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Channel: सुबीर संवाद सेवा
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होली का रंग हवाओं में उड़ने लगा है, टेसू दहक कर कह रहे हैं कि आ जाओ होली में हमारे रंग रँग जाओ और हम तीन शायरों सुधीर त्यागी, प्रकाश पाखी तथा बासुदेव अग्रवाल नमन के हाथों में थमा रहे हैं पिचकारी।

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त्योहार होते क्या हैं ? कुछ नहीं बस एक उमंग को अपने दिल में भर कर अपनों के साथ आनंदित होने का अवसर होते हैं। तो इसको मतलब यह कि दो बातें किसी भी त्योहार को मनाने के लिए सबसे ज़रूरी होती हैं, सबसे पहले तो मन में उमंग हो और दूसरा अपनों का संग हो। हमारे तरही मुशायरे में भी यही दो बातें आवश्यक होती हैं। यहाँ आकर मन में उमंग आ जाती है और ढेर से अपनों का संग तो यहाँ हर दम हम सब को मिलता ही है। यह अलग बात है कि अब कुछ लोग त्योहारों की मस्ती में शामिल होने के बजाय साइड में कुर्सी लगाकर बैठ कर देखना पसंद करते हैं। इन देखने वालों का भी अपना महत्व होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कार्यक्रम स्थल तक नहीं आकर केवल अपने घर की खिड़की को अधखुला रख कर इस प्रकार देखते हैं कि उनको देखते हुए कोई देख न ले। हमारे लिए वे सब महत्वपूर्ण हैं, हमारा काम इन सबसे ही मिलकर चलता है। तो आइये अब होली के इस आनंद उत्सव को और आनंद से भर देते हैं। हमारे आस पास जो कुछ है उसे अपने रंग में रँग लेते हैं और हम उसके रंग में रँग जाते हैं। आइये होली मनाते हैं।

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इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

होली का रंग हवाओं में उड़ने लगा है, टेसू दहक कर कह रहे हैं कि आ जाओ होली में हमारे रंग रँग जाओ और हम तीन शायरों सुधीर त्यागी, प्रकाश पाखी तथा बासुदेव अग्रवाल नमन के हाथों में थमा रहे हैं पिचकारी।

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सुधीर त्यागी

टपकती छत, गरीबी, नातवानी याद आएगी।
कमी में इश्क से यारी पुरानी याद आएगी।

फिजाँ में इश्क़ हो बिखरा तो फिर गुल भी महकते है।
मुहब्बत में महकती रात रानी याद आएगी।

चली जाओगी तुम छू कर, तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा।
न जी पाएँगे, खुशबू ज़ाफरानी याद आएगी।

जुबां पर जब किसी की, नाम तेरे शहर का होगा।
हमें तब हूर कोई आसमानी याद आएगी।

किताबों के बहाने हाथ छूकर मुस्कुरा देना।
घड़ी भर इश्क की पहली कहानी याद आएगी।

न देखो यूँ समंदर के किनारे बैठे जोड़ों को।
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।

किसी ने सच कहा है कि प्रेम ही काव्य का सबसे स्थाई भाव है। प्रेम की कविता सबसे सुंदर कविता होती है। क्योंकि वह जीने का हौसला प्रदान करती है। जैसे सुधीर जी की ग़ज़ल में चली जाओगी तुम छूकर मिसरा बहुत ही ख़ूबसूरत बना है। इसमें तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा तो मानो सौंदर्य को दुगना कर रहा है। और उसके बाद मिसरा सानी में ज़ाफ़रानी ख़ुश्बू का ज़िक्र तो जैसे हम सबको यादों की यात्रा पर ले चलता है। इसी प्रकार किसी की ज़ुबाँ पर उसके शहर का नाम आते ही किसी आसमानी हूर की याद आ जाना, यह भी तो हम सबकी कहानी है। हम जो शहरों के नाम के साथ ही किसी विशिष्ट की याद में खो जाते हैं। और सबसे अच्छा शेर बना है किताबों के बहाने हाथ छूकर मुस्कुरा देना, वाह एकदम यादों के अंतिम छोर पर पहुँचा दिया इस शेर ने तो। और उसके बाद घड़ी भर इश्क़ की तो बात ही अलग है। सचमुच ये वो समय था जब घड़ी भर इश्क़ ही सबके नसीब में होता था। और उसके बाद कुछ नहीं। समंदर के किनारे बैठे जोड़ों को देखने में सचमुच यह होता है कि अपनी जवानी याद आती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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प्रकाश पाखी

ललित, नीरव की, माल्या की कहानी याद आएगी
कमाता चल तुझे अब रोज नानी याद आएगी।

अदा की रोशनी बुझने पर अब मातम मनाना क्यूँ
मिटी सरहद पे कमसिन कब जवानी याद आएगी।

इसी तरही को करना याद जब अरसा गुजर जाए
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।

बिना तरतीब घर मिलता, जगह पर कुछ नहीं मिलता
जरा गर दूर हो जाए, ज़नानी याद आएगी।

तुझे हासिल हुआ रुतबा, मुझे भी सब सिवा तेरे
नहीं है बस मुहब्बत वह पुरानी याद आएगी।

होली का एक रंग व्यंग्य का भी रंग होता है। तीखा और धारदार व्यंग्य जो कलेजे में कटार की तरह घुस जाए। और प्रकाश भाई ने मतले में ही जो व्यंग्य का गहरा रंग पिचकारी में भर कर सरसराया है तो मानों हमारे पूरे समय को ही रँग दिया है। मिसरा सानी तो अश-अश कमाल है, वाह वाह वाह। कमाता चल तुझे अब रोज़ नानी याद आएगी। एक दूसरे के लिए ही बने हुए मिसरे। और उसके बाद बात करता हूँ गिरह के शेर की बहुत ही अलग तरीके से और बहुत ही ख़ूबसूरत गिरह लगाई है। तरही को देखकर जवानी याद आ जाना, बहुत ही कमाल की गिरह है। कुछ लोगों को तो अभी से अपनी जवानी याद आ गई होगी, कि कभी वे भी तरही में अपनी ग़ज़लें भेजते थे, अब गठिया के कारण किनारे पर कुर्सी डाल कर बस ताली बजा रहे हैं। और घर की आत्मा, घर की रूह, घर की सब कुछ गृहस्वामिनी के लिए बहुत ही सुंदर शेर कहा है। सच में उसके ज़रा कहीं जाते ही पूरा घर अस्त व्यस्त हो जाता है। वो हमारे घर की तरतीब होती है, तहज़ीब होती है। उसके बिना हम बेतरतीब हो जाते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, क्या बात है वाह वाह वाह।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तेरे चहरे की जब भी अर्गवानी याद आएगी,
हमें होली के रंगों की निशानी याद आएगी।

