रंग पंचमी ही होती है। और इस बार तो लग रहा है कि यहाँ ब्लॉग पर भी रंग पंचमी तक रंग चल ही जाएगा। बल्कि लगता है कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के की इण्ट्री तो शायद उसके भी बाद हो पाए। कुछ नए लोग जुड़ रहे हैं जो दौड़ते भागते रेल पकड़ रहे हैं। जो भी हो हमारा मक़सद तो यही है कि रचनाधर्मिता को बढ़ावा दिया जाए, जो भी हो, जैसे भी हो। असल तो रचनाधर्मिता ही होती है। तो आइए आज रंग भरे माहौल का और बढ़ाते हैं।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

मित्रो इस बार की ग़ज़लें बहुत परिपक्व ग़ज़लें हैं। और ऐसा हुआ है कुछ कठिन रदीफ और काफ़िये के कॉम्बिनेशन के कारण। यह सारी ग़ज़लें और गीत शिवना साहित्यिकी पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होंगे। और हाँ चूँकि पत्रिका त्रैमासिक है तो अब हमें साल में चार मुशायरे तो आयोजित करने ही होंगे। होली दीवाली तो होते ही हैं अब लगता है वर्षा और ग्रीष्म के मुशायरे भी आयोजित करने होंगे। आइए आज बासी होली मनाते हैं तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलकराज कपूर

शह्र डूबा कहूँ कौनसे रंग में
दिख रहे हैं सभी आपके रंग में।

रंग क्या है, समझने की चाहत है गर
सर से पा तक कभी डूबिये रंग में।

प्यास लगने पे अक्सर ही हमने पिये
अश्रु अपनी घुटन से भरे रंग में।

किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे कहो
जन्म जिनका हुआ और पले रंग में।

जब मुहब्बत में आगे निकल आये हम
दौर रुस्वाईयों के चले रंग में।

जो दिखा आँखों से बस वही तो कहा
ये खबर क्यूँ  छपी दूसरे रंग में ।

रंग नफ़रत का तुमसे उतर जायेगा
''आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।''

वाह वाह तिलक जी तो एक के बाद एक ग़ज़लें प्रस्तुत करते जा रहे हैं। पहले दो लग चुकी हैँ और अब यह तीसरी ग़ज़ल, क्या बात है। सच है जब सब के सब किसी एक ही रंग में रँग चुके हों तो यह कह पाना बड़ा मुश्किल होता है कि कौन किस रंग में रँगा है। रंग क्या है समझने की चाहत हेतु सर से पैर तक डूबने की सलाह बहुत ही सुंदर है। किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे भला में जन्म होना और पलना जो रंगों में कहा गया है वह बहुत ही गंभीर इशारा है। पत्रकारिता की ख़बर लेने वाला शेर जिसमें कहा गया है कि हमने तो कुछ और कहा था लेकिन छपा तो कुछ और है बहुत ही अच्छा शेर बना है। एक सुचिंतित टिप्पणी है यह आज की पत्रकारिता पर। और अंत में गिरह का शेर भी उतना ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

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डॉ. सुधीर त्यागी

क्या मिला तुमको नफ़रत भरे रंग में
आओ रँग दे तुम्हे इश्क के रंग में

ऐसी बस्ती बसे काश कोई, जहाँ
आदमी प्रेम के बस रँगे रंग में

अब नहीं हैं अमन के कबूतर यहाँ
सब रँगे केसरी या हरे रंग में

प्यार, मनुहार, तकरार सब हैं रखे
क्या पता तुम मिलो कौनसे रंग में

अब बचे कौन कातिल नज़र से यहाँ
घुल गई भंग जब हुस्न के रंग में

डॉ. सुधीर जी पहली बार हमारे मुशायरे में आ रहे हैं। दिल्ली के रहने वाले हैं और कविताएँ ग़ज़लें लिखने का शौक़ रखते हैं। पहली आमद है इसलिए तालियों से स्वागत आपका। मतला में ही गिरह को बाँधा गया है और बहुत अच्छे से बाँधा गया है। और अगले ही शेर में एक ऐसी बस्ती की कामना करना जहाँ पर हर आदमी बस और केवल बस प्रेम के ही रंग में रँगा हुआ हो। सचमुच ऐसी बस्ती की कामना तो हम सब रचनाकार करते हैं। अगला शेर जिसमें अमन के कबूतरों के माध्यम से हमारे झंडे के तीसरे रंग की बात कही गई है बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। प्यार, मनुहार, तकरार सब रखने की बात करने वाला शेर प्रेम की अंदर की कहानी कहता है, सच में हमें सारे रंग ही रखने होते हैं। और अंत में हास्य का तड़का लगाए शेर कि हुस्न के रंग में जब भंग घुल जाए तो उससे कौन बचेगा फिर।

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तो यह है आज की बासी होली। आप दाद देने का काम जारी रखिए क्योंकि दाद से ही भभ्भड़ कवि को आने की प्रेरणा मिलेगी। अभी शायद कुछ और बासी होली मने और उसके बाद करण अर्जुन की तर्ज़ पर भभ्भ्ड़ कवि आएँगे।

होली का मुशायरा अब अपने अंतिम पड़ाव तक आ पहुँचा है। आज तरही के समापन से ठीक पहले सुनते हैं पारुल सिंह जी, राकेश खण्डेलवाल जी और तिलकराज कपूर जी को।

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मित्रों इस बार का तरही मुशायरा बहुत ही आनंद में बीता है। एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें सामने आईं हैं। इन ग़ज़लों में कई तरह के रंग खिले और होली का एक पूरा माहौल इन ग़ज़लों में बन गया। अब हम धीरे धीरे समापन तक आ गए हैं। समापन हमेशा ही एक प्रकार का ख़ालीपन मन के अंदर पैदा करता है। मगर अभी तो एक अंक और आएगा जिसमें भकभौ आएँगे।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आइये आज होली के तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं। समापन के ठीक पहले सुनते हैं पारुल सिंह जी, राकेश खण्डेलवाल जी और तिलकराज कपूर जी को। और अंत में भभ्भड़ कवि को समापन करना है ऐसा हम मान कर चल ही रहे हैं। तो इसके बाद अब कोई ग़ज़ल नहीं भेजिए क्योंकि बस अगली पोस्ट अंतिम होगी जिसमें समापन होगा।

CHAHNE KI AADAT HAI V14 2

पारुल सिंह

शाम ढलने लगी लाल-से रंग में
जैसे आँचल किसी का उड़े रंग में

मैँ ग़ज़ल घोल लाई सजन चाँद में
आओ रँग दूँ तुम्हें इश्क़ के रंग में

चाँद ने बाहों में भर के पूछा मुझे
शर्म से गाल क्यूँ रँग गए रंग में

फागुनी रात ने चाँद से ये कहा
और मस्ती मिला, बावरे, रंग में

झम झमा झम झमकती फिरे ज़िंदगी
हो गई है धनक आपके रंग में

हैं ज़रा सा ख़फ़ा अब मना लो हमें
ये मिलन फिर सजे इक नए रंग में

शर्त है बात हक़ की ज़ुबाँ पर न हो
ढल गई है वफ़ा कौन से रंग में

दिल मिले साथ दिल के गले से लगा
केसरी घुल गया है हरे रंग में

बस गए धूप बन के नज़र में पिया
वस्ल ही वस्ल है अब खिले रंग में

शाम ढलने लगी लाल-से रंग में मतले में ही प्रकृति का बहुत सुंदर चित्र खींचा गया है। और उसके बाद गिरह का शेर भी हल्की सी तब्दीली के साथ बहुत ही सुंदर बना है। ग़ज़ल का चाँद में घोलना और उसके सजन का रँगना वाह क्या प्रतीक हैं। और अगले ही शेर में चाँद का बाहों में भरना भी और पूछना भी कि गाल क्यूँ रँग गए हैं, क्या बात है सुंदर। अगले शेर में एक बार फिर से चाँद है जिसे रात कह रही है कि और मस्ती मिला बावरे, वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर शेर है। और किसी के प्रेम में ज़िंदगी का धनक बन जाना और झमकते फिरना ग़ज़ब है। झमकना ही तो प्रेम का सबसे पहला लक्षण होता है।  हक़ की बात करने से मना किया जाता है तो उसमें वफ़ा सचमुच नहीं होती है। प्रेम में तो सब कुछ हक़ के दायरे में आ जाता है। और जब पिया धूप बन कर नज़र में बस जाएँ तो हर क्षण वस्ल का ही होता है और वह भी धूप के ​खिले रंग में। वाह वाह क्या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।  
TILAK RAJ KAPORR JI

तिलकराज कपूर

भांग को घोटते घोटते रंग में
क्‍या न क्‍या कह गये अधचढ़े रंग में।

टोलियों में चले मनचले रंग में
अजनबी भी मिले तो रंगे रंग में।

साल भर मेक-अप से पुते रंग में
कुछ मिटे रंग से, कुछ मिले रंग में।

रोग मधुमेह जबसे लगा मित्रवर
अब मिठाई न कोई चले रंग में।

एक उत्‍सव सराबोर है रंग से
फायदा मत उठा मुँहजले रंग में।

रंग इन पर चढ़ेगा न दूजा कोई
गोपियाँ हैं रँगी श्‍याम के रंग में।

टेसुओं से लदी डालियाँ कह रहीं
आईये, खेलिये, डूबिये रंग में।

सीख शाला से बच्‍चों ने हमसे कहा
खेलिये न रसायन भरे रंग में।

कुछ मुहब्‍बत मिलाकर गुलालों में हम
''आओ रंग दें तुम्‍हें इश्‍क़ के रंग में।''

तिलकराज जी ने होली के रंगों में रँगी यह ग़ज़ल कही है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। मतले में एक बारीक सी बात है, जिन लोगों ने भाँगा घोंटने वालों को देखा है वे इस बारीकी को समझेंगे कि उस समय घोंटने वाला अलग ही रंग में होता है, उस रंग को बहुत अच्छे से उठाया है मतले में। और साल भर जो मेकअप से पुतते हैं उनके लिए होली के क्या मायने भला ? उनकी तो साल भर ही होली होती है। मधुमेह का रोग अगले शेर में एक दुखती रग पर हाथ रख रहा है। गोपियों पर उद्धव ने बहुत रंग चढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन हार गए थे और कह दिया था कि रंग इन पर चढ़ेगा न दूजा कोई। टेसुओं से लदी डालियाँ सचमुच ही आमंत्रण देती हैँ कि होली आ गई है और होली होनी चाहिए। और अंत में मुहब्बत को गुलालों में मिला कर किसी को अपने इश्क़ के रंग में रँगने का आमंत्रण बहुत ही सुंदर। क्या बात है वाह वाह वाह।

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राकेश खण्डेलवाल

पन्चमी आ गई सतरँगे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

राह तकते हुये नैन थकने लगे
आयें भकभौ लिये फ़लसफ़े रंग में

आस! होली पे अब रहनुमाई रँगे
एक शफ़्फ़ाक से दूधिये रंग में

आई गज़लों की तहज़ीब हमको नहीं
फ़िर भी गज़लें कहें डूब के रंग में

रंग  इक जो चढ़े फिर न उतरे कभी
तरही आयेगी हर पल नये रंग में 
राकेश जी बहुत कम ग़ज़लें कहते हैं। इस बार भभ्भड़ कवि भौंचक्के को निमंत्रित करने हेतु उन्होंने भी ग़ज़ल कह ही दी है। और जब राकेश जी का निमंत्रण है तो भकभौ को आना ही होगा। रंग की पंचमी जो इधर मालवा अंचल में होती है वह सचमुच ही सतरँगे रंग् की होती है। और अगले ही शेर में भकभौ को पीले चावल देने राकेश जी सीधे वाशिंगटन डीसी से आ गए हैं। भकभौ पर अब दबाव बन चुका है पूरा। अगले शेर में देश की राजनीति को श्वेत रंग से रँगे जाने की एक ऐसी कामना जो हर देशवासी के मन में है। आमीन। इतनी अच्छी ग़ज़ल कहने वाले को ग़ज़ल की तहज़ीब नहीं आती यह कहना ही ग़लत है। और अंत में हमारे इस तरही मुशायरे की लिए एक प्रार्थना है कि यह होता रहे यूँ ही निरंतर। बहुत ही सुंदर कामना और बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। क्या बात है वाह वाह वाह।

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तो मित्रो यह हैं आज के तीनों रचनाकार और आपका वही काम कि आपको दाद देना है खुलकर। क्योंकि आपकी दाद ही भकभौं के लिए हौसला बढ़ाने का काम करेगी।

आज शीतला सप्तमी पर होली की आग का ठंडा करके होली के त्योहार का समापन होता है, तो अपनी अत्यंत ठंडी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के।

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मित्रों होली का मुशायरा बहुत ही अच्छा रहा। सबने ख़ूब कमाल की ग़ज़लें कहीं। और सबसे अच्छी बात तो यह रही कि क़फिये की परेशानी बताने वालों ने भी ग़ज़ब की ग़ज़लें कहीं। अब मुझे लगता है कि हम यहाँ पर और कठिन प्रयोग भी कर सकते हैं। आप सब जिस अपनेपन से आकर यहाँ पर महफ़िल सजाते हैं उसके लिए आप सबको लाखों लाख सलाम प्रणाम। असल में तो यह ब्लॉग है ही आप सबका, यह एक परिवार है जिसमें हम सब वार-त्योहार मिलते हैं एक साथ एकत्र होते हैं और ख़ुशियाँ मनाते हैं। अब अगला त्योहार ईद का आएगा जून में तो हम अगला त्योहार वही मनाएँगे। चूँकि हमें शिवना साहित्यिकी हेतु हर चौथे माह एक मुशायरा चाहिए ही तो हमें अब इस प्रकार से ही करना होगा। ईद इस बार जून के अंतिम सप्ताह में है तो हम पवित्र रमज़ान के माह में अपना मुशायरा प्रारंभ कर देंगे और ईद तक उसको जारी रखेंगे। जुलाई के अंक हेतु हमें ग़ज़लें प्राप्त हो जाएँगी।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आज भभ्भड़ कवि अपनी ठंडी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं ताकि बहुत अच्छी और गर्मा गर्म ग़ज़लों से रचनाकारों ने जो होली की आग भड़का रखी है वह शीतला सप्तमी के दिन ठंडी हो जाए। कुछ शेर भभ्भड़ कवि ने घोर श्रंगार में लिख दिये हैं होली के अवसर का लाभ उठाते हुए, आप इस बात पर उनकी ख़ूब लानत-मलानत कर सकते हैं। मित्रों इस बार का जो क़ाफिया था वह ज़रा सी असावधानी से मिसरे से असंबद्ध हो सकता था और भर्ती के क़ाफिये में बदल सकता था। भभ्भड़ कवि ने केवल यह देखने की कोशिश की है कि वह कौन से क़ाफिये हैं जो बिना असंबद्ध हुए उपयोग किए जा सकते हैं और किस प्रकार से उपयोग किये जा सकते हैं। इस बार का रदीफ़ बहुअर्थी रदीफ़ था। रंग शब्द के कई अर्थ होते हैं। पहला तो वही रंग मतलब एक वस्तु जैसे ‘लाल रंग’, दूसरा रंग रंगने की क्रिया जैसे ‘मुझे रँग दे’, तीसरा रंग एक अवसर जैसे ‘आज रंग है’, चौथा रंग एटीट्यूड में होना, फुल फार्म में होना, प्रतिभा का पूरा प्रदर्शन जैसे यह कि ‘आज तो वह पूरे रंग में है’, पाँचवा रंग होता है असर, किसी का असर, जैसे ‘मैं हमेशा उसके रंग में रहा’। इसलिए इस बार सबसे ज़्यादा प्रयोग करने के अवसर थे, और रचनाकारों ने किए भी। भभ्भड़ कवि ने अलग-अलग क़ाफियों के साथ अलग-अलग प्रयोग करने की टुच्ची-सी कोशिश की है। बहुत सारे शेर कह डाले हैं, कौन रोकने वाला है, उस्ताद कहा करते थे कि बेटा बुरा ही करना है तो ख़ूब सारा करो, गुंजाइश रहेगी कि उस ख़ूब सारे बुरे में एकाध कुछ अच्छा भी हो जाए। कुल 32 क़ाफियों का उपयोग इस ग़ज़ल में किया गया है। जो क़ाफिये असंबद्ध होने के ख़तरे से भरे थे उनको छोड़ दिया गया है। तो आइये इतनी अच्छी ग़ज़लों के बाद यह कड़वा किमाम का पान भी खा लिया जाए। तो लीजिए प्रस्तुत है भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल।

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भभ्भड़ कवि ‘भौंचक्के’

जिसको देखो वही है तेरे रंग में
कुछ तो है इस तेरे साँवले रंग में

इक दुपट्टा है बरसों से लहरा रहा
सारी यादें रँगी हैं हरे रंग में

दिल की अर्ज़ी पे भी ग़ौर फ़रमाइये
कह रहा है रँगो भी मेरे रंग में

रंग डाला था होली पे उसने कभी
आज तक हम हैं भीगे हुए रंग में

बस इसी डर से बोसे नहीं ले सके 
दाग़ पड़ जाएँगे चाँद-से रंग में

तुम भी रँगरेज़ी देखो हमारी ज़रा
"आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में"

जिस्म से रूह तक रंग चढ़ जाएगा
थोड़ा गहरे तो कुछ डूबिये रंग में

थक गया है सफ़ेदी को ढोते हुए
अब रँगो चाँद को दूसरे रंग में

आज रोको लबों की न आवारगी
बाद मुद्दत के आए हैं ये रंग में

ख़ूब बचते रहे रंग से अब तलक
सोलहवाँ जब लगा, आ गिरे रंग में

हम दिवानों की होली तो बस यूँ मनी
उनको देखा किये भीगते रंग में

इक दिवाना कहीं रोज़ बढ़ जाएगा
रोज़ निकलोगे गर यूँ नए रंग में

दिल को मासूम बच्चा न समझो, सुनो
तुमने देखा कहाँ है इसे रंग में

दोस्ती का जो करते थे दावा बहुत
एक सच जो कहा, आ गए रंग में

रिंद प्यासे हैं तब तक ही ख़ामोश हैं
थोड़ी मिल जाए तो आएँगे रंग में

उसके रँग में रँगे लौट आए हैं घर
घर से निकले थे रँगने उसे रंग में

उफ़ ! लबों की ये सुर्ख़ी, ये काजल ग़ज़ब !
आज रँगने चले हो किसे रंग में

शर्म से जो लरजते थे दिन में वही
रात को अपने असली दिखे रंग में

मन में कोंपल-सी फूटी प्रथम प्रेम की
कच्चे-कच्चे सुआपंखिये रंग में

वस्ल की शब बरसती रही चाँदनी
हम नहाते रहे दूधिये रंग में

तब समझना कि तुमको मुहब्बत हुई
मन जो रँगने लगे जोगिए रंग में

ज़ाफ़रान एक चुटकी है शायद मिली
इस तेरे चाँदनी से धुले रंग में

ज़िंदगी ने थी पहनाई वर्दी हरी
मौत ने रँग दिया गेरुए रंग में

आसमाँ, फूल, तितली, धनक, चाँदनी
है हर इक शै रँगी आपके रंग में

फिर कोई दूसरा रंग भाया नहीं
उम्र भर हम उसीके रहे रंग में

वस्ल की रात उसका वो कहना ये, उफ़ !
'आज रंग डालो अपने मुझे रंग में'

हैं कभी वो ख़फ़ा, तो कभी मेहरबाँ
हमने देखा नहीं तीसरे रंग में

आपका वक़्त है, कौन रोके भला
आप रँग डालें चाहे जिसे रंग में

कल की शब हाय महफ़िल में हम ही न थे
सुन रहे हैं के कल आप थे रंग में

रूह पर वस्ल का रँग चढ़े, हाँ मगर
जिस्म भी धीरे-धीरे घुले रंग में

है 'सुबीर'उम्र का भी तक़ाज़ा यही
ख़ुश्बुए इश्क़ भी अब मिले रंग में

तो मित्रों यह है भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल। दाद खाज खुजली जो कुछ भी आपको देना है आप उसके लिए स्वतंत्र हैं। सड़े अंडे, टमाटर आदि जो कुछ आपको देना है वह आप कोरियर भी भेज सकते हैं। भभ्भड़ कवि पूरे मन से उन सबको स्वीकार करेंगे। तो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। होली के मुशायरे का इसी के साथ समापन घोषित किया जाता है। भभ्भड़ कवि ने पूरे बत्तीस लोटे पानी डाल कर उस आग को बुझाया है जिसे आप लोगों ने मेहनत से सुलगाया था। तो मिलते हैं अगले मुशायरे में।

शिवना साहित्यिकी का अप्रैल-जून 2017 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है।

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मित्रों, संरक्षक तथा सलाहकार संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeer , कार्यकारी संपादक- शहरयार Shaharyarतथा सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का अप्रैल-जून 2017 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है। इस अंक में शामिल है संपादकीय, शहरयार। व्यंग्य चित्र -काजल कुमार Kajal Kumar। कविताएँ- तनवीर अंजुम Tanveer Anjum , वंदना मिश्र , जया जादवानी Jaya Jadwani। शख़्सियत - होता है शबोरोज़ तमाशा मिरे आगे, सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth। कहानी- नीला.....नहीं शीला आकाश, अमिय बिन्दु Amiya Bindu। फिल्म समीक्षा के बहाने- जौली एलएलबी, वीरेन्द्र जैन Virendra Jain। आवरण चित्र के बारे में....- गेंद वाला फोटो / पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi। ख़बर कथा एक थी सोफिया और बिखरे सपने , ब्रजेश राजपूत Brajesh Rajput। पुस्तक-आलोचना- उजली मुस्कुराहटों के बीच / डॉ. शिवानी गुप्ता विमलेश त्रिपाठी। पुस्तकें इन दिनों.... - छल / अचला नागर Achala Nagar , पकी जेठ का गुलमोहर / भगवान दास मोरवाल भगवानदास मोरवाल , भ्रष्टाचार के सैनिक / प्रेम जनमेजय। कथा-एकाग्र- शकील अहमद। समीक्षा- डॉ. सुशील त्रिवेदी / जलतरंग, माधुरी छेड़ा / गीली मिट्टी के रूपाकार। एक कहानी, एक पत्र.... Prem Bhardwajसुधा ओम ढींगरा। पड़ताल नया मीडिया : नया विश्व, नया परिवेश, डॉ. राकेश कुमार Rakesh Kumar। तरही मुशायरा ( Nusrat MehdiRajni Malhotra NayyarRakesh KhandelwalBhuwan NistejNirmal Sidhuधर्मेन्द्र कुमार सिंहDigamber Naswa @gurpreet singh @nakul gautam Dwijendra DwijGirish Pankaj @anshul tiwari Pawan Kumar IasNeeraj GoswamyTilak Raj Kapoor @anita tahzeeb @ Saurabh PandeyParul Singh @mustafa mahir Ashwini RameshMansoor Ali HashmiPankaj Subeer @sudheer tyagi Madhu Bhushan Sharma। आवरण चित्र- पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi - डिज़ायनिंग-सनी गोस्वामी Sunny Goswami
आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
ऑन लाइन पढ़ें

https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-april-june-2017-for-web
 https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_april_june_2017_fo

इस बार ईद के अवसर पर आयोजित होने वाले मुशायरे का तरही मिसरा

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मित्रों आप सबको पवित्र रमज़ान के महीने के आगमन की शुभकामनाएँ। इन दिनों बहुत व्यस्तता में घिरा हुआ हूँ। असल में ऑफिस के नवीनीकरण तथा विस्तार के कार्य के चलने के कारण कम्प्यूटर से लगभगग रिश्ता टूटा हुआ-सा है। मगर फिर भी आज ज़रा कुछ देर का समय निकाल कर ईद के अवसर पर आयोजित होने वाले तरही मुशायरे का मिसरा दे रहा हूँ। दिमाग़ बहुत उलझनों में घिरा है इसलिए हो सकता है कि इस बार का मिसरा आपको कुछ कमज़ोर लगे। लेकिन अब जैसा भी है उसी पर काम करना है।

इस बार बहर का चुनाव “बहरे हज़ज मुसमन मकफ़ूफ महज़ूफ” किया है। यह गाए जाने वाली बहर है जिसके अरकान कुछ इस प्रकार से हैं 221-1221-1221-122 मतलब मफऊलु-मफाईलु-मफाईलु-फऊलुन। यह बहुत गाई जाने वाली बहर है और इस पर कई फिल्मी गीत भी हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा’ या फिर ‘बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी’, आदि आदि। जैसा कि हम पहले ही कई बार बात कर चुके हैं कि यह वैसे तो बहुत लोकप्रिय बहर है लेकिन इसमें बहुत सावधानी के साथ कार्य करना होता है। ज़रा सी ग़लती से दूसरा या तीसरा रुक्न 1221 के स्थान पर 1212 या 2121 हो जाता है और अंतिम रुक्न भी 122 के स्थान पर 212 हो जाता है। चूँकि गाकर लिखी जाती है इसलिए इस अंतर का आपको पता भी नहीं चलता। इसकी एक हमशक्ल बहर है “बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफ़ूफ महज़ूफ” जिसके अरकान हैं 221-2121-1221-212 इसलिए होता अक्सर है कि दोनों बहरों के रुक्न एक दूसरे में मिल जाते हैं। गाते समय इसका पता ही नहीं चलता। जैसे हम दो गानों को देखते हैं पहला तो जो हमने ऊपर लिया “बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी” और दूसरा “मिलती है ज़िंदगी में मुहब्बत कभी कभी”। ये दोनों गाने आप अगर गुनगुना के देखेंगे तो दोनों एक ही धुन पर लगेंगे, लेकिन वास्तव में यह दोनों ही अलग अलग बहरों पर हैं। पहला बहरे हज़ज पर है तो दूसरा बहरे मुजारे पर है। बस यही सावधानी आपको रखनी होगी कि दोनो एक दूसरे में घुल मिल न जाएँ।

तो इस बार ईद के अवसर पर आयोजित होने वाले मुशायरे का तरही मिसरा है

कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक

कह-ती-है 221 (है को गिराया गया है)

ये-ख़ुशि-यों-की 1221 (ये और की को गिराया गया है)

स-हर-ई-द 1221

मु-बा-रक 122

इस बार रदीफ़ ईद मुबारक है और सहर शब्द में का​फिया की ध्वनि है मतलब जो अर की ध्वनि है वही हमारे का​फिया की ध्वनि है। कुछ कठिन ज़रूर है क्योंकि एक तो  का​फिया कुछ उलझन भरा है और उस पर ज़रा सी चूक से वह रदीफ के साथ अपने संबंध तोड़ भी सकता है। बहर तो मुश्किल भरी है ही।

जैसा कि आपको पता है कि यह मुशायरा शिवना साहित्यिकी पत्रिका में प्रकाशित भी होगा। जुलाई अंक में इस को लिया जाएगा। ईद के कुछ दिनों पूर्व हम इस मुशायरे का आयोजन यहाँ ब्लॉग पर प्रारंभ कर देंगे। तो लग जाइए काम पर और तैयार कीजिए ईद के अवसर पर सुनाई जाने वाली ग़ज़ल। तब तक नमस्कार। 

मुशायरा आज से शुरू कर रहे हैं, क्योंकि ग़ज़लें अधिकांश कल ही प्राप्त हुई हैं। तो आइये आज से हम ईद मनाना शुरू करते हैं यहाँ। और आज दिगंबर नासव तथा नुसरत मेहदी जी की ग़ज़लों के साथ मनाते हैं ईद।

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ब्लॉग परिवार के सभी सदस्यों को ईद मुबारक, ईद मुबारक, ईद मुबारक।

मित्रों इस बार ईद के मुशायरे का मिसरा कुछ कठिन तो था यह तो ज्ञात था लेकिन इतना कठिन हो जाएगा कि ईद के एक दिन पूर्व तक भी ग़ज़लें नहीं के बराबर आएँगी यह पता नहीं था। इसी कारण ईद का त्यौहार अब हम बासी ही मनाएँगे। अच्छा भी है कम से कम कुछ दिनों तक और त्यौहार का माहौल बना रहेगा। जिंदगी में और उसके अलावा है भी क्या। जो भी पल हम खुशी में जी लेते हैं वही जिंदगी की असली पल होते हैं। बाकी तो हम सबने अपनी जिंदगी को इतना कठिन बना लिया है कि हम खुश होना ही भूलते जा रहे हैं। त्यौहारों पर हम खुश होते हैं और उसके बाद फिर जिंदगी पुराने ढर्रे पर आ जाती है।

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आइये आज से हम ईद का तरही मुशायरा शुरू करते हैं। और मनाते हैं ईद का त्यौहार हिलमिल कर।

कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक

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दिगंबर नासवा

रमजान में लौटेंगे वो घर, ईद मुबारक
सरहद से अभी आई खबर, ईद मुबारक

मुखड़ा है मेरे चाँद का, है चाँद की आमद
अब जो भी हो सबको हो मगर, ईद मुबरक

देखेंगे तो वो इश्क ही महसूस करेंगे
वो देख के बोलें तो इधर, ईद मुबारक

साजिश ने हवाओं की जो पर्दा है उड़ाया
आया है मुझे चाँद नज़र, ईद मुबारक

इंसान ही इंसान का दुश्मन जो बनेगा
तब किसको कहेगा ये शहर, ईद मुबारक

लो बीत गए दर्द की परछाई के साए
कहती है ये खुशियों की सहर, ईद मुबारक

वाह क्या बात है मतले में ही उन लोगों के लौटने के संकेत मिल रहे हैं जो अपने घर से साल भर दूर रहे और अब ईद के त्यौहार पर अपने घर लौट रहे हैं। सरहद से खबर आई है और ईद मन गई है। मुखड़ा है मेरे चांद का, है चांद की आमद, वाह वाह क्या मिसरा गढ़ा है। खूब। और अगले शेर में मासूमियत के साथ कहना कि वो देख के बोलें तो इधर ईद मुबारक। वाह सच बात है कि किसी के देखने और उसके ईद मुबारक कहने से ही तो ईद होती है। और साजिश से हवाओं की परदे का उड़ना और उसके बाद ईद मन जाना वाह क्या बात है। ग़ज़ब। और अंत के शेर में बहुत सुंदर तरीके से गिरह बांधी है। वाह वाह वाह क्या सुंदर ग़ज़ल खूब।

nusrat mehdi

नुसरत मेहदी

रक़सां हैं दुआओं के शजर ईद मुबारक
हैं नग़मासरा बर्ग ओ समर, ईद मुबारक

हर सम्त फ़ज़ाओं में उड़ाती हुई ख़ुशबू
"कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक"

लो फिर से महकने लगीं उम्मीद की कलियां
खुलने लगे इमकान के दर, ईद मुबारक

कुछ लोग हैं लेकिन पसे दीवारे अना भी
जा कह दे सबा जाके उधर ईद मुबारक

ये तय है कि हम ईद मनाने के नहीं हैं
मिलकर न कहा तुमने अगर ईद मुबारक

जो प्यास के दरिया में भी सेराब थे 'नुसरत'
दामन में हैं अब उनके गुहर ईद मुबारक

बात तीसरे शेर से ही शुरू की जाए पहले, कुछ लोग हैँ लेकिन पसे दीवार अना भी में मिसरा सानी घप्प से कलेजे में आकर कटार की तरह बैठ जाता है। जा कह दे सबा जाके उधर ईद मुबारक। कमाल कमाल क्या सुंदर और मासूम मिसरा है। वाह। मतला बहुत ही खूब बना है रकसां हैं दुआओं के शजर ईद मुबारक और मिसरा सानी ने मिलकर मानों ईद का एक पूरा चित्र ही बना दिया है। पहले ही शेर में बहुत ही सुंदर तरीके से गिरह बांधी है। गिरह बांधने में बहुत नफासत का उपयोग किया गया है। और अगले ही शेर में इमकान के दर खुलने का चित्र भी बहुत ही सुंदर तरह से बनाया गया है। और एक और आहा और वाह वहा टाइप का शेर है ये तय है कि हम ईद मनाने के नहीं हैं में मिसरा सानी मोहित कर ले रहा है मिलकर न कहा तुमने अगर ईद मुबारक। और मकते का शेर सब के जीवन में ईद के त्यौहार द्वारा बिखेरी गई खुशियों की बात कर रहा है। सच में यही तो त्यौहार होता है जो सबके जीवन में रंग और नूर ले आता है। वाह वाह वाह क्या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

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तो मित्रों ये हैं आज के दोनों शायर। इन कमाल की ग़ज़लों पर दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का। सबको ईद मुबारक।

ईद का यह तरही मुशायरा कुछ विलंब से प्रारंभ हुआ है तो आइये आज सौरभ पाण्डेय जी और निर्मल सिद्धू जी के साथ मनाते हैं ईद का यह त्यौहार।

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मित्रों कुछ कारणों से मन बहुत व्य​थित है, लेकिन बस यह लगता है कि आने वाला समय हो सकता है इन सब नफरतों को समाप्त कर दे। जो कांटे हमारी सुंदर बगिया में पैदा हो गए हैं समय की तेज हवा शायद उनको हटा दे। असल में इन्सान की आदत है कि वह कम से कम एक अवस्था में तो रहना चाहता ही है। या तो प्रेम की अवस्था या नफरत की अवस्था। यदि आप उसे प्रेम की अवस्था में रखेंगे तो वह नफरत की अवस्था में नहीं जाएगा लेकिन यदि आपने उसे प्रेम की अवस्था में नहीं रखा तो वह नफरत की अवस्था में जाएगा ही जाएगा यह तय है। इन दिनों हमारे साथ भी यही हो रहा है। हमने अपने आास पास से प्रेम को लगभग समाप्त ही कर दिया है और यही कारण है कि कमोबेश हर कोई अब नफरत की अवस्था में है। यह नफरत आज अपनी चरम सीमा पर है। लेकिन अभी भी मुझे लगता है कि हर बुरे समय में कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसे होते हैं जो अपने समय को ठीक करने का माद्दा रखते हैं। और हमें उन ही लोगों में शामिल रहना है। घबराइये मत, डरिए मत, दुनिया में जब भी अँधेरे ने ऐसा माहौल बनाया है कि अब उसका ही साम्राज्य होगा तब तब कोई उजाले का दूत, फरिश्ता सामने आया है। तो हम सब भी उजालों के पक्ष में खड़े हैं और हमें इस पक्ष में खड़े ही रहना है यह तय कीजिए।

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कल की दोनों ग़ज़लें बहुत शानदार थीं और दोनों ही ग़ज़लों ने इब्तिदा का रंग खूब जमाया। ईद का त्यौहार जैसा कि सौरभ जी ने अपने एक कमेंट में कहा कि यह तो महीने भर मनाया जाने वाला त्यौहार है तो हम आने वाले समय में इसे मनाते रहेंगे। आइये आज सौरभ पाण्डेय जी और निर्मल सिद्धू जी के साथ ईद के त्यौहार का यह जश्न आगे बढ़ाते हैं।

कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक

saurabh ji - Copy

सौरभ पाण्डेय

पिस्तौल-तमंचे से ज़बर ईद मुबारक़
इन्सान पे रहमत का असर ईद मुबारक़

पास आए मेरे और जो ’आदाब’ सुना मैं
मेरे लिए अब आठों पहर ईद मुबारक़

हर वक़्त निग़ाहें टिकी रहती हैं उसी दर
पर्दे में उधर चाँद, इधर ईद मुबारक़ !