तुम्हें भी जब हमारी छेड़खानी याद आएगी
यकीनन तुमको होली की सुहानी याद आएगी।

मची है धूम होली की जरा खिड़की से झाँको तो,
*इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी।*

जमीं रंगीं फ़िज़ा रंगीं तेरे आगे नहीं कुछ ये,
झलक एक बार दिखला दे पुरानी याद आएगी।

नहीं कम ब्लॉग में मस्ती मज़ा लो खूब होली का,
'नमन'ग़ज़लों की सबको शेर-ख्वानी याद आएगी।

किसी को याद करना अकेले में बैठ कर और उसके बहाने बहुत कुछ याद आ जाना, यही तो हमारे इस बार के मिसरे की ध्वनि है। यादों में खोने के लिए ही इस बार का मिसरा है। होली और वो भी उस समय की होली जब उमर में जवानी की गंध घुल रही होती है। उस उमर की बात करता हुआ हुस्ने मतला तुम्हें भी जब हमारी छेड़खानी याद आएगी और उस छेड़खानी में बसी हुई होली की सुहानी याद। यादें, यादें और यादें। जीवन बस यही तो होता है। और गिरह के शेर में उन लोगों को जगाने की कोशिश जो होली के दिन भी अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद करके बैठे हैं। उनको शायर जगा रहा है कि होली की इस धूम को देख कर अपनी जवानी को याद कर लो। और किसी एक के नहीं दिखने से होली की उमंग, मस्ती और आनंद का फीका होना और उससे अनुरोध करना कि झलक एक बार दिखला दे तो हर रंग में उमंग आ जाए। किसी एक के होने से ही तो होली होती है, वह नहीं तो कुछ नहीं होता। ग़ज़ल और होली का अनूठा संयोग किया है बासुदेव जी ने, होली के रंगों में रँगी हुई ग़ज़ल है पूरी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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कहते हैं कि जब जागो तब ही सवेरा होता है और हमारे यहाँ भी ऐसा ही होता है कि बहुत से लोग देर से ही जागते हैं। कुछ लोगों ने कल तरही की पहली पोस्ट लगने के बाद अपनी ग़ज़ल भेज दी हैं। चूँकि यहाँ तो दरवाज़े अंतिम पोस्ट लगने तक खुले रहते हैं। कभी भी दौड़ते हुए आओ और दरवाज़े का डंडा पकड़ कर ट्रेन में चढ़ जाओ। अपनी यह तरही की ट्रेन तो शिमला वाली खिलौना ट्रेन है जिसमें आप कभी भी कहीं भी सवार हो सकते हैं। हमारी यह ट्रेन मद्धम गति से चलती है। तो अभी भी आप में से वो जन जो कि ट्रेन में सवार होने के लिए घर से निकलूँ या न निकलूँ के इंतज़ार में हैं, वे निकल ही पड़ें। हमारी यह ट्रेन अपने एक-एक यात्री के इंतज़ार में रहती है। आइये आपका इंतज़ार है। और हाँ आज के तीनों शायरों ने होली का बहुत ही सुंदर रंग जमा दिया है। लाल, नीले, हरे, पीले, गुलाबी, सिंदूरी सारे रंगों से रँगी हुई अपनी ग़ज़लों से महफ़िल में हर तरफ़ रंग ही रंग कर दिया है। और जब शायरों ने इतनी मेहनत की है तो आपको भी तो करनी होगी, दाद देने में वाह वाह करने में । तो देते रहिए दाद करते रहिए वाह वाह मिलते हैं अगले अंक में।


आज होलिका दहन की फाल्गुनी पूर्णिमा है आज से होली का पर्व प्रारंभ हो जाता है, आइये आज हम नुसरत मेहदी जी, द्विजेंद्र द्विज जी, निर्मल सिद्धू जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, राजीव भरोल और दिगंबर नासवा के साथ तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।

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होली का त्योहार भी आ ही गया। और इसके साथ ही हर तरफ़ रंग ही रंग बिखरते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों आसमान के इंद्रधनुष ने कुछ समय के लिए हमारे देश की धरती पर उतर कर विश्राम करने का निर्णय ले लिया हो। हर तरफ़ रंगों का उल्लास बिखरता दिखाई दे रहा है। जैसे प्रक़ृति के सारे रंगों को चुरा कर हम एक दूसरे को आज हर रंग में रँगने को तैयार हो गए हों। आज रात होलिका दहन होगा और कल से रंग का पर्व प्रारंभ हो जाएगा। प्रारंभ शब्द इसलिए क्योंकि हमारे यहाँ मालवा में धुलेंडी को और दूज को रंग होता है। फिर रंग पंचमी को महा रंग होता है। इस बीच होली के फाग गायन, होली मिलन आदि के कार्यक्रम तो बहुत दिनों तक चलते रहते हैं। तो हम भी इस पाँच दिन के रंग पर्व में आज से सराबोर होने जा रहे हैं। हमारे लिए भी अब सब कुछ भूल कर बस उल्लास और उमंग में खो जाने का समय आ चुका है। हो लीजिए होली के रसिया। होली है।

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इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

मित्रो आज होलिका दहन की फाल्गुनी पूर्णिमा है आज से होली का पर्व प्रारंभ हो जाता है, आइये आज हम नुसरत मेहदी जी, द्विजेंद्र द्विज जी,  निर्मल सिद्धू जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह, राजीव भरोल और दिगंबर नासवा के साथ तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं।

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सबसे पहले तो हम सबकी ओर से आदरणीया नुसरत मेहदी जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, और गौतम राजरिशी के शब्दों में “हमारी अपनी परवीन शाकिर” को यशस्वी जीवन की दीर्घ मंगल कामनाएँ। वे इसी प्रकार खूब सृजन करती रहें, अपनी ग़ज़लों से, अपने शेरों से, अपने गीतों से हम सबको रंग से सराबोर करती रहें। उनके शेरों में जो ताज़गी और जो अपने पर अपने होने पर एक प्रकार का स्वा​भिमान होता है, वह देर तक हमें उनकी कहन के रंग में ​भिगोए रखता है। और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह कि बावजूद इसके कि वे उर्दू अकादमी की सचिव, नेशनल बुक ट्रस्ट की सदस्य और और बहुत पदों पर हैं, लेकिन वे तरही मुशायरे के लिए समय निकाल कर हमेशा अपनी ग़ज़ल समय पर भेज देती हैं। यही वो बात है जो किसी भी रचनाकार को विशिष्ट बना देती है। ऊँचाइयों की ओर बढ़ते समय सहज और सरल बने रहना ही सबसे ख़ास बात होती है। और नुसरत मेहदी जी में वो खास बात इतनी है कि यह सरलता ही उनके शेरों को अपनेपन की महक से भर देती है। वे इसी प्रकार अपनी ग़ज़लों से हमारे समय को रौशन करती रहें, उनके होने से हमारे जीवन में कुछ ख़ूबसूरत ग़ज़लें होती हैं। हम सबकी ओर से उनको जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

नुसरत मेहदी जी

कहीं जाओ बसंती रुत सुहानी याद आएगी
नए मौसम में इक ख़ुशबू पुरानी याद आएगी

वो आंगन में महकती रातरानी याद आएगी
तुम्हे गांव की अपनी ज़िन्दगानी याद आएगी

वो हुलियारों की टोली और वो हुड़दंग घर घर में
शरारत से किसी की छेड़खानी याद आएगी

वो होली के बहाने लम्स के जादू जगा देना
दिलों की बात रंगों की ज़बानी याद आएगी

तुम्हारे नाम से जिसने बसा रक्खी थी इक दुनिया
वो अल्हड़ उम्र की लड़की दिवानी याद आएगी

घने पीपल तले तन्हाई में क़िस्से मोहब्बत के
वो पनघट पर जो पनपी थी कहानी याद आएगी

वो चेहरा ज़ाफ़रानी वस्ल के रंगी तसव्वुर से
उड़ी जाती थी इक चूनर जो धानी याद आएगी

वो उजले पैरहन पर रंग होली के उभर आना
वो पल में ख़्वाहिशों की खुशबयानी, याद आएगी

नई एक दास्ताँ जब भी लिखोगे तुम ज़माने में
तो इक आधी अधूरी सी कहानी याद आएगी

नए मौसम में आने वाली उस पुरानी ख़ुशबू का ज़िक्र जैसे ग़ज़ल के प्रारंभ होते ही हमें यादों के गलियारे में ले जा रहा है। ख़ूबसूरत मतला। और उसके बाद उतना ही सुंदर हुस्ने मतला गाँव जिसे हम छोड़ आए हैं उस गाँव के घर में महकती रातरानी की बात आते ही साँसों में सुगंध समा गई जैसे। होली के पूरे रंग में रंगी हुई है यह ग़ज़ल। ऐसा लगता है जैसे रंगों से ही लिखी हुई हो। शरारत से किसी की छेड़खानी के याद आने में जो मासूमियत है, वह बार बार शेर को सुनने पर मजबूर कर रही है। और होली के बहाने लम्स के जादू……. उफ़्फ़….. सच में यही तो होली थी। ग़ज़ब का शेर। और अगले दोनों शेर जो प्रेम के रस में सराबोर हैं तुम्हारे नाम से जिसे बसा रक्खी थी में अल्हड़ उम्र की लड़की….. ये तो हम सबकी कहानी है….. और घने पीपल वाला शेर एकदम कलेजे में उतर जा रहा है। हम सबके जीवन में यह घना पीपल ज़रूर आया है। ज़ाफ़रानी वस्ल के रंगी तसव्वुर….. वाह उस्तादाना अंदाज़ और किसे कहेंगे ? ख़्वाहिशों की ख़ुशबयानी का उम्र के किसी मोड़ पर याद आना।  नई एक दास्ताँ जब भी लिखोगे में आधी अधूरी सी कहानी….. होली में रोना मना होता है मगर यह सुन कर पलकें खुद ब खुद भीग जाएँ तो कोई क्या करे ? बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल, शानदार, वाह वाह वाह।

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द्विजेन्द्र द्विज

किसी होली की वो पहली निशानी याद आएगी
घड़ी, जिसमें हुई थी आग पानी, याद आएगी

सुलगते मौसमों में रुत सुहानी याद आएगी
नई दुनिया में वो दुनिया पुरानी याद आएगी

हवा का जोश, मौजों की रवानी याद आएगी
बुढ़ापे में जवानी की कहानी याद आएगी

छुपी है पंखुड़ी इक आज जो इस दिल के पन्नों में
इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी

बहुत बेताब करती थी ख़याले यार की ख़ुशबू
जुनूँ के मौसमों की रातरानी याद आएगी

जो सिर चढ़ कर कभी बोला किसी के प्यार का जादू
तो पतझड़ में भी ख़ुश्बू ज़ाफ़रानी याद आएगी

करिश्मासाज़ होती है बड़ी दिल में बसी सूरत
हर इक सूरत से सूरत आसमानी याद आएगी

जिसे लश्कर भी ख़ुशियों के न छू पाए कभी आकर
ग़मों की उम्र भर वो राजधानी याद आएगी

मुझे रह-रह अकेलेपन के सन्नाटे के जंगल में
तुम्हारे साथ बीती ज़िन्दगानी याद आएगी

बदलती है दुपट्टे ज़िन्दगी ! कितने ही तू लेकिन
हमें अक्सर तेरी चुनरी वो धानी याद आएगी

ख़ुदा ना ख़्वास्ता हालात जब तेरी ज़ुबाँ सिल दें
बुज़ुर्गों की तुम्हें ’द्विज’ बेज़ुबानी याद आएगी