जिस दौर में इन्सान को इन्सान डराये
उस दौर में बनती है ख़बर, ’ईद मुबारक़’ !

जब धान उगा कर मिले सल्फ़ास की पुड़िया
समझो अभी रमज़ान है, पर ईद मुबारक़ !

इन्सान की इज़्ज़त भी न इन्सान करे तो
फिर कैसे कहे कोई अधर ईद मुबारक़ ?

भइ, आप हैं मालिक तो कहाँ आपसे तुलना
कह उठती है रह-रह के कमर.. ईद मुबारक़ !

तू ढीठ है बहका हुआ, मालूम है, लेकिन
सुन प्यार से.. बकवास न कर.. ’ईद मुबारक़’ !

जो बीत गयी रात थी, ’सौरभ’ उठो फिर से 
कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक

बहुत ही अच्छे मतले के साथ सौरभ जी ने ग़ज़ल की शुरुआत की है। पिस्तौल तमंचे से ज़बर ईद मुबारक और अगले मिसरे में रहमत का असर बहुत खूब बना है। प्रेम तो ईद का स्थायी भाव है किसी के आदाब कहते ही आठों पहर ईद हो जाना यही तो प्रेम है। प्रेम में रहो तो हर दिन ईद का ही दिन है। और अगले ही शेर में कहीं पर निगाहें टिका कर परदे में छिपे चाँद को देखने की इच्छा रखना बहुत ही सुंदर भाव है शेर में।  और अगले ही शेर में उसी चिंता की बात है जिस चिंता का ज़िक्र मैंने आज शुरूआत में किया है। सच में जिस दौर में इंसान को इंसान ही डराता है उस दौर में ईद मुबारक भी एक खबर ही तो होती है। और इंसान की यदि इंसान ही इज़्ज़त न कर रहा हो तो भला कैसे कोई कह सकता है ईद मुबारक। बहुत ही सामयिक चिंताओं से भरे शेर। किसानों के फाके और रोज़े से भरी जिंदगी का शेर भी बहुत अच्छा है। मकते में गिरह को बहुत ही सुंदर तरीके से बाँधा है सौरभ जी ने। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

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निर्मल सिद्धू

सब उसका करम उसकी मेहर ईद मुबारक
हर शय का है पैग़ामे-नज़र ईद मुबारक

फूलों ने दिया कलियों को जो ईद का तुहफ़ा
मख़मूर हुये गाँव-नगर ईद मुबारक

जन्नत का संदेशा, है दिया चाँद ने शब को
कहती है ये ख़ुशियों की सहर ईद मुबारक

नफ़रत को मिटा कर ये मुहब्बत को बसा दे
ऐसा जो कहीं कर दे असर, ईद मुबारक

तस्वीर संवर जायेगी उस पल ही जहां की
निकले जो दुआ बनके अगर ईद मुबारक

‘ निर्मल ’ भी हुआ आज तो मस्ती में दिवाना
जब उसने कहा जाने-जिगर ईद मुबारक

वाह वाह क्या खूब ग़ज़ल कही है निर्मल जी ने। मतले में ही ऊपर वाले के प्रति शुक्रिया जताने का जो अंदाज़ है वो बहुत ही सुंदर है। सच में हम सब यदि प्रेम सीख जाएँ तो हर दिन,हर शय का पैगाम ईद मुबारक ही होगा। जन्नत का संदेशा जो चांद ने दिया रात को और उसके बाद की सुबह मे ईद मुबारक का संदेश चारों तरफ फैलना बहुत ही सुंदर चित्र बनाया है शब्दों से। और अगले ही शेर में हम सबकी दुआ को स्वर मिलते हैं कि नफरत को मिटा कर हर तरफ यदि मुहब्बत को बसा दिया जाए तो उससे अच्छी ईद और कोई हो ही नहीं सकती। सचमुच इस दुनिया की तस्वीर उसी पल सँवर जाए यदि हम सबके होंठों पर दुआओं के रूप में प्रार्थना आ जाए। यह दुनिया अब यही चाहती है। और मकते के शेर में प्रेम को बहुत सुंदर ढंग से पिरो दिया है। बहुत ही अच्छे से काफिया निभाया गया है। मुझे लगता है कि यह  काफिया बाँधने का बहुत खूब उदाहरण है। का​फिया वाक्य का हिस्सा ही बन गया है। खूब। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।

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तो यह हैं आज के दोनों शायर जिन्होंने बहुत ही सुंदर ग़ज़लें कही हैं। कमाल के शेर दोनों ने निकाले हैं। आपका काम है कि आप इन कमाल के शेरों पर दाद दीजिए और खुल कर दाद दीजिए। मिलते हैँ अगले अंक में। ईद मुबारक।


ईद का त्यौहार हमारे मोहल्ले में अभी भी मनाया जा रहा है आज तिलकराज कपूर जी, गिरीश पंकज जी और डॉ. सुधीर त्यागी जी के साथ हम चलते हैं ईद की धूम में।

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ईद का त्यौहार इसी सप्ताह आया और चला गया। लेकिन हम अभी भी उसके आनंद में डूबे हुए हैं। हमारे लिए तो ईद अभी भी चल रही है। हमारे मोहल्ले में ईद का त्यौहार अभी भी मनाया जा रहा है। असल में हम लोग ज़रा पुराने किस्म के लोग हैं हमारे लिए त्यौहार एक दस दिन तक चलने वाला उत्सव होता है। कम से कम दस से पन्द्रह दिनों तक नहीं मने तो वह त्यौहार ही कैसा। हम दीपावली को देव प्रबोधिनी एकादशी तक मनाते हैं, क्रिसमस को एक जनवरी तक मनाते हैं तो फिर ईद को क्यों नहीं। त्यौहार एक मनोदशा है जिसमें हम केवल आनंद ही तलाशते हैं। तो आइये आज भी हम इसी आनंद की खोज में निकलते हैं ईद के बहाने से।

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कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक

आज हम तीन शायरों के साथ तरही के क्रम को आगे बढ़ा रहे हैं। तिलकराज कपूर जी, गिरीश पंकज जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ हम ईद का आनंद मना रहे हैं।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर

माँ तेरी दुआओं का असर "ईद मुबारक"
हैं दूर बहुत मुझसे ख़तर - ईद मुबारक

किस चाँद पे किसका है असर "ईद मुबारक"
पूछा तो ये कहती है सहर - ईद मुबारक़

अल्लाह की बंदों पे नज़र "ईद मुबारक"
आसान करे सबका सफ़र "ईद मुबारक"

दहकां तेरी मुश्किल नहीं समझेगा ज़माना
है भूख इधर और उधर "ईद मुबारक"

हर मोड़ पे कुछ प्रश्न खड़े रोक रहे थे
मुमकिन हुआ फिर भी ये सफ़र - ईद मुबारक

जो सुब्ह का भूला हुआ घर छोड़ गया था
आया है वही लौट के घर - ईद मुबारक

प्रश्नों की क़तारों में खड़ी भीड़ को देखो
मिलती है जिसे बनके सिफ़र "ईद मुबारक"

इक बार सभी दर्द भुलाकर उन्हें कहदे
"खुशियों से भरे आपका घर" - ईद मुबारक

कोशिश तो बहुत है कि कभी उनसे कहूं मैं
"हम पर हो इनायत की नज़र" - ईद मुबारक

पूरब में दिखा चाँद ये ऐलान हुआ है
जाते हैं भला आप किधर - ईद मुबारक

आग़ोश में इक ख़्वाब भरे सोच रहा हूँ
वो चांद कहे देख क़मर - ईद मुबारक

हम राह के काँटों को हटा उनसे कहेंगे
अब तुमको मुबारक हो डगर - ईद मुबारक

तन्हाई में डूबे हुए इंसा के लिए है
बीते हुए लम्हों का सफ़र "ईद मुबारक"

तिलक जी हर बार अपने शेरों से महफिल में चार चाँद लगा देते हैं। इस बार भी उन्होंने मतले में ही माँ की दुआओं के साथ शुरूआत की है। सच में माँ की दुआएँ साथ हों तो हर दुख हर गम दूर ही रहता है। जो सुब्ह का भूला हुआ घर छोड़ गया था में मिसरा सानी बहुत उम्दा बना है किसी के लौट के घर आ जाने पर सबकी ईद हो जाती है। किसी से बिछड़ कर भला कैसे ईद मन सकती है। और अगले शेर में प्रश्नों की कतारों में खड़ी भीड़ जिसे सिफर बन कर ईद मिल रही है उसका दर्द भी बहुत अच्छे से अभिव्यक्त हुआ है। बहुत खूब। अगले दोनों शेरों में दो वाक्यों को बहुत खूबी के साथ मिसरे में गूँथा गया है। खुशियों से भरे आपका घर और हम पर हो इनायत की नज़र ये दोनों वाक्य बहुत ही सुंदरता के साथ मिसरे में गूँथे गए हैं। बहुत ही सुंदर प्रयोग। पूरब में चाँद के दिखने के साथ हुआ ऐलान बहुत खूब है। अगले दोनों शेर प्रेम के शेर हैं। चाँद का क़मर को देख कर ईद मुबाकर कहना, वाह और हम राह के काँटों को हटा उनसे कहेंगे बहुत ही सुंदर प्रयोग। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

girish pankaj

गिरीश पंकज

खुशहाल रहे आपका दर ईद मुबारक
"कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक"

हिद्दत सही रमजान में दय्यान के लिए
महका रहा है तुमको इतर ईद मुबारक
(दय्यान - स्वर्ग का वो दरवाज़ा जो रोजेदारों के लिए खुलता है)

तुमको नहीं देखा है ज़माने से दोस्तो
इस बार तो आना मेरे घर ईद मुबारक

अल्लाह ने बख्शी है हमें एक ये नेमत
मिलजुल के ज़िन्दगी हो बसर ईद मुबारक

छोटा - बड़ा है कोई नहीं सब हैं बराबर
रमजान दे रहा है ख़बर ईद मुबारक

गिरीश पंकज जी की ग़ज़ल हर मुशायरे में सबसे पहले प्राप्त होती है और इस बार भी ऐसा ही हुआ। मतले में ही गिरह को बहुत कमाल के साथ लगाया गया है। खुशहाल रहे आपका दर और उसके बाद गिरह का मिसरा बहुत सुंदर। अगला शेर रवायती शेर का एक बहुत ही खूबसूरत उदाहरण है। ईश की इबादत और उसके बाद खुलने वाला स्वर्ग का दरवाज़ा जिसके कारण रोज़ेदार इतर से महक रहा है। बहुत सुंदर। अगला शेर गहरे ​अर्थ की बात कह रहा है। इन दिनों जो कुछ हवाओं में फैला हुआ है उसकी और इशारा कर रहा है यह शेर। और अगला शेर एक दुआ है, एक प्रार्थना है, एक सीख है जो हम सबके लिए है। अंतिम शेर में सब के बराबर होने सबके इन्सान होने और  मिल जुल कर जीने की जो बात कही गई है वो सारी दुनिया को समझने की ज़रूरत है। बहुत सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

sudhir tyagi

डॉ. सुधीर त्यागी

खुशहाल हो हर एक बशर ईद मुबारक।
बख्शे खुदा रहमत की नज़र ईद मुबारक।

दुश्मन भी अगर हो तो गले उसको लगा ले।
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।

कुछ लोग जो भटके हुए हैं राहे नबी से।
उनको भी चलो कह दें मगर ईद मुबारक।

कल छत पे मेरी चाँद लगा आ के टहलने,
और हँस के कहा जाने जिगर ईद मुबारक।

मिलने से गले पहले ज़रा आँख मिलाओ।
कहने का ज़रा सीखो हुनर ईद मुबारक।

इस बार गले लगने में दोनों को झिझक है।
सोलहवें बरस का है असर ईद मुबारक।

मतला एक दुआ के साथ खुलता है और दुनिया के हर इन्सान के लिए खुदा से खुशियों की और रहमत की माँग करता है। सच में त्यौहार का यही तो मतलब है कि हम सब एक स्वर में सभी के लिए खुशियों की माँग करें। अगले शेर में दुश्मन को भी गले लगाकर ईद के असली संदेश प्रेम को फैलाने की बात कह कर गिरह को लगाया गया है जो बहुत सुंदर बन पड़ा है। राहे नबी से भटके हुए लोगों को भी ईद मुबारक कहना और उनको भी अमन की राह पर लाने की बात करना ही तो असली ईद है। जाने जिगर काफिया इस मिसरे पर सबसे सटीक काफिया है जिसे बहुत सुंदर तरीके से सुधीर जी ने लगाया है। चाँद का छत पर टहलना और हंस के कहना वाह क्या बात है। और अगला शेर जिसमें मिलने से पहले आँख मिलाने का हुनर सीखने की नसीहत है बहुत ही सुंदर है। अंतिम शेर हम सबके जीवन की कहानी है मानों, बचपन से लेकर किशोरावस्था तक का साथा अचानक अजनबी क्यों बना देता है सोलहवें तक आते आते, क्यों ऐसा हो जाता है। यह झिझक ही सारी कहानी कह रही है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो यह हैं आज की तीनों शानदार ग़ज़लें। तीनों शायरों ने कमाल के प्रयोग किये हैं। अब आपको भी टिप्प्णियों में कमाल करना है, यदि आपके पास समय हो तो। क्योंकि इन दिनों लगता है कि आपके पास बहुत व्यस्तता है। खैर मिलते हैं अगले अंक में।

आइये आज हम ईद के मुशायरे का समापन करते हैं चार रचनाकारों के साथ शेख चिल्ली जी, बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी, महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ जी और राकेश खंडेलवाल जी की रचनाओं के साथ हम ईद की दुआओं में विश्व शांति की कामना करते हैं।

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मित्रों चूँकि त्यौहार के बाद उसके मनाए जाने की एक सीमा होती है। और उसके बाद हमें अपने अपने कार्यों पर लौटना ही होता है। इसीलिए आज हम ईद के मुशायरे का समापन कर रहे हैं। हालांकि अपेक्षाकृत रूप से कम ग़ज़लें आईं इस बार लेकिन उसके पीछे मेरे विचार में बहर का मुश्किल होना और रदीफ काफिये के कॉमिब्नेशन का भी कुछ उलझन भरा होना एक कारण है। लेकिन एक बात तो है कि जो ग़ज़लें आईं वो बहुत अच्छी आईं। बहुत ही अच्छे प्रयोग शायरों ने किये। और एक अच्छी बात ये भी हुई है कि ईद मुबारक को लेकर सबके पास अच्छी ग़ज़लें भी हो गईं हैं। ईद के मुबारक मौके पर यदि आपको किसी मुशायरे में शिरकत करने जाना हो तो ये खूबसूरत ग़ज़ल आपके काम आएगी।

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आइये आज हम ईद के मुशायरे का समापन करते हैं चार रचनाकारों के साथ शेख चिल्ली जी, बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी, महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ जी और राकेश खंडेलवाल जी की रचनाओं के साथ हम ईद की दुआओं में विश्व शांति की कामना करते हैं।

कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक

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शेख़ चिल्ली

सावन की झड़ी लायी ख़बर ईद मुबारक़
हो काश दुआओं में असर, ईद मुबारक

सलफास निगल कर भी वो बोला, मेरे बच्चों
रखना मेरे खेतों पे नज़र, ईद मुबारक़

मायूस खड़े काकभगोड़े ने बताया
कह कर था गया मुझ से बशर "ईद मुबारक़"

सुनकर ये टपकती हुई छत फूट के रोई,
चलता हूँ मैं लम्बा है सफ़र, ईद मुबारक़

क्रिसमस न, दीवाली न तो होली न गुरुपर्व
मज़दूर की किस्मत में किधर ईद मुबारक़

सरकार की नीयत पे लगे दाग धुलेंगे
हो जाय किसानों की अगर ईद मुबारक़

बक़वास है, सौ फ़ीसदी झूटी ये ख़बर है
कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक?

मतले में सकारात्मक नोट के साथ शुरू होकर पूरी ग़ज़ल व्यथा की कहानी कहती हुई एक लगभग मुसलसल ग़ज़ल है। जिसमें किसान और मजदूर की कहानी को आँसुओं से लिखा गया है। पहला ही शेर कलेजे को चीर कर उतर गया। मेरे जिले में पिछले पन्द्रह दिनों में बीस के लगभग किसान आत्म हत्या कर चुके हैं। और मिसरा सानी जैसा हूबहू एक वाकया हुआ भी है। एक किसान ने सल्फास खाकर अपने बच्चों से यही कहा था। उफ़्फ। और उसके बाद काकभगोड़े का दृश्य भी उसी कहानी को आगे बढ़ाता है। घर की टूटी हुई छत अपने मालिक को लम्बे सफ़र पर जाते हुए देख कर रो रही है बहुत ही मार्मिक दृश्य बन पड़ा है। अकाल में उत्सव लिखने वाले लेखक के लिए यह दृश्य कैसा होगा आप समझ सकते हैं। और यह भी सच है कि मजदूर के किस्मत में कोई त्यौहार नहीं होता। आखिरी शेर में जिस अंदाज़ में गिरह लगाई है वो अंदाज़ सबसे हट के है। सच में जो सबसे हट कर करे वो ही तो देर तक याद रहता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

basudev agrwal

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक,
खुशियों का ये दे सबको असर ईद मुबारक।

घुल आज फ़िज़ा में हैं गये रंग नये से,
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।

पाँवों से ले सर तक है धवल आज नज़ारा,
दे कर के दुआ कहता है हर ईद मुबारक।

सब भेद भुला ईद गले लग के मनायें,
ये पर्व रहे जग में अमर ईद मुबारक।

ये ईद है त्योहार मिलापों का अनोखा,
दूँ सब को 'नमन'आज मैं कर ईद मुबारक।

बासुदेव जी ने ईद की पारंपरिक ग़ज़ल बहुत सलीक़े के साथ कही है। पाँवों से से ले सर तक है धवल आज नज़ारा में मानों ईदगाह का दृश्य ही सामने आ गया है जहाँ श्वेत परिधान पहने रोज़ेदार रमज़ान के समापन पर नमाज़ अदा कर रहे हैं। कितनी शांति होती है इस दृश्य में। श्वेत रंग वैसे भी शांति का प्रतीक है उसमें एक प्रकार की शीतलता होती है। सब भेद भुला कर ईद मनाने की बात और ईद के त्यौहार को अमर करने की बात बहुत अच्छे ढंग से कही गई है। मकते का शेर भी अच्छा बना है सच में ये त्यौहार मिलने मिलाने का ही तो त्यौहार है। इसमें बस एक ही काम करना चाहिए कि खूब मिलना मिलाना चाहिए। सबसे हँस कर मिलना ही तो ईद है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात वाह वाह वाह।

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महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक
है झूम उठा सारा शहर, ईद मुबारक

दो दोस्तियों का सदा पैग़ाम सभी को
मन में न रहे आज ज़हर, ईद मुबारक

दिल खोल के बाँटें सिवैयाँ, शौक अजब है
उल्फ़त की उठी दिल में लहर, ईद मुबारक

आया है हसीं वक़्त मेरे दोस्त ज़रा सुन
कुछ देर अभी और ठहर, ईद मुबारक

रंगीन नज़ारों में ख़लिश रब न भुलाना
कर लो जो इबादत दो पहर, ईद मुबारक.

खलिश जी ने छोटी लेकिन सुंदर ग़ज़ल कही है। दिल खोल के बाँटे सिवैयाँ शौक अजब है में उल्फत की दिल में उठी लहर की बात ही अलग है। सच में ये त्यौहार यही तो बताता है कि मेहमान को घर में बुला कर उसकी खातिर करो। उसका आपके घर आना आपकी बरकत में इज़ाफा होना ही है। कहते हैं खुदा आपसे खुश होता है तो आपके घर मेहमान भेजता है। और अगले शेर में प्रेम की भावना का वही चिरंतन भाव कि अभी न जाओ छोड़ कर। प्रेम में सबसे ज्यादा एक ही बात कही जाती है कुछ देर और ठहर जाओ। यही तो प्रेम है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

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राकेश खंडेलवाल
रह रह के हुलसता है  जिगर ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक

विस्फोट ही विस्फोट हैं हर सिम्त जहां में
रब की नसीहतों के सफे जाने कहाँ है
इस्लाम का ले नाम उठाते है जलजला
चाहे है हर एक गांव में बन जाए कर्बला
कोशिश है कि रमजान में घोल आ मोहर्रम
अब और मलाला नहीं सह पाएगी सितम
आज़िज़ हो नफ़रतों से ये कहने लगा है दिल
अब और न घुल पाये ज़हर  ईद मुबारक
कहती है ये  खुशियों की सहर ईद मुबारक

अल कायदा को आज सिखाना है कायदा
हम्मास में यदि हम नहीं तो क्या है फायदा
कश्मीर में गूंजे चलो अब मीर की गज़लें
बोको-हरम का अब कोइ भी नाम तक न ले
काबुल हो या बगदाद हो या मानचेस्टर
पेरिस मे न हो खौफ़ की ज़द मे कोइ बशर
उतरे फलक से इश्क़ में डूबी जो आ बहे
आबे हयात की हो नहर, ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक

राकेश जी हमेशा नए प्रयोगो के साथ मुशायरे में आते हैं इस बार भी उन्होंने नए प्रयोग किये हैं। पहला बंद गीत का उन लोगों को कठघरे में खड़ा करता है जो धर्म की आड़ में हिंसा के बीज बो रहे हैं और अपने कृत्यों से धर्म को बदनाम कर रहे हैं। हर गाँव में कर्बला बनाना चाहते हैं। तभी तो रचनाकार कहता है कि नफ़रतों से आज़िज़ आ चुकी है अब दुनिया। दूसरा बंद पहले बंदी की नकारात्मकता का हल तलाशता हुआ आता है। कश्मीर से लेकर काबुल और बगदाद हर जगह पर रचनाकार चाहता है कि फलक से उतर कर आई आबे हयात की नहर सारी दुनिया में बहे और सारी नफरतें उस नहर के प्रेम भरे पानी में बह जाएँ। सारी दुनिया खुशरंग हो जाए। बहुत ही सुंदर गीत क्या बात है वाह वाह वाह।

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तो मित्रों आप सब को ईद मुबारक। आज की चारों रचनाओं पर खुलकर दाद दीजिए। वैसे तो मुशायरे का अधिकारिक समापन हो चुका है लेकिन भभभड़ कवि का क्य है वो तो कभी भी आ सकते हैं। तब तक जय हो।

शिवना साहित्यिकी का जुलाई-सितम्बर 2017 अंक

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मित्रों, संरक्षक तथा सलाहकार संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingraप्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक- शहरयार Shaharyarतथा सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का जुलाई-सितम्बर 2017 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है। इस अंक में शामिल है संपादकीय, शहरयार Shaharyar। व्यंग्य चित्र -काजल कुमार Kajal Kumar। आवरण कविता - शमशेर बहादुर सिंह, आवरण चित्र के बारे में....- विस्मय / पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi , उपन्यास अंश- पागलखाना / डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी Gyan Chaturvedi , संस्मरण आख्यान- होता है शबोरोज़ तमाशा मिरे आगे, सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth , कथा-एकाग्र- नीलाक्षी फुकन Nilakshi Phukanकहानी विखंडन Ajay Navaria , अनीता सक्सेना Anita Saxenaकहानी Mehrunnisa Parvez , पुस्तक चर्चा- हँसी की चीखें / कांता राय Kanta RoySantosh Supekar , एक वह कोना / गोविंद भारद्वाज Govind BhardwajGovind Sharma , पहाड़ पर धूप / यादवेंद्र शर्मा Murari Sharma , फिल्म समीक्षा के बहाने- हिन्दी मीडियम, माम, वीरेन्द्र जैन Virendra Jain , बातें-मुलाक़ातें- कृष्णा अग्निहोत्री Krishna Agnihotri , ज्योति जैन Jyoti Jain , रंगमंच- आर्यभट्ट और नाटक ‘अन्वेषक’, प्रज्ञा Pragya Rohini , पेपर से पर्दे तक- कृष्णकांत पंड्या Krishna Kant Pandya, पुस्तक-आलोचन- यादों के गलियारे से / कैलाश मण्डलेकर Kailash Mandlekar , समीक्षा, वंदना गुप्ता Vandana GuptaMaitreyi Pushpa / वो सफ़र था कि मुकाम था, शिखा वार्ष्णेय Shikha VarshneyAruna Sabharwal / उडारी, डॉ. ज्योति गोगिया @jyoti gogiya Sudha Om Dhingra / धूप से रूठी चाँदनी, योगिता यादव Yogita YadavShashi Padha / लौट आया मधुमास, शरद सिंह Sharad Singh@manohar agnani / अंदर का स्कूल, तरही मुशायरा Digamber NaswaNusrat Mehdi @mahesh khalish Saurabh PandeyNirmal SidhuGirish PankajTilak Raj Kapoor @sudhir tyagi @vasudeo agrwal Rakesh Khandelwal , आवरण चित्र- पल्लवी त्रिवेदी Pallavi trivedi photography photography - डिज़ायनिंग-सनी गोस्वामी Sunny Goswami। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
ऑन लाइन पढ़ें-

https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-july-september-2017
https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_july_september_201

दीपावली आ गई है और काम पर लगने का समय आ गया है, तो आइये दीपावली के अवसर पर आयोजित होने वाले तरही मुशायरे के मिसरे की बात करें।

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मित्रों एक वर्ष बीत गया और दीपावली का त्योहार एक बार फिर से आ गया है। इस बीच इस ब्लॉग ने भी अपनी स्थापना के दस वर्ष पूरे कर लिए। वर्ष 2007 में इस ब्लॉग की शुरूआत हुई थी माह अगस्त के अंति सप्ताह में, इस प्रकार ये दस वर्ष हँसते खेलते बीत गए। आई पी एल से उधार लेते हुए कहता हूँ – ये दस साल आपके नाम। बीतना समय की प्रकृति है और वह बीतता ही है। पीछे छोड़ जाता है कई सारी खट्टी मीठी यादें। इस बीच कई रिश्ते बने, कई लोग मिले जिनसे मिलकर ऐसा लगा कि जन्मों जन्मों का संबंध है। एक परिवार जैसा बन गया। इस परिवार ने मिलकर सारे त्योहार मनाए। फिर ये भी हुआ कि कुछ लोग दूर हो गए। कुछ को ईश्वर ने अपने पास बुलाकर हमसे दूर कर दिया तो कुछ मन से दूर हो गए। जो दूर हो गए वे भी हमारे ही हैं। असल में सच कभी भी निरपेक्ष सच नहीं होता, वह हमेशा सापेक्ष सच होता है। हर व्यक्ति का अपना सापेक्ष सत्य होता है। इसलिए ज़रूरी नहीं होता कि जो किसी एक का सापेक्ष सच है वो दूसरे का भी हो। कोई भी सत्य पूर्ण या अंतिम सत्य नहीं होता, उसे सापेक्ष होना ही होता है। दुनिया में सापेक्ष सत्यों की ही लड़ाई है। हम सब अपने-अपने सापेक्ष सचों को अंतिम मान कर उसी को दूसरों से भी मनवाने की कोशिश में लगे रहते हैं। और नतीज़ा यह होता है कि रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है।

आइये आज बात करते हैं दीपावली के त्योहार की। दीपावली का त्योहार एक बार फिर से आ गया है और एक बार फिर से हम सब सब कुछ भूल कर कुछ दिनों के लिए उत्सव की मस्ती में डूबने को तैयार हो चुके हैँ। दस सालों से इस मस्ती का एक और ठिकाना भी होता है और वो होता है इस ब्लॉग पर आयोजित होने वाला यह तरही मुशायरा। सब लोग जिस उमंग से जिस उत्साह से इसमें भाग लेते हैं उसीके कारण यह मुशायरा हर वर्ष यादगार हो जाता है।

कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी

इस बार बहर वही ली जा रही है जो होली पर भी ली गई थी। असल में जब दीपावली की तरही का विचार आया तो सबसे पहले जो मिसरा दिमाग़ में बना वो यही था। इसके बाद बहुत सोच विचार किया कि कुछ और कर लिया जाए लेकिन बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम के अलावा कोई और ठौर नहीं दिखा। तो फाएलुन फाएलुन फाएलुन फाएलुन पर ही इस बार का तरही मुशायरा करने का तय कर लिया। रोशनी में जो ई की मात्रा है वो हमारे काफिये की ध्वनि होगी मतलब ज़िंदगी, शायरी, रोशनी आदि आदि। और खिल उठी रदीफ होगा।

तो यह है दीपावली का होमवर्क अभी काफी दिन हैं तो उठाइये काग़ज़ कलम और तैयार हो जाइए। मिलते हैं दीपावली के मुशायरे में।

आइये आज धनतेरस के दिन प्रारंभ करते हैं दीपावली का तरही मुशायरा। आज सुनते हैं तीन रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी और बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी से उनकी रचनाएँ।

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मित्रो समय का कुछ पता नहीं चलता कि वो कब कैसे बीत जाता है। हम ठगे से रह जाते हैं कि अरे ! अभी तो कल की ही बात थी और साल भर बीत भी गया। असल में हर बीतता हुआ साल हमारे ही बीतने का संकेत होता है। संकेत होता है कि गति के पंखों पर सवार होकर हम बीतते जा रहे हैं। बस एक बात जो हमें हर पल जीवन में बनाए रखती है वो यह होती है कि हम भले ही बीत रहे हों, लेकिन हमें रीतना नहीं चाहिए। बीतना तो हम सबकी नियति है, लेकिन रीतना तो हमारे हाथ में होता है। जो रीतेगा नहीं, वही रचेगा। और एक बात कि जिस चीज़ को हमेशा इस बीतने और रीतने के क्रम में बचाए रखना चाहिए वो होता है हमारा स्वाभिमान। कभी भी किसी भी हालत में अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। हमारे अंदर का स्वाभिमान ही हमारी पूँजी होता है, वह कभी इतना नहीं बढ़े कि हम अभिमान के ख़तरनाक क्षेत्र में प्रवेश कर जाएँ। और विनम्र होने के चक्कर में इतना न घटे कि हम कायरता के मरुथल में पहुँच जाएँ। आज धन तेरस के दिन आप सबको यही शुभकामनाएँ कि आप सब अपने स्वाभिमान रूपी धन को बचा कर रखें। आप अपनी रचना प्रक्रिया के द्वारा अपने आपको रीतने से बचाते रहें। शुभ हो यह दीपों का पर्व।

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कुमकुमे हंस दिए ,रोशनी खिल उठी

आइये आज धनतेरस के दिन प्रारंभ करते हैं दीपावली का तरही मुशायरा। आज सुनते हैं तीन रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी और बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी से उनकी रचनाएँ। मैं जानता हूँ कि अब इस ब्लॉग को दस साल हो चुके हैं और आप सब अपने जीवन में व्यस्त हो गए हैं, लेकिन पता नहीं क्यों यहाँ यह तरही का सिलसिला बंद करने की इच्छा नहीं होती, ऐसा लगता है कि एक चौपाल है, जिस पर दीपक जलते रहना चाहिए।

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rakesh khandelwal ji

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राकेश खंडेलवाल जी

बादलो के कहारों के कांधे चढ़ी
जा चुकी पालकी दूर बरसात की
चांदनी से धुली गंध को ओढ़कर
कांति बढ़ती हुई चंदनी गात की
मखमली मलयजे झूमती नाचती
ओस से पांव रख द्वार पर आ रुकी
देख कर ऋतु की ऐसी सजीली छटा
कुमकुमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

चल पड़ी गुनगुनाते हुए इक किरण
छोड़ प्राचीर अरुणाचली भोर की
सज गई अल्पनाओं से हर इक डगर
बाँसुरी की बजी गूँज झकझोरती
दोपहर रेशमी पाग पहने हुए
साँझ को भेजती एक पाती रही
डाकिया दिन उतरते का आगे बढा
कुमकमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

द्वार पर लटकी कंदील ने मुस्कुरा
पास अपने सितारे निमंत्रित किये
स्वस्ति चिह्नों ने उच्चार कर मंत्र तब
पल थे जितने सभी कर असीमित दिए
हर्ष उल्लास की बदलियां, हर दिशा
से उमड़ घेरने तन को मन को लगी
मौसमो का तकाजा था, मावस सजी
कुमकुमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

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राकेश जी इस ब्लॉग पर तरही के चलते रहने को लेकर सबसे बड़े प्रेरक हैं, इस बार भी उन्होंने तीन-तीन रचनाएँ भेजी हैं जो आपको आगे के अंकों में पढ़ने को मिलेंगी। आज का गंध और उजास से भरा यह गीत तो मानों दीपावली के त्योहार को आज ही देहरी पर लाकर खड़ा कर रहा है। विदा ले चुकी बरसात के साथ प्रारंभ होता यह गीत मौसम की सारी आहटें समेटे हुए है। बादल, चाँदनी, ओस, मलयज सब मिलाकर जैसे मौसम का एक पूरी चित्र है। जो कुछ हमारे सामने से गुज़र रहा है, बीत रहा है उस सब को पहले ही छंद में सुंदर शब्दों के साथ पिरोया है।  अगले छंद में प्राची से उजाले का संदेश लेकर चली किरण के स्वागत में बनी अल्पनाएँ तथा बाँसुरी तो कमाल है। और अंतिम छंद में दीपावली का पूरा दृश्य सामने आ जाता है। कंदील ने मुस्कुरा कर सितारों को आमंत्रण भेजा और स्व​स्ति चिह्नों ने स्वयं मंत्र उच्चारे हों तो हर दिशा में हर्ष और उल्लास घुलना तो स्वभाविक सी बात है। सजी हुई मावस के सुंदर दृश्यों से सजा एक सुंदर गीत। वाह वाह वाह।

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ashwini ramesh ji

अश्विनी रमेश जी

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कुमकुमे हंस दिए ,रोशनी खिल उठी
दीप जब जल उठे हर ख़ुशी खिल उठी