आज तो लगता है कि उस्तादों का ही दिन है। भाई द्विज तो वैसे भी उस्ताद शायर ही हैं। मतला और उसके बाद के दोनों हुस्ने मतला एक दम एक दूसरे से बढ़कर हैं। मतले में होली की वो पहली निशानी जिसमें आग का पानी होना….. उफ़्फ़ क्या उस्तादाना सलीक़े से बात कह दी है। ग़ज़ब। और नाज़ुक सा शेर जिसमे दिल के पन्नों में छिपी हुई फूल की पंखुड़ी का ज़िक्र है… क्या नफ़ासत है, याद का इससे सुंदर चित्रण और क्या होगा भला ? जूनूँ के मौसमों की रातरानी…… ऐसा लगता है कि आज शेरों से ही मार डालने का इरादा लेकर निकले हैं, ग़ज़्ज़्ज़्ज़ब…. क्या शब्दों की कारीगरी है भई। और अगले ही शेर में पतझड़ में महकती जाफ़रानी ख़ुशबू साँसों में गहरे उतर गई। प्रेम के कितने रंग भरे हैं भाई द्विज ने इस ग़ज़ल में, दिल में बसी सूरत को सूरत आसमानी तक लेकर जाना बस शायर के तसव्वुर का ही कमाल होता है।  और अगले तीनों शेरों में विरह के रंग भरे हुए हैं। उदासी के भूरे रंग से लिखे हुए हैं ये शेर। ग़मों की राजधानी हो या अकेलेपन के सन्नाटे के जंगल हों हमें हमेशा एक चुनरी धानी याद आती ही है। और मकते का शेर तो जैसे सबकी ज़ुबाँ पर ताला लगाने वाला है। क्या बड़ी बात एक शेर में कह दी है भाई जियो… बहुत ही सुंदर ग़ज़ल… ग़ज़ब वाह वाह वाह

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निर्मल सिद्धू जी

गुलों की इक हसीं दिलकश कहानी याद आयेगी
मुहब्बत की मिली थी जो, निशानी याद आयेगी,

ये होली के नज़ारे हैं, ये रंगो की बहारें हैं
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी
,

उड़ा करते थे हम तो इश्क की रंगी फिज़ाओं मे
वो मस्ती का समां वो रुत सुहानी याद आयेगी,

कभी जब रंग बरसेगा युं माज़ी के झरोखों से
सकूं दिल को मिलेगा जब पुरानी याद आयेगी
,

जो रहती थी सदा गुमसुम मेरे ही प्यार मे हरदम
जलेगी दिल मे जब होली, दिवानी याद आयेगी ।

नशे मे डूबे 'निर्मल 'को हसीं चेहरा दिखेगा जब
उसे अपनी वो गुजरी ज़िन्दगानी याद आयेगी ।।

गुलों की हसीं दिलकश कहानी में बसा हुआ मतला जो मुहब्बत की पहली निशानी के मिसरा सानी तक पहुँच रहा है, बहुत प्रेमिल अंदाज़ में अपनी बात कह रहा है। प्रेम सचमुच काव्य का, जीवन का, हम सबका स्थाई भाव होना ही चाहिए। प्रेम को यदि स्थाई भाव बना लिया जाए तो जीवन आसान हो जाए और इश्क़ की रंगी फिज़ाओं को उस मस्ती के समाँ को याद न करना पड़े जिसमें हम उड़ा करते थे। बहुत सुंदर शेर। और माज़ी के झरोखे से बरसते हुए रंग से दिल का सुकूं पा जाना यही तो जीवन है और यही तो प्रेम है। कबीर भी इस ही वर्षा की बात करते हैं। इस कान्फिडेंस पर कौन न क़ुर्बान जाए कि वो मेरे ही प्यार में गुमसुम रहती थी, यह बिल्कुल पक्का है। हाँ लेकिन यह भी सच है कि जब भी दिल में होली जलती है तब वही एक चेहरा सबसे पहले याद आ जाता है। होली असल में हमारे दिल में बरसों बरस से सुलग रही है और बरसों बरस तक सुलगती रहेगी, यह बुझ जाएगी तो हमारा जीवन भी समाप्त हो जाएगा। और मकते तक आते-आते हर शायर कान्फिडेंस से कन्फ़ेशन की मुद्रा में आ ही जाता है। नशे में डूबे निर्मल को हसीं चेहरा दिखते ही पुराना समय याद आ रहा है। किसको नहीं याद आता है वह बीता समय, वह बीती ज़िंदगानी। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

RAJIV BHAROL

राजीव भरोल

पुराने दोस्तों की मेज़बानी याद आयेगी
तुम्हें महलों में भी बस्ती पुरानी याद आयेगी

वो फुर्सत की दुपहरी और वो फरमाइशी नगमे
तुम्हें परदेस में आकाशवाणी याद आएगी

समंदर का सुकूं बेचैन कर देगा तुम्हें जिस दिन
नदी की शोख लहरों की रवानी याद आएगी

फकीरी सल्त्नत है हम फकीरों की तुम्हें इक दिन
हमारी सल्तनत की राजधानी याद आएगी

कभी जब आसमानों की हदों का ज़िक्र होगा तो
थके हारे परिंदों की कहानी याद आएगी

गले लग जाएगा आकर वो इक दिन देख लेना तुम
उसे खुद दी हुई अपनी निशानी याद आएगी

बहारे गुल हसीं चेहरे गुलो गुलफाम क्या देखें
इन्हें देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी

मतले के साथ ही ग़ज़ल नॉस्टेल्जिया लेकर आती है। एक नए मेज़बानी पुराने दोस्तों की…. वाह वाह क्या बात कही है। कभी कभी किसी मिसरे में एक दो शब्द ही इस प्रकार संगठित होते हैं कि वो मुकम्मल ग़ज़ल ही हो जाते हैं। अगला शेर पढ़कर ऐसा लग रहा है कि बस बुक्का फाड़ के रो ही दिया जाए। यादों का इससे सुंदर चित्रण और क्या हो सकता है, फुर्सत की दुपहरी, फरमाइशी नगमे और आकाशवाणी…. बस कर पगले रुलाएगा क्या? और फिर अगला ही शेर दो तुलनाएँ लिए खड़ा है, नदी की शोखी और समंदर का सुकून…. जैसे हम सबके जीवन का फ़लसफ़ा लिख दिया गया हो दो मिसरों में। ग़ज़ब। और अगला शेर उस्तादाना अंदाज़ में कहा गया है। जिसमें अपने दिल को अपनी सल्तनत की राजधानी बताते हुए चैलेंज है कि तुम चाहे जहाँ रहो तुमको इसकी याद आएगी ही आएगी। आसमानों की हदों का ज़िक्र और परिंदों की कहानी, यह एक बार फिर पलकों की कोरों को नम करने वाला गीत है। और अगला शेर दुष्यंत और शकुंतला के बीच की कहानी को ही मानों अभिव्यकत कर रहा है। लेकिन समय का पहिया अक्सर यही करता है कि याद आते आते बहुत देर हो जाती है। निशानी पुरानी हो चुकी होती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह ।