लो फ़िज़ा रोशनी की यहां छा गयी
रात दुल्हन बनी बन कली खिल उठी

दीप चारों तरफ झिलमिला अब रहे
है खुशी मन में यूं फुलझड़ी खिल उठी

अबके दीपावली खुशनुमा यों मने
हो खुशी यूं लगे ज़िन्दगी खिल  उठी

नफरतों का अँधेरा मिटा जब तो फिर
हर तरफ प्रेम की बस हँसी खिल उठी

चाहे कविता रची या रची फिर ग़ज़ल
दिल ने पाया सुकूँ शायरी खिल उठी

प्यार का वो उजाला चहूँ ओर हो
रोशनी यूं हुई ज़िन्दगी खिल उठी

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अश्विनी जी की ग़ज़ल भी सबसे पहले प्राप्त होने वाली ग़ज़लों में होती है हर तरही मुशायरे में। उनकी ग़ज़लों में निरंतर विकास का एक क्रम दिखाई देता है। इस बार भी उनकी ग़ज़ल दीपावली के सारे रंग समेटे हुए है। मतले में ही गिरह के मिसरे के साथ अच्छे से तरही मिसरे को गूँथा गया है। यह पूरी ग़ज़ल दीपावली के अलग-अलग रंगों को अपने में समेटे हुए आगे बढ़ती है। जब दीप चारों ओर झिलमिला रहें हों तो खुशी भी मन में फुलझ़डी की ही तरह खिल उठती है। बहुत ही सुंदर प्रयोग। दीपावली को इस प्रकार खुशनुमा मनाने की बात कि जिंदगी के खिल उठने पर जाकर समाप्त हो, तभी तो दीपावली है। बहुत उम्दा बात कही है। नफरतों का अँधेरा जब मिट जाता है तो उसके बाद जो बचता है वह प्रेम होता है और प्रेम की हँसी होती है। बहुत ही सुंदर बात कही है। सही बात है कि जब भी कोई रचनाकार अपनी रचना को रचता है तो उसे एक प्रकार का सुकून मिलता है, इस सुकून का कोई मोल नहीं होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, क्या बात है वाह वाह वाह ।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

जगमगाते दियों से मही खिल उठी,
शह्र हो गाँव हो हर गली खिल उठी।

लायी खुशियाँ ये दीपावली झोली भर,
आज चेह्रों पे सब के हँसी खिल उठी।

आप देखो जिधर नव उमंगें उधर,
हर महल खिल उठा झोंपड़ी खिल उठी।

सुर्खियाँ सब के गालों पे ऐसी लगे,
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी।

दीप उत्सव पे ग़ज़लें सभी की 'नमन'
ब्लॉग में दीप की ज्योत सी खिल उठी।

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जगमगाते दीपकों से पूरी पृथ्वी को जैसे शायर ने अंतरिक्ष में बैठ कर देखा है। और वहाँ से नज़र आ रहा है कि शहर, गाँव, गली सब जगह प्रकाश  ही प्रकाश है। सब कुछ खिला हुआ सा है। बहुत ही सुंदर मतला। दीपावली का पर्व क्रिसमस के सांता क्लाज की तरह होता है जब आता है तो सबकी झोलियाँ भर देता है सबके चेहरों पर खुशियाँ खिल उठती हैं। और जिस तरफ भी नज़र जाती है उस तरफ सब कुछ खिला हुआ दिखाई देता है। महल से लेकर झोंपड़ी तक सब कुछ खिला खिला सा हो जाता है। जब दीपावली का त्योहार आता है तो उल्लास के कारण सबके गालों पर ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे दीपकों के हँसने से रोशनी खिल उठी हो। बहुत ही सुंदर बात कही है। और अंत में मकते का शेर हमारे इस ब्लॉग को और यहाँ पर पिछले दस वर्षों से चल रहे इस सिलसिले को अच्छी तरह से अभिव्यक्ति दे रहा है। सभी सदस्यों को शुभकामनाओं की सुंदर थाली लिए भावनाओं का मंगल तिलक कर रहा है यह मकता। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है। वाह वाह वाह।

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तो मित्रो यह है आज का शुभारंभ। तीनों रचनाकारों की ग़ज़लों का आप आनंद लीजिए और दाद देने में कहीं कोई कंजूसी मत कीजिए। मिलते हैं अगले अंक में।

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आइये आज रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली या नरक चतुर्दशी का यह त्योहार मनाते हैं अपने पाँच रचनाकारों के साथ। आज का यह पर्व धर्मेंद्र कुमार सिंह, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम, राकेश खंडेलवाल जी और डॉ. संजय दानी के नाम।

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मित्रों दीपावली का त्योहार हमारी वर्ष भर की थकान को दूर करने का एक अवसर होता है। थकान दूर कर आने वाले समय की लिये कुछ और ऊर्जा को एकत्र करने का समय। और इस अवसर का लाभ उठाने में चूकना नहीं चाहिए। असल में हम सब जीवन की जिन परेशानियों और कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं उनके कारण हमारे लिए बहुत आवश्यक होता है कि हम अपने आप को इन पर्वों के बहाने कुछ ताज़ा कर लें। हमारे अंदर जो जीवन शक्ति है वो भी समय समय पर अपने आपको कुछ रीचार्ज करना चाहती है। रोज़ाना के रूटीन से हट कर अपने लिए अपनों के लिए कुछ समय यदि हम निकाल लें तो हमारे लिए जीवन कुछ आसान हो जाएगा। तो मित्रों बस यह कि आनंद मनाइये और आनंद बिखेरिये।

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आइये आज रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली या नरक चतुर्दशी का यह त्योहार मनाते हैं अपने पाँच रचनाकारों के साथ। आज का यह पर्व धर्मेंद्र कुमार सिंह, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम, राकेश खंडेलवाल जी और डॉ. संजय दानी के नाम।

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dharmendra kuma

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

बात ही बात में सादगी खिल उठी
एक बिन्दी लगा साँवली खिल उठी

गुदगुदी कर छुपीं धान की बालियाँ
खेत हँसने लगे भारती खिल उठी

यूँ तो दुबली हुई जा रही थी मगर
डोर मज़बूत पा चरखड़ी खिल उठी

बल्ब लाखों जले, खिन्न फिर भी महल
एक दीपक जला झोपड़ी खिल उठी

एक नटखट दुपट्टा मचलने लगा
उसको बाँहों में भर अलगनी खिल उठी

जब किसानों पे लिखने लगा मैं ग़ज़ल
मुस्कुराया कलम डायरी खिल उठी

उसने पूजा की थाली में क्या धर दिया
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी

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धर्मेंद्र की ग़ज़लों का मैं शुरू से प्रशंसक रहा हूँ। लेकिन इस बार की ग़ज़ल बिल्कुल अलग ही मूड में है, रचनाकार का यह रंग एकदम चौंकाने वाला है। एक ही बात में सादगी खिल उठी एक बिन्दी लगा साँवली खिल उठी वाह क्या मतला है। धान की बालियों के गुदगुदी करने से भारत की आत्मा का खिल उठना, कमाल है, यह बड़ा शेर हो गया है शायर की सोच के कारण। इस सोच को सलाम। और महल का खिन्न होना तथा एक ही दीपक जलने से झोपड़ी का खिल उठना, उस्तादों की राह पर कहा गया शेर है, कबीर और रहीम के कई दोहे इसी सोच पर कहे गए हैं। और नटखट दुपट्टे को बाँहों में भर कर अलगनी का खिल उठना, वाह यह तो कमाल पर कमाल है, बहुत ही बारीक शेर है। किसानों पर ग़ज़ल लिखते शायर की डायरी और उसका कलम हँसने लगे तो समझिये लेखन सार्थक हो गया। और अंत में गिरह का शेर बिल्कुल ही अलग सोच का शेर है। मिसरा उला ही ऐसा है कि बस। ये जो अनडिफाइंड “क्या” होता है, यह रचना में ग़ज़ब सुंदरता लाता है, कैफ़ भोपाली साहब ख़ूब उपयोग करते थे इसका। बहुत ही सुंदर और बहुत सलीक़े से कही गई ग़ज़ल। वाह वाह क्या बात है।

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Gurpreet singh

गुरप्रीत सिंह

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कुमकुमे हँस दिए, रौशनी खिल उठी
ऐसे हर घर में दीपावली खिल उठी

धूप हर दिन मिली, तो कली खिल उठी
आप मिलने लगे, ज़िन्दगी खिल उठी

खेलते बालकों की हँसी खिल उठी
मानो सारी की सारी गली खिल उठी

आप के पांव घर में मेरे क्या पड़े
छत महकने लगी, देहरी खिल उठी

पहले मंज़र में थी बस ख़िज़ाँ ही ख़िज़ाँ
ये नज़र आप से जो मिली, खिल उठी

सब से छुप के निकाली जो फ़ोटो तेरी
मेरे कमरे में तो चाँदनी खिल उठी

दर्द-ए-दिल आपने जो दिया, शुक्रिया
कहते हैं सब, मेरी शायरी खिल उठी

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मतले में ही गिरह का शेर इस युवा शायर ने ख़ूब लगाया है, दीपावली की सारी भावनाओं को पूरी तरह व्यक्त करता हुआ। मतले के बाद दो हुस्ने मतला भी शायर ने कहे हैं। तीनों अलग अलग रंगों के हैं। धूप हर दिन मिली में प्रेम को बहुत सलीक़े से अभिव्यक्त किया है, किसी के मिलने से ज़िन्दगी का खिल उठना, यह ही तो जीवन है। प्रेम की धूप का प्रयोग बिल्कुल नया है, अभी तक प्रेम की चाँदनी होती थी। खेलते बालकों की हँसी से खिली हुई गली का मतला देर तक उदास कर गया, हाथ पकड़ कर एकदम बचपन में ले गया। बहुत ही सुंदर हुस्ने मतला। किसी के पाँव घर में पड़ते ही छत का महकना और देहरी का खिल उठना यही तो प्रेम होता है। पहले मंज़र में थी बस ख़िजाँ ही ख़िजाँ में मिसरा सानी में उस्तादों की तरह क़ाफिया लगाया है, बहुत ही सुंदर। किसी के फोटो को निकालते ही कमरे में चाँदनी का खिल उठनाबहुत ही सुंदर। और अंत में किसी के दर्दे दिल देने पर शुक्रिया कहना क्योंकि उससे शायर की शायरी खिला उठी है। बहुत ही सुंदर बात कही है, सचमुच प्रेम के बिना कोई भी रचनाकार रचनाकार हो ही नहीं सकता। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

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Nakul Gautam

नकुल गौतम

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वक़्त बस का हुआ तो घड़ी खिल उठी
रास्ते खिल उठे, हर गली खिल उठी

गाँव पहुँचा तो बस से उतर कर लगा
जैसे ताज़ा हवा में नमी खिल उठी

वो हवेली जो मायूस थी साल भर
एक दिन के लिए ही सही, खिल उठी

घर पहुँचते ही छत ने पुकारा मुझे
कुछ पतंगे उड़ीं, चरखड़ी खिल उठी

छत पे नीली चुनर सूखती देखकर
उस पहाड़ी पे बहती नदी खिल उठी

बर्फ़ के पहले फाहे ने बोसा लिया
ठण्ड से काँपती तलहटी खिल उठी

चीड़ के जंगलों से गुज़रती हवा
गुनगुनाई और इक सिंफ़नी खिल उठी

उन पहाड़ी जड़ी बूटियों की महक
साँस में घुल गयी, ज़िन्दगी खिल उठी

मुझ से मिलकर बहुत खुश हुईं क्यारियाँ
ब्रायोफाइलम, चमेली, लिली खिल उठी

थोड़ा माज़ी की गुल्लक को टेढ़ा किया
एक लम्हा गिरा, डायरी खिल उठी

शाम से ही मोहल्ला चमकने लगा
"कुमकुमे हँस दिये, रौशनी खिल उठी"

गांव से लौटकर कैमरा था उदास
रील धुलवाई तो ग्रीनरी खिल उठी

फिर मुकम्मिल हुई इक पुरानी ग़ज़ल
काफ़िये खिल उठे, मौसिकी खिल उठी

deepawali[8]

नकुल की कहन इस ग़ज़ल में बिल्कुल अलग अंदाज़ में सामने आई है। सबसे पहले तो मतले में ही जो कमाल किया है वो ग़ज़ब है, सचमुच प्रेम में और इंतज़ार में जो अकुलाहट होती है और उसके बाद जो मिलन की ठंडक होती है वह अलग ही आनंद देती है। वह हवेली जो मायूस थी साल भर शेर ने एक बार फिर से उदास कर दिया, घर में बच्चे आए हुए हैं मेरे भी, और मुझे पता है कि दीपावली के दो दिन बाद सबको जाना है। बहुत ही सुंदर बात कह दी है।और नीली चुनर को सूखती देखकर पहाड़ी नदी का खिल उठना, वाह क्या कमाल का अंदाज़ है इस शेर में, जिओ। बर्फ़ के पहले फाहे का बोसा, ग़ज़्ज़्ज़ब टाइप की बात कह दी है। चीड़ के जंगलों से गुज़रती हवा की बजती हुई सिम्फनी बहुत ही कमाल, यह आब्ज़र्वेशन ही होता है जो रचनाकार को अपने समकालीनों से कुछ आगे ले जाता है। प्रकृति की गंध से भरे अगले दोनों शेरों में जड़ी बूटियों से लेकर चमेली लिली तक सब कुछ महक राह है। और माज़ी की गुल्लक को टेढ़ा करने पर लम्हे का डायरी पर गिरना बहुत ही कमाल की बात कह दी है। गाँव लौटकर कैमरे की रील का धुलवाना और ग्रीनरी का खिल उठना, बहुत ही सुंदर क्या बात है, बहुत ही कमाल की ग़ज़ल। बहुत सुंदर वाह वाह वाह। (इस ग़ज़ल ने पलकों की कोरें नम कर दीं, क्यों ? ये बात ब्लॉग परिवार के वरिष्ठ सदस्य जानते हैं।)

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rakesh khandelwal ji

राकेश  खंडेलवाल जी

deepawali[8]

आ गया ज्योति का पर्व यह सामने
सज रही हर तरफ दीप की मालिका
हर्ष उल्लास में डूबी हर इक डगर
घर की अंगनाई महकी, बनी वाटिका
ढोल तासे पटाखों के बजने लगे
नाचने लग पड़ी हाथ में फुलझड़ी
रक्त –‘पंकज’  निवासिन के सत्कार में
बिछ रही है पलक बन,  सजी ‘पाँखुरी’

और ‘रेखा’ हथेली से बाहर निकल
अल्पनाओं में दहलीज की ढल हँसी
सांझ का रूप सजता हुआ देखकर
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठा

बारिशों में नहा मग्न मन शहर के
घर ने खिड़की झरोखों ने कपड़े बदल
चौखटों पर मुंडेरों पे दीपक रखे
फिर हवा से कहा अब चले, तो संभल
सज गए हैं सराफे, कसेरे सभी
झूमती मस्तियों में भरी बस्तियां
स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत हुई
धन की औ धान की और गृह लक्ष्मियाँ

अड़ गए टेसू चौरास्तो पर अकड़
साँझियां खिलखिला घूँघटों में हंसी
झूमकर प्रीत के ऐसे अनुराग में
कुमकुमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

‘पाँखुरी’ ‘नीरजों’ की लगाती ‘तिलक’
एक ‘सौरभ’ हवा में उड़ाते हुए
आज ‘पारुल’ के पाटल ‘सुलभ’ हो गए
आंजुरी में भरे मुस्कुराते हुए
स्वाति नक्षत्र में आई दीपावली
हर्षमय हो गए ‘अश्विनी’, फाल्गुनी
‘द्विज’ ‘दिगंबर’ दिशाओं को गुंजित करें
और छेड़ें ‘नकुल’ शंख से रागिनी

द्वार ‘शिवना’ के आकर ‘तिवारी’ कहें
आज सबके लिए शुभ हो दीपावली
मन के उदगार ऐसे सुने तो सहज
कुमकुमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

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राकेश जी जब भी कुछ करते हैं तो बस कमाल ही करते हैं, इस बार भी उन्होंने मेरे दोनों परिवारों को अपने गीत में समेट लिया है। गीत का पहला ही छंद मानों दीपावली के उल्लास में डूब कर रचा गया है। ऐसा लगता है जैसे छंद में से गंध, स्वर, नाद सब कुछ फूट रहा है। बहुत ही कमाल। सांझ का रूप सजता हुआ देखकर, कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठा, वाह क्या बात है। बारिशों से नहा चुके शहर का कपड़े बदलना और फिर उसके हवा से यह कहना कि अब ज़रा संभल कर चले, वाह वाह वाह, क्या ही सुंदर चित्र बना दिया है। साँझियां खिलखिला घूँघटों में हंसी, यह एक पंक्ति जैसे गीतों के स्वर्ण युग में वापस ले जाती है, मन में कहीं गहरे तक उतर जाती है। और उसके बाद के बंद में ब्लॉग परिवार के सदस्यों का प्रतीक रूप में ज़िक्र आना मानों सोने पर सुहागे के समान है। यह ही कला है जो राकेश जी को बहुत आगे का कवि बना देती है। अंतिम पंक्तियों में शिवना का ज़िक्र आ जाना कुछ भावुक भी कर गया। राकेश जी इस ब्लॉग के आधार स्तंभ क्यों हैं, यह बात आज की यह रचना पढ़कर ही ज्ञात हो जाता है। बहुत ही सुंदर गीत, क्या बात है, वाह वाह वाह।

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sanjay dani

डॉ. संजय दानी

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कुककुमे हंस दिये रौशनी खिल उठी
एक चिलमन उठी, तो गली खिल उठी

इश्क़ का जादू सर मेरे जबसे चढा
दिल के आकाश की दिल्लगी खिल उठी

जब छिपा चांद बादल में तो दोस्तों
सोच कर जाने क्या चांदनी खिल उठी

जो घिरी थी उदासी के दामन में कल
तुम नहा आये तो वो नदी खिल उठी

शायरी में मेरी तुमने तन्क़ीद की
तो बुझी सी मेरी शायरी खिल उठी

देख खुश जूतियों को तेरी जाने मन
बुद्धी के चेहरे पर बेकसी खिल उठी

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मतले में ही किसी चिलमन के उठते ही सारी गली का खिल उठना और साथ में कुमकुमों का हँसना, रोशनी का खिल उठना, जैसे पूरा का पूरा दृश्य ही इस एक शेर से बन रहा है। सच में यही तो होता है कि किसी एक चेहरे पर पड़ा नकाब, किसी एक चिलमन के हटते ही ऐसा लगता है मानों पूरा आसपास का परिदृश्य ही बदल गया है। किसी एक का जादू यही तो होता है। चाँद का बादलों में छिप जाना और किनारों से झरती हुई चाँदनी का खिल उठना प्रकृति के बहाने वस्ल का दृश्य रचने का एक सुंदर प्रयास है। और अगले ही शेर में किसी के नहा आने पर नदी का खिल उठना यही तो वो बात है जिसके लिए कहा जाता है कि जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। किसी के नहा लेने भर से नदी के खिल उठने की कल्पना केवल कवि ही कर सकता है। नहीं तो सोचिए कि बदलता क्या है कुछ भी नहीं, नदी तो वैसे ही बह रही है जैसे कल बह रही थी, लेकिन जो कुछ बदलता है वह नज़रिया होता है।नज़रिया ही तो प्रेम है और क्या है इसके अलावा। किसी एक द्वारा तन्कीद कर देने से शायरी का खिल उठना बहुत ही अच्छा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह।

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मित्रों आज तो पाँचों रचनाकारों ने मिल कर दीपावली का रंग ही जमा दिया है। बहुत ही कमाल की ग़ज़लें कही हैं पाँचों रचनाकारों ने। आज रूप की चतुर्दशी पर ऐसी सुंदर रूपवान ग़ज़लें मिल जाएँ तो और क्या चाहिए भला। तो दाद दीजिए खुलकर और खिलकर। मिलते हैं अगले अंक में।

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शुभकामनाएँ, शुभकामनाएँ, दीपावली की आप सब को शुभकामनाएँ। आइये आज दीपावली का यह पर्व मनाते हैं रजनी नैयर मल्होत्रा जी , गिरीश पंकज जी, मन्सूर अली हाश्मी जी, राकेश खंडेलवाल जी, सौरभ पाण्डेय जी और श्रीमती लावण्या दीपक शाह जी के साथ।

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शुभकामनाएँ, शुभकामनाएँ, दीपावली की आप सब को शुभकामनाएँ। दीपावली का यह त्योहार आप सब के जीवन में सुख शांति और समृद्धि लाए। आप यूँ ही सृजन पथ पर चलते रहें। खूब रचनाएँ आपके क़लम से झरती रहें। आंनद करें, मंगलमय हो जीवन।

orkut scrap diwali ki shubhkamane hindi greeting card

कुमकुमे हँस दिए  रोशनी  खिल उठी

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भकामनाएँ, शुभकामनाएँ, दीपावली की आप सब को शुभकामनाएँ। आइये आज दीपावली का यह पर्व मनाते हैं  रजनी नैयर मल्होत्रा जी , गिरीश पंकज जी, मन्सूर अली हाश्मी जी,  राकेश खंडेलवाल जी, सौरभ पाण्डेय जी और श्रीमती लावण्या दीपक शाह जी के साथ। आज कुछ छोटे कमेंट मेरी तरफ से आएँगे, दीपावली की व्यस्तता के कारण।

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rajni naiyyar malhotra

रजनी नैयर मल्होत्रा

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कुमकुमे हँस दिए  रोशनी  खिल उठी
तुम मिले हमसफ़र ज़िंदगी खिल उठी

मेरे मिसरों में यूँ रातरानी घुली
महकी महकी मेरी शायरी खिल उठी

यूँ मिज़ाज अपने मौसम बदलने लगा 
बाग में बेला चम्पाकली खिल उठी

मुद्दतों पहले बिछड़ी थी जो राह में
मिल के फिर उस सखी से सखी खिल उठी

जो उलझती रही पेंचो ख़म में सदा 
ज़िन्दगी की  पहेली वही  खिल  उठी

भावनाओं को शब्दों ने आकर छुआ
सूनी सूनी मेरी डायरी खिल उठी

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वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। हर रंग के शेरों से सजी हुई यह ग़ज़ल दीपवाली के माहौल को और ज्यादा खुशनुमा बना रही है। अलग अलग रंगों की रंगोली सी बना दी है अपनी ग़ज़ल से। रातरानी से लेकर चम्पाकली तक और सखी से मिलती सखी से लेकर सूनी डायरी के खिल उठने तक पूरी ग़ज़ल बहुत ही भावप्रवण बन पड़ी है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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गिरीश पंकज

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आप आए इधर शाइरी खिल उठी
जैसे सूरज दिखा हर कली खिल उठी

द्वार पे एक दीपक जलाया तभी
देख मन की खुशी ज़िंदगी खिल उठी

मन-अन्धेरा मिटा जिस घड़ी बस तभी
''कुमकुमे हँस दिए रौशनी खिल उठी''

एक भूखे को भरपेट भोजन दिया
बिन कहे आपकी बंदगी खिल उठी

दीप  मुस्कान के जब अधर पे सजे
रूप निखरा तेरा सादगी खिल उठी

कल तलक जो अँधेरे में डूबी रही
दीप जैसे जले हर गली खिल उठी

आओ मिल के अँधेरे से हम सब लड़ें
सुन के चंदा सहित चांदनी खिल उठी

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गिरीश जी की ग़ज़लें वैसे भी जीवन के दर्शन का साक्षात्कार करवाती हैं। आज भी वे पूरे रंग में हैं। मतले में ही सूरज के दिखते ही कली के खिल उठने का प्रयोग बहुत सुंदर है। और उसके बाद द्वार पर दीपक जलाने से लेकर भूखे को भोजन करवाने तक तथा मुस्कान से सजती सादगी और अँधेरे से लड़ने के संकल्प के साथ समापन, सब कुछ बहुत सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।

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मन्सूर अली हाश्मी

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आये अच्छे जो दिन! शायरी खिल उठी
चीर कर 'फेसबुक', खुल उठी खिल उठी।

आग की लो बढ़ी, तिलमिलाने लगी
जब इमरती गिरी चाशनी खिल उठी।

तीरगी शर्म से पानी-पानी हुई
कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी।

उनकी फ़ितरत में ही मेहरबानी न थी
ग़मज़दा देख रुख़ पर खुशी खिल उठी।

दिल में इकरार लब पर तो इंकार था
इसी तकरार ही में हँसी खिल उठी।

मह्वे आग़ोश थे, तन भी मदहोश थे
इन्तिहा पर पहुँच, ज़िन्दगी खिल उठी।

मेहरबानी 'रदीफ'की कहिये इसे
'हाश्मी'बंद चीज़ें सभी खिल उठी।

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हाशमी जी का कमाल यह होता है कि वे हास्य और व्यंग्य का तड़का ग़ज़ब लगाते हैं। आज भी मतले में ही गहरा व्यंग्य कसा गया है। उसके बाद तीरगी का शर्म से पानी पानी होना और तकरार में हँसी का खिल उठना तथा इन्तिहा पर पहुँच कर जिंदगी की खिल उठना और उसके बाद अनोखा मकते का शेर। सब कुछ रंगे हाशमी से सराबोर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

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राकेश खंडेलवाल जी

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ऐ सुख़नवर कहो बीते कितने बरस
एक ही बस गजल को सुनाते हुए
बढ़ रही कीमतें बेतहाशा यहां
अपने अल्फ़ाज़ में नित सजते हुए
पर ये सोचा कभी, इसकी बुनियाद क्या
चढ़ रही सीढ़ियों पर सभी कीमतें
आओ इसका समाधान ढूंढें, तो फिर
रोशनी खिल उठे, कुमकुमे हँस पड़ें 

जो विरासत में हमको नियति से मिली
सम्पदायें सभी हमने दी है गंवा
भोर में बनती परछाई को देखकर
हम बढ़ाते रहे नित्य अपनी क्षुधा
चादरों की हदों में अगर पांव हम
अपने रखने का थोड़ा जतन यदि करें
मुश्किलें आप ही दूर हो जाएंगी
रोशनी खिल उठे कुमकुमे हंस पढ़ें

सूत भर श्रम का चाहा सिला गज भरा
मांगते हैं समझ कर, ये अधिकार है
किन्तु उत्पादकों, वितरकों को मिले
हम से हो न सका ऐसा स्वीकार है
मांग के, पूर्ति के जितने अनुपात है
ताक पर हमने जाकर उठा रख दिए
आज उनको समझ सोच बदलें अगर
कुमकुमे हंस पड़े रोशनी खिल उठे

जअब भी दीपावली आई, फरियाद की
मां की अक्षय कृपायें हमें मिल सकें
अवतरित हो हमारे घरों में बसे
ताकि जीवन समूचा खुशी से कटे
किन्तु दीपित हुई घर में लक्ष्मी, वही
अपने हाथों में तड़पी, सदा को बुझी
तो बताओ कहोगे भला किस तरह
कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठा

आओ संकल्प की आजुरी हम भरें
आआज इस पर्व पर मन भी दीपित करें
अपना व्यवहार, वातावरण, आचरण
अपने आदर्श से ही समन्वित करें
तो बिखेरेगी कल भोर अंगनाई में
चाहतों से भरी झोलियों में खुशी
और उमड़ी उमंगे यह कहने लगें
कुमकुमे हंस दिए रोशनी खिल उठी

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रचनाकारों को चुनौती देता हुआ राकेश खंडेलवाल जी का यह गीत मानों तमसो मा ज्योतिर्गमय का आह्वान है। सूत भर श्रम और गज भर का अधिकार, मांग और पूर्ति का अंतर, हमारी माँ लक्ष्मी की अक्षय कृपा पाने की कामना और हाथों में तड़पी दीपित हुई लक्ष्मी से लेकर संकल्प की अंजुरी भरने का संकल्प लेकर समापन के साथ एक सकारात्मक स्थिति में छोड़ता है गीत। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।

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saurabh ji

सौरभ पाण्डेय

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फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी

दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी

वो थपकती हुई आ गयी गोद में 
कुमकुमे हँस दिये, रोशनी खिल उठी

लौट आया शरद जान कर रात को..
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी

उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी

है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी

चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी

फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी

नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी

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सौरभ जी की ग़ज़लें पढ़ने और सुनने दोनों का आनंद लिए होती हैं। दीप लड़ियाँ चमकने लगीं से लेकर किसी मासूम बच्ची के गोद में आने से कुमकुमों के जल उठने तक और शरद के आगमन से होती हुई रात की झुरझुरी तो जैसे कमाल के बिम्ब हैं। यादों में पगी आँखें, और मुआ ढीठ पवन सौरभ जी की विशिष्टता है इन प्रतीकों में। नौनिहालों की आँखों के सपनों के लिए बाप का जुटना सुंदर प्रयोग है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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श्रीमती  लावण्या दीपक शाह

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हँस ले दिए, हँस ले मुस्कुरा ले
आया सुमंगल है त्यौहार अपना
ले कुमकुम चरण, आईं माँ लछमी
रौशन हुआ घर का कोना, कोना !

मन से मन की हो दूरी, ना ये जरूरी
खुशियाँ लिए आया त्यौहार अँगना !
तेरी रौशनी से जगमगाता  सुहाना
उमंगों सभर, हँस  रहा चारों कोना !
हँस ले दिए , हँस ले मुस्कुरा ले !
रौशन हुआ घर का कोना, कोना !

हर तूफ़ानों  से लड़ता है तू हरदम 
तेरी रौशनी को न कोइ छीन पाया !
दिया तुझको है बल, किसने दिए ऐ
बतला किस से पाया है विश्वास अपना ?
है रचना ये उसकी, ब्रह्माण्ड - भूतल
उसे कोइ अब तक, न है जान पाया !
हँस ले दिए , हँस ले मुस्कुरा ले !
रौशन हुआ घर का कोना, कोना !

उसी ने बनाए हैं फूल रंगीन प्यारे
उसीने बनाए  जुगनू, चाँद औ सितारे 
वही रोशन करता, है हर एक निशानी
कहती ज्योति सुन, अब मेरी कहानी
रौशन कर दिए को ये दुनिया है फानी !
हँस इंसान, हो रौशन  दिए की तरहा
अपने मन से मिटा दे हर एक परेशानी !
सुन बात जोत की हँस दिए, फिर दिए
खील उठी रौशनी, आ गई दीपावली !

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लावण्या जी ने इस अवसर पर शुभकामनाओं हेतु अपना यह गीत भेजा है। बहुत ही सुंदर और भावनाओं से भरा हुआ गीत है यह। बड़ी बहनों की शुभकामनाएँ यदि त्योहार के दिन सुबह मिल जाएँ तो और क्या चाहिए जीने को। रोशनी से भरी हुई हर पंक्ति मानों आशावाद से भरी हुई है और दीपक की ज्योति का मान बढ़ा रही है। बहुत ही सुंदर गीत है यह  वाह वाह वाह।

deepawali (3)

शुभकामनाएँ, शुभकामनाएँ, दीपावली की आप सब को शुभकामनाएँ। आनंद और मंगल से पर्व को मनाएँ, आज रचनाकारों को भी दाद देने का समय बीच में निकालें। सबको बहुत बहुत शुभ हो दीपावली।

lakshmi


बासी त्योहार का भी अपना आनंद होता है आइये आज हम भी बासी दीपावली मनाते हैं तिलक राज कपूर जी, सुधीर त्यागी जी और सुमित्रा शर्मा जी के साथ।

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मित्रो हर त्योहार के बीत जाने के बाद एक​ सूनापन सा रह जाता है। ऐसा लगता है कि अब आगे क्या? और उसी सूनेपन को मिटाने के लिए शायद हर त्योहार का एक बासी संस्करण भी रखा गया। भारत में तो हर त्योहार का उल्लास कई दिनों तक चलता है। होली की धूम शीतला सप्तमी तक रहती है, रक्षा बंधन को जन्माष्टमी तक मनाया जाता है और दीपावली को देव प्रबोधिनी एकादशी तक। यह इसलिए ​कि यदि आप किसी कारण से त्योहार मनाने में चूक गए हों तो अब मना लें। हमारे ब्लॉग पर भी बासी त्योहारों के मनाए जाने की परंपरा रही है। कई बार तो बासी त्योहार असली त्योहार से भी ज़्यादा अच्छे मन जाते हैं।

deepawali (5)

कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी।

आइये आज हम भी बासी दीपावली मनाते हैं तिलक राज कपूर जी, सुधीर त्यागी जी और सुमित्रा शर्मा जी के साथ।

deepawali

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर

deepawali[4]

पुत्र द्वारे दिखा, देहरी खिल उठी
टिमटिमाती हुई ज़िन्दगी खिल उठी।

द्वार दीपों सजी वल्लरी खिल उठी
फुलझड़ी क्या चली मालती खिल उठी।

पूरवी, दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी
हर दिशा आपने जो छुई खिल उठी।

दीप की मल्लिका रात बतियाएगी
सोचकर मावसी सांझ भी खिल उठी।

इक लिफ़ाफ़ा जो नस्ती के अंदर दिखा
एक मुस्कान भी दफ़्तरी खिल उठी।

एक भँवरे की गुंजन ने क्या कह दिया
देखते-देखते मंजरी खिल उठी।

चंद बैठक हुईं, और वादे हुए
आस दहकां में फिर इक नई खिल उठी।

गांठ दर गांठ खुलने लगी खुद-ब-खुद
द्वार दिल का खुला दोस्ती खिल उठी।

देख अंधियार की आहटें द्वार पर
कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी।

सचमुच त्योहारों का आनंद तो अब इसी से हो गया है कि इस अवसर पर बेटे-बेटी लौट कर घर आते हैं। दो दिन रुकते हैँ और देहरी के साथ ज़िदगी भी खिल उठती है। फुलझड़ी के चलने से मालती के खिल उठने की उपमा तो बहुत ही सुंदर है, सच में रोशनी और सफेद फूल, दोनों की तासीर एक सी होती है। प्रेम की अवस्था का यही एक संकेत होता है कि चारों दिशाएँ किसी के छू लेने से खिल उठती हैं। एक लिफाफे को नस्ती के अंदर देखकर दफ़्तरी मुस्कान का खिल उठना, बहुत ही गहरा कटाक्ष किया है व्यवस्था पर। भंवरे की गुंजन पर मंजरी का खिल उठना अच्छा प्रयोग है। गांठ दर गांठ खुलने लगी खुद ब खुद में दिल के द्वारा खुलने से दोस्ती का खिल उठना बहुत सुंदर है। सच में गांठों को समय-समय पर खोलते रहना चाहिए नहीं तो वो जिंदगी भर की परेशानी हो जाती हैं। और अंत में गिरह का शेर भी बहुत सुंदर लगा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

deepawali[6]

sudhir tyagi

सुधीर त्यागी

deepawali[6]