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

रगों को ख़ून की जब-जब रवानी याद आयेगी
नसों में गुम हुई है जो कहानी याद आयेगी

किसी के हुस्न पर चढ़ जाएगा जब इश्क़ का जादू
मुझे तेरी ही रंगत ज़ाफ़रानी याद आयेगी

महक उट्ठेंगे मन के ज़ख़्म जब-जब चाँदनी छूकर
खिली जो दोपहर में रातरानी याद आयेगी

मैं भूखा और प्यासा जिस्म के सहरा में भटकूँगा
तो तेरे लब की नाज़ुक मेज़बानी याद आयेगी

बड़े होकर ये दोनों पेड़ देंगे वायु, फल, छाया
तो दुनिया को हमारी बाग़बानी याद आयेगी

निरंतर सींचते रहिए है नाज़ुक प्यार का पौधा
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी

धमेंद्र के तेवर हमेशा अलग ही रहते हैं। कुछ तल्ख़ और सवाल पैदा करते हुए शेर कहना इनकी फितरत है। मतला ही ऐसे ज़बरदस्त अंदाज़ के साथ शुरू हो रहा है कि बस, रगों को ख़ून की रवानी याद आना और उस बहाने से गुम हो चुकी कहानी…. ग़ज़ब है भाई… ग़ज़ब। और उसके बाद एकदम प्रेम का शेर जिसमें किसी दूसरे पर किसी तीसरे का रंग, जादू चढ़ जाने पर हमें किसी अपने की रंगत ज़ाफ़रानी याद आ रही है। मुझे लगता है कि प्रेम का रंग इस बार के मुशायरे के बाद गुलाबी से बदल कर ज़ाफ़रानी कर दिया जाना चाहिए। और….. दोपहर में रातरानी का खिलना… ग़ज़ब का सलीक़ा है भाई कहने का…. क्या ज़रूरी है कि हर बात को खुल कर कहा जाए, ग़ज़ल का सलीक़ा और तरीक़ा क्या होता है यह इस शेर से पता चल रहा है। और फिर एक बार उस्तादाना अंदाज़ में कहन आई है तेरे लब की नाज़ुक मेज़बानी….. इन शब्दों के गूँथने का प्रभाव केवल कोई रसिक प्राणी ही बता सकता है। और अगला शेर दाम्पत्य जीवन, गृहस्थाश्रम की सजीली बानगी प्रस्तुत कर रहा है। हम सबकी बाग़बानी हमारे बाद याद आती है। अंत में गिरह का शेर प्यार के पौधे के सींचने के साथ बहुत ख़ूबी से बना है। जवानी उसी को देखकर याद आएगी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह।

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दिगंबर नासवा

झुकी पलकें चुनरिया आसमानी याद आएगी
छुपा कर दिल में रक्खी हर कहानी याद आएगी

हमारे प्रेम के सच पर जिसे विश्वास था पूरा
गुज़रते वक़्त की परियों सी नानी याद आएगी

न गर्मी की ही है पदचाप ना सर्दी की हलचल है
हवा धूली ही होली की निशानी याद आएगी

ये ढोंगी मीडिया पानी की बर्बादी पे रोएगा
इन्हें ये बात होली पर उठानी याद आएगी

गुलालों से के कीचड़ से इसे होली से मत रोको
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

भले मामा कहेंगे उसके बच्चे देख के मुझको
वो मिल जाएगी तो होली पुरानी याद आएगी

चढ़ा के भांग देसी रम विलेती सोमरस हाला
गटर के गंद में ही रुत सुहानी याद आएगी

और अंत में एक शेर जो पूरी तरह से होली के रंग में रँगी हुई है। मतले में प्रेम की वो आसमानी चुनरिया लहरा रही है, जिसके लहराने से मन के अंदर हर तरफ़ आसमानी रंग फैल जाता है। जब वो लहराती है तो छिपा कर रखी हुई हर कहानी का याद आना तो बनता है। और अगले शेर में प्रेम के सच पर विश्वास, वाह तीन शब्दों को आपस में गूँथ कर क्या कमाल का टुकड़ा बनाया है, हमारे समय के तीन बड़े शब्द हैं ये प्रेम, सच और विश्वास, ग़ज़ब जोड़ा है तीनों को। शेर की हाइट है ये कि नानी परियों सी हैं, हम सबकी नानियाँ परियों सी ही होती हैँ। और अगला शेर मानों मेरे दिल की बात कह रहा है। सच में मुझे भी बहुत क्रोध आता है जब ऐन होली के समय ही मीडिया को पानी की बर्बादी की बात सूझती है। जिनकी कारें हज़ारों लीटर पानी से धुलती हैं, वो पानी की बर्बादी की बात करते हैं। और बचपन की मासूमियत को होली मनाने से नहीं रोकने की बात करने वाला शेर बहुत अच्छे से गिरह का शेर बन गया है। और अगले ही शेर में बहुत ही मासूमियत के साथ स्वीकार कर लेना कि अब उसके बच्चे मामा कह कर बुलाते हैं। इस मासूमियत पर तो सब कुछ क़ुर्बान। आय हाय टाइप का शेर बन गया है यह। और अंत के शेर की रुत सुहानी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह

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तो मित्रो आज तो छह रचनाकारों ने मिल कर होली का ज़बरदस्त रंग जमा दिया है। यही तो वह रंग है जिसके लिए बार-बार हम अपने तरही मुशायरे की तरफ़ लौटते हैं। हर बार लगता है कि इस बार उत्साह की कमी है, लेकिन जैसे-जैसे समय आता है, वैसे-वैसे लोग उत्साह से भरने लगते हैँ। और एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आने लगती हैं।  कई लोगों का उत्साह तो तरही मुशायरा शुरू हो जाने के बाद एकदम से बढ़ता है। मैंने तो पहले ही कहा है कि हमारी तो यह शिमला वाल खिलौना ट्रेन है, इसमें आपकी जब भी इच्छा हो, आप तब आकर बैठ सकते हैँ। हम तो धीमी रफ़्तार से चलते रहेंगे। और तो और हम तो कई दिनों तक बासी मुशायरा भी चलाते रहते हैं। मतलब यह कि अगर आप बाद में भी उत्साह में आ रहे हैं तो बाद में भी कह दीजिए ग़ज़ल, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। आपके लिए बासी होली का आयोजन भी कर दिया जाएगा। हमारा मक़सद तो बस यही है कि आपके अंदर की रचनाधर्मिता बनी रहे। वह रचनाधर्मिता जो आपको अंदर से नम बनाए रखेगी, आपको सुंदर बनाए रखेगी। ख़ैर यह तो तय है कि आज के छहों शायरों ने कमाल किया है। तो आपकी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ी हुई है अब आपको देर तक तालियाँ बजानी हैं और देर तक वाह वाह करनी है। करते रहिये।

होली है भई होली है हम मस्तों की टोली है, सबको रंग भरी शुभकामनाएँ और आज हम सात रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी, सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, नकुल गौतम, अनीता तहज़ीब जी और रजनी नैयर मल्होत्रा जी के साथ होली का यह त्योहार मनाते हैं। 

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होली है भइ होली है हम मस्तों की टोली है आज नहीं टकराए कोई रंग से भर ली झोली है। आप सभी को रंगों की मस्ती से भरे हुए पर्व होली की मंगल कामनाएँ। होली का यह त्योहार आप सभी के जीवन में खुशियों की, सुखों की गुलाल बिखेरे। शांति का हरा रंग, यश का लाल रंग, आनंद का नीला रंग, अपनेपन का पीला रंग, रस का केसरिया रंग, मिलन का फिरोजी रंग, स्वाभिमान का बैंगनी रंग और प्रेम का गुलाबी रंग आपके जीवन में सदा बिखरे रहें, कभी आपको इनकी कमी महसूस नहीं हो। आप हमेशा रंगीले रतन बने रहें। होली के रसिया बने रहें। क्योंकि रंगीले रतन होने का ही मतलब है कि आप जीवन को जीवन की ही तरह जीते रहेंगे। आनंद से भरे रहेंगे। इस बार की होली में आपको ऐसा रंग लगे जो जीवन भर उतरे ही नहीं। आप सारी दुनिया को अपने रंग में रँग लें। आपकी रचनाओं, आपकी ग़ज़लों आपके शेरों की  पिचकारियाँ इस प्रकार चलें कि सुनने वाले उनमें भीगते रहें, और अंदर तक उस रंग की छुअन को महसूस करते रहें। आप होली के हर रंग के आनंद को हर समय महसूस करते रहें। रंगों से भरी, उमंगों से भरी, तरंगों से भरी हुई इस होली पर आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ। होली है भई होली है रंगों वाली होली है, होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।



होली है भई होली है हम मस्तों की टोली है, सबको रंग भरी शुभकामनाएँ और आज हम सात रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी, सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, नकुल गौतम, अनीता तहज़ीब जी और रजनी नैयर मल्होत्रा जी के साथ होली का यह त्योहार मनाते हैं।
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी




राकेश खंडेलवाल जी

खुनक में भंग पीकर के ये तरही दी है होली में
लगा ननदी लगी कहने ये भावज से ठिठोली में
ब्लागर जो हैं कवि शायर कभी बूढ़े नहीं होते
भला किस तरह तरही में है सम्भव फिर ग़ज़ल होते
सुने 'ये रस्म हमसे तो नहीं निभने में आएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

अभी कल शाम हो को तो ज़रा सा मश्क भीगी हैं
अभी उतरी है आँखों में गुलाबों की रंगीनी है
अभी तो दास्ताँ ए इश्क़ को आगाज करना है
अभी तो हुस्न के आगे नई परवाज़ भरना है
इबारत किस तरह बतलाए फिर होंठों पे आएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

अभी परसों ही तो हमने है कलिज की गली देखी
अभी कल शाम ही को तो कोई खिलते कली देखी
जो मिलते हैं किताबों में अभी वे पत्र लिखने है
अभी उपवन से जूड़े के लिए कुछ फूल चुनने हैं
ये तरही आपके दर पर पलट कर ख़ाली जाएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

लिखे तरही पे वो कैसे जिसे लिखना नही आता
रदीफों काफिया से है न बहरो वज़्न से नाता
हुआ परिचय न कविता से न रिश्ता गीत से जिसका
भला कैसे रहेगा फिर ग़ज़ल पर कोई बस उसका
ये होली तो बिना ग़ज़लें लिए इस बार जाएगी
कि जब हो जाएंगे बूढ़े जवानी याद आयेगी
होली का हास्य और व्यंग्य से भरा हुआ यह गीत मानों होली के आगमन की सूचना दे रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे होली तो आ ही गई है और सच कहा है कि कवि और शायर तो कभी भी बूढ़े नहीं होते हैं और वह तो बार-बार लौट कर आते हैं त्यौहार को मनाने । जरा सी मश्क़ भीगी हो और आंखों में गुलाब की रंगीनी हो तो फिर होली तो हो ही जाती है । कॉलेज की वह गली जो हमने आज ही देखी है और वहां पर कोई कली खिलते हुए देखी है  तो फिर होली का यह रंग भला आंखों में क्यों नहीं खिलेगा । किताबों में अभी तो पत्र रखे हुए देखे ही जा रहे हैं  और अभी  किसी के  लिए फूल चुनने  जाता हुआ यह  प्रेमी होली  अपने ही अंदाज में मनाना चाह रहा है । ग़ज़ल लिखने के लिए रदीफ़ काफिया से ज्यादा जरूरत होती है अंदर शायर के होने की और वह इस शायर में कूट कूट कर भरा है इसीलिए इतना सुंदर गीत जन्म ले चुका है । वाह वाह वाह, बहुत ही सुंदर गीत कहा है होली की मस्ती में भरा हुआ गीत



सौरभ पाण्डेय जी

अभी इग्नोर कर दो, पर, ज़ुबानी याद आयेगी
अकेले में तुम्हें मेरी कहानी याद आयेगी

चढ़ा फागुन, खिली कलियाँ, नज़ारों का गुलाबीपन
कभी तो यार को ये बाग़वानी याद आयेगी

मसें फूटी अभी हैं, शोखियाँ, ज़ुल्फ़ें, निखरता रंग
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

मुबाइल नेट दफ़्तर के परे भी है कोई दुनिया
ठहर कर सोचिए, वो ज़िंदग़ानी याद आयेगी

कभी पगडंडियों से राजपथ के प्रश्न मत पूछो
सियासत की उसे हर बदग़ुमानी याद आयेगी

मुकाबिल हो अगर दुश्मन निहायत काँइयाँ फिर तो
बरत तुर्की-ब-तुर्की ताकि नानी याद आयेगी

बहुत संतोष औ’ आराम से है ज़िन्दग़ी कच की
मगर कैसे कहे, कब देवयानी याद आयेगी ?