हुस्न के दीप थे, आशिकी खिल उठी।
आग दौनों तरफ, आतिशी खिल उठी।

साथ तेरा जो दो पल का मुझको मिला।
मिल गई हर खुशी, जिन्दगी खिल उठी।

खिल उठा हर नगर, मौज में हर बशर।
थी चमक हर तरफ, हर गली खिल उठी।

देखकर रात में झालरों का हुनर।
कुमकुमे हँस दिए,रोशनी खिल उठी।

रोशनी से धुली घर की सब खिडकियां।
द्वार के दीप से, देहरी खिल उठी।

हुस्न के दीपों से आशिकी का खिल उठना और उसके बाद दोनों तरफ की आग से सब कुछ आतिशी हो जाना। वस्ल का मानों पूरा चित्र ही एक शेर में खींच दिया गया है। जैसे  हम उस सब को आँखों के सामने घटता हुआ देख ही रहे हैं। किसी के बस दो पल को ही साथ आ जाने प जिंदगी खिलखिला उठे तो समझ लेना चाहिए कि अब जीवन में प्रेम की दस्तक हो चुकी है। और दीपावली का मतलब भी यही है कि नगर खिल उठे हर बशर खिल उठे हर गली खिल उठे। गिरह का शेर भी बहुत कमाल का बना है। देखकर रात में झालरों का हुनर कुमकुमों का हँसना बहुत से अर्थ पैदा करने वाला शेर है। दीवाली रोशनी का पर्व है, जगमग का पर्व है। जब रोशनी से घर की सारी खिड़कियाँ धुल जाएँ और द्वार के दीप से देहरी खिल उठे तो समझ लेना चाहिए कि दीपावली आ गई है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। क्या बात है। वाह वाह वाह।

sumitra sharma

सुमित्रा शर्मा

deepawali[8]

झिलमिलाईं झलर फुलझड़ी खिल उठी
कुमकुमे हंस दिए रौशनी खिल उठी

घेर चौबारे आंगन में दिवले सजे
जैसे तारों से सज ये ज़मीं खिल उठी

सबके द्वारे छबीली रंगोली सजी
तोरण इतरा रहे देहरी खिल उठी

आज कच्ची गली में भी रौनक लगी
चूना मिट्टी से पुत झोंपड़ी खिल उठी

पूजती लक्ष्मी और गौरी ललन
पहने जेवर जरी बींधनी खिल उठी

नैन कजरारे मधु से भरे होंठ हैं
देखो श्रृंगार बिन षोडषी खिल उठी

लौट आए हैं सरहद से घर को पिया
दुख के बादल छंटे चांदनी खिल उठी

हँस के सैंया ने बाँधा जो भुजपाश में
गाल रक्तिम हुए कामिनी खिल उठी

पढ़ के सक्षम हुई बालिका गांव की
ज्ञान चक्षु खुले शारदा खिल उठी

असलहा त्याग बनवासी दीपक गढ़ें
चहक चिड़ियें रहीं वल्लरी खिल उठी

झिलमिलाती हुई झलरों और खिलती हुई फुलझड़ियों का ही तो अर्थ होता है दीपावली। चौबारों और आँगन को घेर कर जब दिवले सजते हैं तो सच में ऐसा ही तो लगता है जैसे कि ज़मीं को तारों से सजा दिया गया है। सबे द्वारे पर छबीली रंगोली के सजने में छबीली शब्द तो जैसे मोती की तरह अलग ही दिखाई दे रहा है। दीपावली हर घर में आती है फिर वो महल हो चाहे झोंपड़ी हो सब के खिल उठने का ही नाम होता है दीपावली। लक्ष्मी और गौरी ललन की पूजा करती घर की लक्ष्मी के जेवरों से जरी से घर जगर मगर नहीं होगा तो क्या होगा। नैर कजरारे और मधु से भरे होंठ हों तो फिर किसी भी श्रंगार की ज़रूरत ही क्या है। पिया के सरहद से घर लौटने पर चांदनी का खिलना और दुख के बादलों का छँट जाना वाह। और पिया के भुजपाश में बँधी हुई बावरी के गालों में रक्तिम पुष्प ही तो खिलते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

deepawali[10]

तो मित्रों ये हैं आज के तीनों रचनाकार जो बासी दीपावली के रंग जमा रहे हैं। अब आपको काम है खुल कर दाद देना। देते रहिए दाद।

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शिवना साहित्यिकी का जनवरी-मार्च 2018 अंक

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मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeerr कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का जनवरी-मार्च 2018 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है। इस अंक में शामिल है- आवरण कविता, कहाँ गई चिड़िया...? / लालित्य ललित Lalitya Lalit , संपादकीय, शहरयार Shaharyar। व्यंग्य चित्र, काजल कुमार Kajal Kumar। आलोचना, नई सदी के हिंदी उपन्यास और किसान आत्महत्याएँ, डॉ. सचिन गपाट Sachin Gapat। संस्मरण आख्यान, सुशील सिद्धार्थ Sushil SiddharthGyan Chaturvedi। विमर्श- गोदान के पहले, जीवन सिंह ठाकुर Jeevansingh Thakurr । संस्मरण- अविस्मरणीय कुँवर जी, सरिता प्रशान्त पाण्डेय । फिल्म समीक्षा के बहाने- मुज़फ्फरनगर, वीरेन्द्र जैन Virendra Jain। पेपर से पर्दे तक..., कृष्णकांत पण्ड्या Krishna Kant Pandya। पुस्तक-आलोचना- चौबीस किलो का भूत, अतुल वैभव Atul Vaibhav SinghBharat Prasad। नई पुस्तक- हसीनाबाद / गीताश्री Geeta Shree , गूदड़ बस्ती / प्रज्ञा Pragya Rohini। समीक्षा- उर्मिला शिरीष Urmila Shirish , चौपड़े की चुड़ैलें, पंकज सुबीर, अशोक अंजुम Ashok AnjumAshok Anjum , सच कुछ और था / सुधा ओम ढींगरा, मुकेश दुबे Mukesh Dubey , बंद मुट्ठी / डॉ. हंसा दीप @Dharm Jain , राम रतन अवस्थी Ram Ratan Awasthii , बातों वाली गली / वंदना अवस्थी दुबे, डॉ. ऋतु भनोट Bhanot Ritu , जोखिम भरा समय है / माधव कौशिक Madhav Kaushik , प्रतीक श्री अनुराग @pratik shri anurag / संतगिरी / मनोज मोक्षेंद्र Mokshendra Manoj। आवरण चित्र पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा। ऑन लाइन पढ़ें-
https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-january-march-2018-for-web
https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_january_march_2018

अभी तुम इश्क़ में हो, एक पाठक के नज़रिये से

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ABHI TUM ISHQ ME HO V14

कुछ दीवाने से पाठकों का होना हिन्दी के लिए और लेखक के लिए दोनों के लिए ज़ुरूरी है। दीवानापन यह कि पुस्तक के ऑनलाइन उपलब्ध होते ही उसका सबसे पहला ऑर्डर पाठक बुक करे, एक ही सिटिंग में उसे पूरा पढ़ भी ले। पढ़ने के बाद लेखक का लम्बा सा पत्र भी लिखे। हिन्दी के लेखक को और क्या चाहिए भला ? हिन्दी के गरीब लेखक की यही तो पूँजी होती है।

Nakul Gautam

नकुल गौतमका यह पत्र पूँजी ही तो है-
"ऐसा बहुत कम होता है कि आप कोई किताब हाथ में लें, और बुकमार्क ग़ैर ज़ुरूरी लगे। और जिन किताबों में एक से अधिक विधा की रचनाएँ हों, उनके साथ तो ऐसा कभी नहीं होता। लेकिन हुआ, क्योंकि अभी हम इश्क़ में हैं।
हुआ यूं कि डाकिये ने जिस दिन घण्टी बजाई उस दिन हम सिक लीव पर थे और सोफ़े पर पसरे हुए थे। दरवाज़ा खोला और डाकिये को देखकर मुस्कुराये, क्योंकि मुझे जिस ख़त का इंतज़ार था, वो आ गया। आजकल डाकिये की ख़ाकी वर्दी देखने को मिलती ही कहाँ है। या तो कूरियर आते हैं या डिलिवरी बॉय।
ख़ैर, सबसे अच्छी बात यह कि इस बार हमें न जाने क्यों, यह अहसास ही नहीं था कि इस किताब में ग़ज़लें भी होंगी। चूंकि मुझे इंतज़ार था सिर्फ एक कहानी संग्रह का, यह जान कर ख़ुशी दोगुनी हुई कि ग़ज़लें, गीत, कवितायेँ और कहानियाँ, सब हैं इस छोटे से संग्रह में।
ग़ज़लों की नयी किताब लगभग साल भर बाद मिली, और उस पर छुट्टी का दिन। हम सोफ़े पर फिर से पसरे कि बेग़म जान का फरमान कानों में पड़ा। "यह कैसी किताब पढ़ रहे हो, घर में बच्चे हैं, सवाल करेंगे"। मैंने कहा कि यह शायरी की ही किताब है जी, पर...
बहरहाल अख़बार का cover चढ़ा कर हम फिर से सोफ़े पर पसर गए। बीच में कुछ ज़ुरूरी कामों के लिए छोड़ कर अभी तक यहीं पसरे हैं क्यों कि "अभी हम इश्क़ में हैं"।
चलो अब सोच कर ये ही शराफ़त से बिछड़ जाएँ
ये दिल -विल तो जवानी में सभी ने ही लगाया है...

लीजिये, अब ऐसे शेर् पढ़ कर अपने सफ़ेद होते जा रहे बालों का ध्यान आ गया। अभी तक तो स्वयं को जवां ही मान रहा था।
वो जब कहते हैं कि जोड़ा गया है
समझिये कुछ न कुछ तोड़ा गया है

...लाजवाब
सभी का ज़िक्र है, बातें सभी की
हमारा नाम बस छोड़ा गया है

...उफ़्फ़ उफ़्फ़
पिटेंगे सारे मोहरे, सब्र तो कर
अभी तो सिर्फ़ इक घोड़ा गया है

...क्या कहने, लाजवाब ग़ज़ल
कोई उस्ताद मिलना इश्क़ में बेहद ज़ुरूरी है
जो ग़लती पर ये समझाए, 'मियाँ ऐसे नहीं होगा'

...बहुत वाजिब सलाह, ज़िन्दगी के हर इश्क़ के लिए
तुम्हारे हाथ में जलती रहे सिगरट मुसलसल
कलेजे को ज़रा फूंको अभी तुम इश्क़ में हो

... बहुत ख़ूब।
हैं आँखें चार और दिल दो, मगर जोड़ो तो इक आये
मियाँ अब इस पहली का बताओ तो ज़रा मतलब

... सिर्फ़ और सिर्फ़ इश्क़। है ना?
न अब वो खिलखिलाती है, न अब जादू चलाती है
न जाने कब समय के साथ औरत बन गयी लड़की

... हृदयस्पर्शी शेर्
तेरे आशिक़ को आता बस यही है
तेरी बातें सुना कर बोर करना
हमें इज़हार करना आ गया जब
उन्हें भी आ गया इग्नोर करना

... लाजवाब ये क़वाफ़ी ज़ुरूरी हैं इस विधा को ज़िंदा रखने के लिये।
इश्क़ में दरिया पार नहीं उतरा जाता
इश्क़ में दरिया का रुख़ मोड़ा करते हैं

... वाह वाह। ये उनके लिए ज़ुरूरी है जिन्हें इश्क़ आसानी से चाहिए। कि जब तक जूनून न बने तो इश्क़ ही क्या किया।
किसी का ज़ुल्फ़ से पानी झटकना
इसी का नाम बारिश है महोदय

... यह है शायरी
मिलन को मौत आखिर कैसे ख दूँ
नदी सागर से मिलने जा रही है

... क्या ज़ावीया है... लाजवाब।
इससे न झूट की कोई उम्मीद करो तुम
ये आइना है, सामने अख़बार नहीं है

... बहुत उम्दा, बहुत उम्दा शेर्
ख़ैर, मैं जैसा भी हूँ, हँस कर गले मिलता तो हूँ
माफ़ करना आपको इतना सलीक़ा भी नहीं

और...
खेतों में हल लेकर निकलो, रस्ते पर पत्थर तोड़ो
फ़र्क़ समझ आजायेगा ख़ुद पानी और पसीने में

...बेहतरीन शेर्
और ये वाला तो गज़ब का शेर् हुआ है कि...
पड़े हो इश्क़ में तो इश्क़ की तहज़ीब भी सीखो
किसी आशिक़ के चेहरे पर हँसी अच्छी नहीं लगती

... यह शेर् चुराने का दिल कर गया
लिपट कर पहाड़ों से कोहरा है सोया
ये कह दो हवा से न उसको जगाये

... यह शेर् मुझे अपने घर की याद दिला गया।
आपके गीत पहली बार पढ़े। क्या लाजवाब शैली है आपकी। इनमे भी शायरी का जादू बिखेरते हैं आप मसलन...
आ समन्दर, तुझको कुछ मीठा करूं
कह रही छू छू के इक मीठी नदी

या फिर
ये मौसम हैं मौसम, कहाँ ये रुकेंगे
गुज़रते रहे हैं, गुज़रते रहेंगे

... लाजवाब
कविताओं में भी लिफ़ाफ़ा, तुम, स्वप्न... सभी में लबालब इश्क़ घुला हुआ मिला। अंतिम बाला, एक बहुत ही हृदय स्पर्शी रचना है। मार्मिक। लेकिन 'अंतिम'का अर्थ समझ नहीं पाया। अपने अल्पज्ञान पर दुखी हूँ।
घास के फूल भी हृदय स्पर्शी रचना है। एक दम अलग। हाँ, मैंने भी ये फूल देखे हैं, और मुझे भी ये पसन्द हैं। हाँ इस प्रकार कभी इन्हें express नहीं कर पाउँगा शायद।
रही बात कहानियों की, तो sir, इन्ही के लिए तो हम आपके fan हैं।
आपकी कहानियों की ख़ास बात यह है कि इनमे पाठक को कठिनाई नहीं होती। एक पर्दा दिखता है जिन पर ये शॉर्ट फिल्म्स की तरह चलती हैं।
"उसी मोड़ पर" में एक अधूरा ख़्वाब पूरा होता है, जो बस कुछ पल में फिर से अधूरा हो जाता है। यही होता है अस्ल ज़िंदगी में।
"मुट्टी भर उजास"... प्रश्न उठा रही है कि क्यों होता है ऐसा ज़िन्दगी में।
"क्या होता है प्रेम"... एक कुशोर के निश्छल प्रेम की कल्पना है। बहुत हृदयस्पर्शी कहानी है यह कहानी।
'सुनो माँडव'और 'खिड़की'पहले भी पढ़ चुका हूँ, लेकिन फिर से ताज़ा लगीं।
अतीत के पन्ने तो कुछ यूँ लगे जैसे किसी फ़िल्म का एक दृश्य हो, या किसी खोई हुई डायरी का पन्ना। दरअस्ल सब के साथ होता यही है कि जब साथ होते हैं तो बहुत कुछ छूट सा जाता है। और जब उस छूटे हुए का एक छोर हाथ लगता है तो माज़ी हमें उसी उम्र में ले जाता है। बेशक कुछ ही पल के लिए...
आखिरी कहानी, "अभी तुम इश्क़ में हो", कुछ बाउंसर टाइप रही। कोई ऐसा क्यों करेगा, और कब तक यह चलेगा... कुछ अधूरापन है इस कहानी में। शायद पाठकों को अपनी सोच के घोड़े दौड़ाने पर विवश करने का प्रयास है।
शायरी, कहानी या अन्य... यह किताब मेरी अलमारी के किस सेक्शन में रखूँ, कृपया सलाह दीजियेगा।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित...सादर नकुल

मित्रो होली का पर्व सामने आ गया है, क्या विचार है तरही मुशायरे के बारे में ?