सदा रौशन रहे पापा.. चिराग़ों की तरह ’सौरभ’
मगर माँ से सुनो तो धूपदानी याद आयेगी
 
अभी इग्नोर कर दो पर जुबानी याद आएगी अंग्रेजी के शब्द का बहुत ही खूबसूरती के साथ उपयोग किया गया है और फिर अकेले में हमारी कहानी का याद आना बहुत सुंदर बन पड़ा है। चढ़ता हुआ फागुन खिलती हुई कलियां और नजारों का गुलाबीपन यह बागवानी सचमुच ऐसी है जो रहती उम्र तक हर किसी को याद रहने वाली है बहुत ही अच्छा शेर वाह। और अगला ही शेर किसी की टूटती हुई मसें और जुल्फों को देखकर आती याद अपनी जवानी के नाम जवानी जो बीत गई है और याद आ रही है। मोबाइल और नेट के परे एक दुनिया है जो सचमुच की हमारी जिंदगी है जिसको हम भूल चुके हैं और उसको याद दिलाता हुआ यह शेर बहुत खूबसूरत बन पड़ा है। और राजपथ की पगडंडियों से प्रश्न नहीं पूछने में जो व्यंग शायर कस रहा है वह हमारे समय पर तीखा कटाक्ष है। और जब मुकाबिल दुश्मन काया हो तो उसको नानी याद दिलाने की बात हमारे समय का एक कड़वा सच है लेकिन हम सबको ऐसा बनना पड़ता है। बहुत खूबसूरत। और निशब्द करता हुआ मकते का शेर जिसमें दीपक और धूप दानी के साथ मां और पिता का बहुत श्रद्धा के साथ जिक्र है। इस शेर पर शायद कोई कमेंट नहीं किया जा सकता। ये आत्मा का शेर है इसे रूह से महसूस करना पड़ेगा बहुत खूबसूरत शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।




द्विजेंद्र द्विज

घड़ी जब मैं हुआ था पानी-पानी, याद आएगी
मुझे अक्सर वो इक होली पुरानी याद आएगी

मेरे दिल से तेरी वो छेड़खानी याद आएगी
जो मुझसे की थी तूने बेइमानी याद आएगी


तेरी तहज़ीब सारी ख़ानदानी याद आएगी
हुई जो साथ मेरे बदज़ुबानी याद आएगी

बुला कर घर मुझे तूने तमाशा जो बनाया था
मुहल्ले भर को मेरी वो कहानी याद आएगी


तेरी मम्मी ने वो मुझ पर जो दे मारा था गमला ही
मुझे उसकी अदा-ए-गुलफ़िशानी* याद आएगी
(फूल बरसाने की अदा)

“लफ़ंगा तू , हरामी तू, फ़रेबी तू , मवाली तू”
तेरे पापा की मुझको प्रेम- बानी याद आएगी


जकड़ कर काँख में गर्दन, मला मुँह पर मेरे गोबर
तेरे भाई की मुझको पहलवानी याद आएगी

वो धक्कमपेल थी कैसी बताऊँ किस तरह यारो
फटी कैसे मेरी थी शेरवानी याद आएगी


तमंचे पर किया मैंने वहाँ जो देर तक डिस्को
तेरे घर की मुझे वो मेज़बानी याद आएगी

चबा कर वो मेरी पिंडली रफ़ूचक्कर हुई जानम !
तेरे बंगले में थी कुतिया जो कानी याद आएगी


फिर उसके बाद जब आने लगा था घर को मैं अपने
तेरे जीजा ने की जो छेड़खानी याद आएगी

तेरा बनकर यूँ बुत ऐसे तमाशा देखना मेरा
मेरी गत पर तुम्हारी बेज़बानी याद आएगी


कभी होली पे यूँ महबूब के घर मत चले जाना
घसीटेंगे जो कीचड़ में तो नानी याद आएगी
ग़ज़ल हुस्ने मतला तीसरे वाले से शुरू होती है जब हमें उनकी तहजीब सारी खानदानी एक बदजुबानी से ही याद आ जाती है बहुत ही खूबसूरत और मजा देने वाला शेर है। और उसके बाद धमाके की तरह आता है शेर जिसमें घर बुलाकर तमाशा बनाने की वह कहानी जो सारे मोहल्ले को पता है। और अम्मा द्वारा गमला फेंक फूल बरसाने का जो दृश्य है वह तो अकेले में अगर दिमाग में आ जाए तो हंस हंस के लोटपोट होने के अलावा और क्या किया जा सकता है । कमाल का दृश्य बनाया है। और फिर लगा हुआ शेर जिसमें पिताजी द्वारा की गई कमाल की तारीफें भांति-भांति की उपमाओं द्वारा संकलित की गई हैं हा हा हा क्या बात है। मां और पिता के बाद भाई द्वारा कांख में दबा कर गोबर मलना और पहलवानी दिखाना तत्पश्चात शेरवानी का शहीद हो जाना सारी शेर एक के बाद एक मानो आशिक के बारे में तफ़सील से जानकारी प्रदान कर रहे हैं बहुत खूब बहुत खूब। तमंचे पर किए गए डिस्को का इतना बेहतरीन प्रयोग इससे पूर्व किसी शहर में नहीं किया गया होगा यहां आकर शायर ने कमाल ही कर दिया है आनंद का मंगलमय शेर है यह। फिर आशिक की खबर लेता जीजा और रही सही कसर निकालती मोहल्ले की कानी कुतिया, मतलब हर एक ने मिलकर उसके बैंड बजाए। इसीलिए वह कह उठता है कि मत जाना उस गली में वरना नानी याद आ जाएगी। होली की अति सुंदर हजल, हंस-हंसकर पेट दुखने वाली। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह