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दोस्तो यह सच है कि ब्लॉग पर अब कम आना-जाना हो रहा है। कई बार लगता है कि यह विधा अब समाप्त हो रही है। लेकिन नॉस्टेल्जिया है कि बार-बार यहाँ पर खींच कर ले आता है। जब भी कोई त्योहार सामने आता है, कोई पर्व आता है तो सबसे पहले ब्लॉग की ओर भागने का मन करता है। हाँ यह बात अलग है कि अब बस वार-त्योहार ही ब्लॉग की याद आती है। मगर फिर भी कोई रिश्ता ऐसा है कि जो यहाँ खींच लाता है। मेरे लिए यह ब्लॉग परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पर आकर ऐसा लगता है कि परदेस कमाने गए लोग त्योहार पर घर लौटे हैं और एकत्र हुए हैं। बतिया रहे हैं, हाहा-हीही कर रहे हैं, गा रहे हैं, नाच रहे हैं, मज़े कर रहे हैं। कल वापस परदेस निकलना है काम पर इसलिए आज को पूरी तरह से जी रहे हैं। हम सब भी तो ऐसे ही हो गए हैं। साल में कुछ बार यहाँ ब्लॉग पर एकत्र होते हैं, आनंद लेते हैं और उसके बाद फिर परदेसी हो जाते हैं। मगर सबसे अच्छी बात यह है कि आपस में जुड़े रहते हैं। एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी बनाते रहते हैं।

इस बार सोचा है कि तरही मुशायरे को प्रेम, इश्क़, महब्बत के पक्के रंग में रँगा जाए। वह रंग जो एक बार चढ़ता है तो फिर उम्र भर उतरता नहीं है। और मिसरा ऐसा भी हो कि जिसको चाहो तो हास्य और व्यंग्य में भी गूँथ लो होली के अनुसार। तो ऐसा ही एक मिसरा है जो दोनों प्रकार के रंगों में गूँथा जा सकता है। इस पर होली की हजल भी कही जा सकती है और प्रेम की ग़ज़ल भी। मिसरा बहुत ही कॉमन बहर पर दिया जा रहा है। वही हमारी बहरे हजज मुसमन सालिम 1222-1222-1222-1222

और मिसरे के साथ रदीफ-क़ाफिया का भी कॉम्बिनेशन सरल दिया जा रहा है। काफिया है ध्वनि “आनी” मतलब सुहानी, पुरानी, निशानी, कहानी, जवानी, रानी, राजधानी, ज़िंदगानी, आदि आदि आदि। और रदीफ है “याद आएगी” और पूरा मिसरा यहाँ दिया जा रहा है।

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी 

मिसरा ऐसा है कि आपको जो चाहे वो कर लो आप इसके साथ। प्रेम से लेकर होली तक सारे रंग भरे जा सकते हैं इस मिसरे में। कुछ लोग कहेंगे कि रदीफ का स्त्रीलिंग होना इस सीमित करेगा, लेकिन यदि आप दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो पता चलेगा कि लगभग सारे काफिये जो आनी की ध्वनि के साथ हैं वे स्त्रीलिंग ही हैं। पानी जैसे एकाध को छोड़कर। इसलिए शिकायत करने से बेहतर है होली की तैयारी में जुट जाया जाए।

अब जो लोग पूछते हैं कि इस बहर पर कौन सा फिल्मी गीत है तो उनके लिए ये ढेर सारे गीत नीचे दिए जा रहे हैं। यह तो कुछ ही गीत हैं, इनके अलावा भी बहुत से गीत और ग़ज़ल इस बहर पर हैँ। कुमार विश्वास का मशहूर मुक्तक कोई दीवाना कहता है भी इसी पर है। तो आपको जो भी धुन पसंद आए उस पर ग़ज़ल कहिए। बाकी बहाने बनाने के लिए तो फिर बहुत से बहाने हैं।

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हमदोनों, बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है, मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम, किसी पत्थर की मूरत से महब्बत का इरादा है, मुझे तेरी महब्बत का सहारा मिल गया होता, भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ, कभी तन्हाईयों में यूँ हमारी याद आएगी, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं, खुदा भी आस्माँ से जब जमीं पर देखता होगा, है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आयेगा

तो तैयार हो जाइए और होली पर ग़ज़ल कह ही दीजिए। होली का तरही मुशायरा अब आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

होली का त्योहार सामने है रंग गुलाल की दुकानें सजने लगी हैं, आइये अपनी दुकान सजाना भी आज से शुरू करते हैं आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी और द्विजेन्द्र द्विज जी के साथ

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मित्रो, परंपराएँ त्योहारों के साथ ही चल रही हैं, और कितने दिन चलती हैं, अब कुछ कहा नहीं जा सकता। असल में एक प्रकार का ठंडापन चारों तरफ पसर गया है। ठंडेपन का मूल है यह भाव कि –ऐसा करने से क्या हो जाएगा ? होली मना लें, मनाने से भी क्या हो जाएगा ? नाच-गा लें, नाच गाने से भी क्या हो जाएगा ? तरही के लिए ग़ज़ल लिख दें, ग़ज़ल लिखने से भी क्या हो जाएगा ?  यह जो भाव है न कि –ऐसा करने से भी क्या हो जाएगा ? यह ही हमको जीवन का आनंद लेने से रोक देता है। यूँ तो कुछ भी करने से कुछ भी नहीं होता, लेकिन उसके कारण क्या हम सब कुछ करना ही छोड़ दें? यूँ तो साँस लेने से भी क्या हो जाएगा? साँस लेने से भी फ़र्क क्या पड़ रहा है। मगर इन सबके बीच में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कहते हैं –कुछ होता हो य न होता हो, हमें तो करना है, हमें तो होली मनाना है, हमें तो आनंद लेना है, हमें तो तरही के लिए ग़ज़ल कहना है। ये दीवाने, पागल, खब्ती, सनकी लोग होते हैं, जो दुनिया को रहने योग्य बनाए रखते हैं। हमारी तरही का काम भी ऐसे ही पागलों से चलता है। जो हर बार तरही की घोषणा के साथ ही बिना यह सोचे कि –इससे क्या हो जाएगा ? ग़ज़ल लिखने में जुट जाते हैं। मित्रो कुछ भी करने से कुछ भी नहीं होता, लेकिन फिर भी जीवन में बहुत कुछ करते रहना पड़ता है। जीवन एक निरंतरता का नाम है। जो मित्र तरही में रचनाएँ भेज देते हैं यह आयोजन असल में उनके ही लिए होता है। जब तक एक भी मित्र रचना भेजेंगे तब तक यह आयोजन चलाने की कोशिश की जाती रहेगी। असल में जीवन उपस्थित का उत्सव होता है, अनुपस्थित का सोग नहीं। हमें उपस्थितों का सम्मान करना चाहिए, उसकी जगह हम अनुपस्थितों की अनुपस्थिति पर प्रतिक्रिया देने में लगे रहते हैं। अनुपस्थिति का अर्थ शून्य नहीं होता। जीवन का कारोबार हमेशा चलता रहता है। एक दिन हम सब अनुपस्थित हो जाएँगे, यह दुनिया फिर भी चलती रहेगी।

Barsana-Holi-one

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

आइये आज होली की भूमिका बनाते हैं दो ऐसे रचनाकारों के साथ, जो दो अलग-अलग विधाओं के विशेषज्ञ हैं। दोनो की रचनाएँ 24 कैरेट स्वर्ण से निर्मित होती हैं। चूँकि दोनों की इस बार एक से अधिक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं इसलिए हम इनसे शुरुआत भी कर रहे हैं और आगे भी कुछ और रचनाएँ इनकी हम लेंगे। होली का त्योहार सामने है रंग गुलाल की दुकानें सजने लगी हैं, आइये अपनी दुकान सजाना भी आज से शुरू करते हैं आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी और द्विजेन्द्र द्विज जी के साथ। आज राकेश जी का गीत और द्विज जी की ग़ज़ल के साथ होली महोत्सव का दीप प्रज्जवलित हो रहा है।

rakesh khandelwal ji

राकेश खंडेलवाल जी

चली फगुनाइ होकर चंद्रिकाए आज रंगों से
नज़ारा देख चैती दूर से ही मुस्कुराते है
हवा मदहोशियों की धार में डुबकी लगा निकली
फिजाये ओढ़ कर खुनकेँ जरा सी लड़खड़ाती हैं
खड़े हो पंक्तियों में देखते हैं खेत के बूटे
सुनहरी शाल ओढ़े कोई बाली लहलहायेगी
उसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

हरे परिधान में लिपटी हुई इक रेशमी काया
छरहरी ज्वार के पौधे सरीखी लचकचाती है
उसे आलिंगनों में बांध कर मधुप्रेम की धारा
भिगोती और धीरे से ज़रा सा छेड़ जाती है
हुई असफल छुपाने में वो तर होते हुई अंगिया
लजाकर आप अपने में सिमटती थरथराएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

चलेगी नंद की अंगनाइयों से गोप की टोली
गली बरसानिया बादल उमंगों के उड़ाएंगी
दुपहारी खेल खेलेगी नए कुछ ढाल कोड़े के
घिरी संध्या मिठाई की कईं थाली सजायेगी
हुए है आज इतिहासी ये बीते वक्त के पन्ने
छवि, है आस इस होली पे फिर से जगमगाएगी
इसे देखेंगीं तो अपनी जवानी याद आएगी

नहीं दिखती गुलालों की वो मुट्ठी लाल पीली अब
न दिखते नाद में भीगे कही भी फूल टेसू के
न भरता कोई पिचकारी न ग़ुब्बारे हैं रंग वाले
न दिखते मोतियों को झारते वे गुच्छ गेसू के
पुरानी कोई छवि आकर निगाहों में समाएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

अब ऐसे गीत पर क्या कहा जाए ? आनंद का पूरा उत्सव ही है यह गीत तो। होली के माहौल को अपने शब्द रंगों से सजाता, गीत गुनगुनाता हुआ सा यह गीत। हवा मदहोशियों की धार में जहाँ डुबकी लगा कर निकल रही हो। सुनहली शॉल ओढ़े जहाँ बाली लहलहा रही हो, वहाँ अगर अपनी जवानी नहीं याद आए तो क्या याद आएगा। सुनहली शॉल ओढ़े खड़ी बाली का यह मंज़र और इसकी मंज़रकशी…. अंदर तक महुए का रस उतर गया हो जैसे।  “लचकचाती” शब्द….. उफ़्फ़ एक शब्द मानों अंदर तक रसाबोर कर गया हौ जैसे। हरे परिधान में लिपटी हुई काया का छरहरी ज्वार के पौधे सरीखा लचकचाना, वाह ! आनंद और क्या होता होगा। आलिंगनों में बाँध कर मधुप्रेम की धारा जो भिगोती भी है और छेड़ भी जाती है… वाह क्या कमाल है, यह जो रस की गाँठ है यही तो आनंद है और जीवन में रखा क्या है ? लजा कर थरथराती हुई रेशमी काया का अपने आप में सिमटना, उफ़्फ़….. मानों स्मृतियों की गहरी धुंध से निकल कर कोई होली साकार हो गई हो।  नंद की अंगनाइयों से गोप की टोलियों का चलना उमंगों के बादलों का उड़ना और फिर मिठाई की थाली में शाम का ढलना, पूरे दिन का मानों शब्दों से ही ऐसा चित्र खींच दिया है, जो होली के चंदन और अबीर से रँगा हुआ है। और अंतिम छंद में हम सबकी वही पीड़ा, वही व्यथा, जिसका ज़िक्र मैंने आज प्रारंभ में भी किया है। गुलालों से भरी हुई लाल-पीली मुट्ठी, नाद में भींगते टेसू के फूल , पिचकारी, गुब्बारे, यह सब खो गए हैं। और इन सबसे ऊपर मोतियों को झारते हुए गुच्छ गेसू के। वाह यह ही तो कमाल होता है जो राकेश जी जैसे समर्थ गीतकार के शब्दकोश से ही निकल कर सामने आता है। मोतियों को झारते गुच्छ गेसू के, होली के बाद होने वाले स्नान का मानों सजीव दृश्य सामने आ गया हो। कुछ नहीं बला असल में हम जीवन का आनंद लेना भूल गए हैं। ऐसे में इनको कहीं भी देखेंगे तो अपनी जवानी याद तो आएगी ही। बहुत ही कमाल का गीत,वाह वाह वाह।

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​द्विजेन्द्र द्विज जी

न राजा याद आएगा न रानी याद आएगी
मगर भूखे को रोटी की कहानी याद आएगी

हमें रह-रह तुम्हारी पासबानी याद आएगी
निज़ामे-मुल्क से हर छेड़खानी याद आएगी

ज़रा-सा दाँव लगते ही हमें हमसे भिड़ाता है
हमें रहबर! तेरी शोलाबयानी याद आएगी

जो तुमने देश के सीने को इतने ज़ख़्म बख़्शे हैं
हक़ीमों ये तुम्हारी मेह्रबानी याद आएगी

तेरी सब सरहदों को सींचता है ख़ूँ शहीदों का
तुझे कब, ऐ वतन ! यह बाग़बानी याद आएगी

उछलती बच्चियों को देख कर सर्कस में तारों पर
हक़ीक़ी ज़िंदगी की तर्जुमानी याद आएगी

बयाँ होने लगे अशआर में हालात हाज़िर के
सुनोगे जब ग़ज़ल नौहाख़वानी* याद आएगी

कभी थक हार कर हिन्दी और उर्दू के झमेले से
’द्विज’ आख़िर फिर ग़ज़ल हिन्दोस्तानी याद आएगी

(* मृतक के लिए विलाप)

ऐसा लग रहा है जैसे ओपनिंग में एक छोर पर सुनील गावस्कर और दूसरे पर सचिन तेंदुलकर उतर आए हों बल्लेबाज़ी करने। कमाल के बल्लेबाज़ हैं दोनों। पहले सुनील गावस्कर ने गीत में अपना कमाल दिखाया और अब सचिन तेंदुलकर की बारी है ग़ज़ल के साथ सामने आने की। कमाल और धमाल दोनों तय हैं। यह ग़ज़ल ज़रा अलग मूड की है, यह होली की नहीं है यह होलिका दहन की ग़ज़ल है, वह होली जो हममे में से हर किसी संवेदनशील इन्सान के दिल में धधकती रहती है।सच कहा द्विज जी राजा और रानी नहीं याद आते, रोटी की कहानी ही याद आती है। बहुत ही सुंदर मतला है। और पहला ही शेर मानों मौजूदा दौर की पूरी कहानी कह रहा है तुम्हारी पासबानी और निज़ामे मुल्क से छेड़खानी, वाह ! उस्तादों की कहन ये होती है। और अगले ही शेर में रहबर का हमें हमसे ही भिड़ा देना, वाह किसी का नाम लिए बिना “हमें हमसे” कह कर मानों सब कुछ कह दिया है, ग़ज़ल का सलीक़ा यही तो होता है। हक़ीमों की मेह्रबानी का ज़िक्र भी कितनी मासूमियत के साथ अगले शेर में किया गया है सीने को दिए गए ज़ख़्मों का पूरा हिसाब कर देता है यह शेर, ग़ज़ब। और ग़ाफ़िल वतन की आँखें खोलता हुआ शेर कि तू कब तक ग़ाफ़िल रहेगा कि तेरी सरहदों पर ख़ून की बाग़बानी कुछ शहीद कर रहे हैं। तीखी धार वाला शेर। और दर्द से भरा हुआ शेर जिसमें सर्कस के तारों पर उछलती हालात के हाथों में फँसी हुई ज़िंदगी की तर्जुमानी है, आँखों की कोरों को गीला कर देता है। नौहाख़वानी….. ग़ज़ल को सुन कर जब यह याद आने लगे तो सचमुच हमारा समय बहुत कठिन हो गया है यह समझ लेना चाहिए। बहुत ही सुंदर शेर। और मकता तो मानों गज़ल की सीमित कर दी गई दुनिया के सारे दायरे तोड़ देना चाहता है। सच में हम सबको ग़ज़ल हिन्दोस्तानी ही चाहिए। न हिन्दी न उर्दू, बस हिन्दोस्तानी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई द्विज ने। कमाल के जलते हुए शेर निकाले हैं। वाह वाह वाह ।

holi_credit

तो मित्रो आज यह दोनो रचनाकार होली का मूड बनाने के लिए आए हैं। अपनी रचनाओं से आपके अंदर दबी हुई होली की फगुनाहट को जगाने के लिए। उस आनंद को जागृत करने जो शीत ऋतु में ठिठुर कर सो गया है। सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर की जोड़ी ने ज़बरदस्त ओपनिंग की है आज। आपका काम है कि हर एक शॉट पर दिल खोल कर तालियाँ बजाना, दाद देना, वाह-वाह करना। क्योंकि यही तो किसी रचनाकार को मिलने वाला सबसे बड़ा ईनाम होता है। और हाँ अपनी ग़ज़ल भी भेज दीजिए यदि आप इस आनंद उत्सव में शामिल होना चाहते हैं तो। यदि आपकी प्राथमिकता में अब ग़ज़ल नहीं है तो फिर वही करिये जो आपकी प्राथमिकता है क्योंकि ग़ज़ल यदि आपकी प्राथमिकता नहीं है, तो ज़बरदस्ती लिखने से कुछ होगा भी नहीं। बहुत से काम होते हैं करने को जीवन में। ग़ज़ल-वज़ल शायरी-वायरी तो फुरसतियों का काम है। कई बार सलाम करने का जी चाहता है उन लोगों को जो सफ़र में कहीं से कहीं जा रहे होते हैं और रास्ते से ही तरही की ग़ज़ल भेज देते हैं। असल में यह मुशायरा उन जैसे पागलों के दम पर ही चल रहा है। ग़ज़ल का कारोबार पागलों के दम पर ही चलता है। ग़ज़ल की दुनिया में अक़्लमंदों के लिए वैसे भी जगह नहीं है।अक़्लमंदों के पास बहुत काम हैं। अभी उनको मोदी, ट्रंप, राहुल गांधी, केजरीवाल, उत्तर कोरिया आदि आदि के बारे में काम करना है, अभी उनके पास ग़ज़ल कहने की फुरसत ही कहाँ है ? मगर हमारा काम तो इसलिए चल रहा है कि हमारे पास राकेश खंडेलवाल जी जैसे वरिष्ठ पागल और भाई द्विजेंद्र द्विज जैसे प्रखर युवा पागल हैं, जो अभी भी दुनियादार नहीं हुए हैं। आज की दोनों रचनाएँ एक डंके की तरह इस कठिन समय में गूँजती हैं, कि निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं अभी हम हैं। तो आप इन ग़ज़लों का आनंद लीजिए, वाह वाह कीजिए, और खुल कर इन पर दाद दीजिए। तो देते रहिए दाद । मिलते हैं अगले अंक में।

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