गिरीश पंकज जी

वो होली में दिखेगी फिर तो नानी याद आएगी
मोहल्ले की वो मोटी और सयानी याद आएगी

गज़ब त्योहार होली का हमें रंगीन कर देता
हमें हर बार बचपन की कहानी याद आएगी


मज़े से रंग जो खेले वही बच्चा लुभाता है
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

मुझे होली में इक लड़की ने लोटा फेंक मारा था
मेरे माथे पे है उसकी निशानी याद आएगी


बड़ी मस्ती से खेलो रंग सबके संग में यारो
तुम्हें हर पल यही मस्ती सुहानी याद आएगी

अभी तुम जिंदगी में रंग जितने हो सको भर लो
बुढ़ापे में तुम्हें यह जिंदगानी याद आएगी


तुम्हारे दिल की जो रानी उसे होली में रंग देना
हमेशा फिर वही हरकत पुरानी याद आएगी

बड़ा रंगीन है त्योहार इसमें भंग मस्ती की
जरा इसका मज़ा लो नौजवानी याद आएगी


ये होली ढाई आखर प्यार के पंकज सिखाती है
हमें ताउम्र कबिरा की ये बानी याद आएगी
न जाने वह कौन है जिसको होली में देख कर शायर को नानी याद आ रही है हालांकि मिसरा सानी में बता दिया गया है कि वह किस शारीरिक संरचना की बात कर रहा है। यह बिल्कुल सच है कि होली का त्योहार हमें बार-बार बचपन की कहानी की याद दिला देता है। और जो बच्चा मजे से रंग खेलता हुआ दिखता है उसे देखते हैं तो हमें अपनी जवानी अपना बचपन अपना लड़कपन याद आ जाता है, वह जो बीत चुका है। बहुत सुंदर दोनों शेर। शायर को भी वह निशानी याद आती है जो बचपन में किसी के द्वारा होली पर लोटा फेंक कर मारने से बनी है। यह निशानियां ही जिंदगी का सरमाया होती हैं और तो क्या होता है हमारे जीवन में। आगे के तीनों शेर मानो होली का पूरा फ़लसफ़ा लिए हैं सच बात यही है कि आज मस्ती से रंगो में डूब जाइए क्योंकि आज जिंदगी में जितने रंग भर सकेंगे वही रंग बुढ़ापे में हमें इस जिंदगानी की याद दिलाएंगे। और जो कोई आपका है उसे होली में रंग दो क्योंकि फिर हमेशा वही हरकत पुरानी याद आती रहती है। और अंत में होली के बहाने दिया जाने वाला वही प्रेम का संदेश जो कबीर ने दिया था कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय उसी के साथ समाप्त होती है यह सुंदर ग़ज़ल। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह


नकुल गौतम

जुड़ी हर इक हमें उससे कहानी याद आएगी
जो बक्से में रखी कोई निशानी याद आयेगी

हमारा दम घुटेगा जब कभी शहरों की सड़कों पर
हवा हमको पहाड़ों की सुहानी याद आएगी


हम अब के गाँव लौटेंगे तो उन बचपन की गलियों में
किसी नुक्कड़ पे खोयी शादमानी याद आएगी

गली के मोड़ पर जिस घर की घण्टी हम बजाते थे
वहाँ रहती थी जो बूढ़ी सी नानी, याद आएगी


कुछ आलू काट कर खेतों में हमने गाड़ कर की थी
महीनों तक चली वो बाग़बानी याद आएगी

वो लड़की वक़्त से लड़कर अब औरत बन गयी होगी
लड़कपन की वो पहली छेड़खानी, याद आएगी


उसी छत से पतंगें इश्क़ की हमने उड़ाई थीं
अजी बस कीजिये, फिर वो कहानी याद आएगी

हमारे गाँव के रस्ते पर अब पुल बन गया लेकिन
नदी, जिस में कभी बहता था पानी, याद आएगी


बुढ़ापे के लिये अमरुद का इक पेड़ रक्खा है
"इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी"

गुज़रना उस गली से गर हुआ फाल्गुन महीने में
हमें पिचकारियों की मेज़बानी याद आएगी
सचमुच बक्से में रखी हुई उस निशानी को जब भी देखते हैं तो उससे जुड़ी हुई हर एक कहानी याद आ जाती है। यह नॉस्टेल्जिया का शेर है और हम सबके अंदर जो अतीत से जुड़े रहने का भाव है उसे गहरा कर रहा है। और गांव की ओर लौटने की याद दिलाते वह दोनों शेर जिसमें शहर की सड़कों पर दम घुट रहा है और गांव में बचपन की गलियों में किसी नुक्कड़ पर कोई शादमानी आज याद आ रही है। यह बचपन और गांव ही है जो हमारे अवचेतन में हमेशा एक मीठी याद बनकर बसा रहता है। और गली के मोड़ पर वह बूढ़ी नानी जिसके घर की घंटी बजा कर हम भागते थे वह किसके बचपन में नहीं हुई है हम सबके बचपन में यह कहानी घटित हुई है। बहुत सुंदर। और जिस छत से इश्क की पतंगे लड़ाई गई उस छत का जिक्र भी आना ऐसा लगता है मानो किसी ने जख्मों को खोल दिया है और हम कह उठते हैं मत बात करिए हमें पुरानी यादें आ जाएंगी। और उतनी ही खूबसूरती से बांधा गया है गिरह का शेर जिसमें बचा कर रखे गए एक अमरुद के पेड़ को इसलिए रखा है क्योंकि उसे देखकर अपनी जवानी शायद याद आ जाए। बहुत खूबसूरत सुंदर । और आखिर में उस गली से जब भी गुजरना होगा फागुन के महीने में तो याद आएगी वह मेजबानी जो पिचकारियों ने की थी। यादों में बसी हुई एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल जिसका गज़ल जिसका एक एक शेर यादों के गलियारे में हमें उंगली थाम कर टहलाता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



अनिता तहज़ीब

कन्हैया तुमको गोकुल की कहानी याद आएगी
मिलोगे देवकी से,नंदरानी याद आएगी।

तुम्हें उल्फ़त की जब भी तर्जुमानी याद आएगी
जड़ों पर नाज़ होगा बागबानी याद आएगी


सुनाने को कहेंगे बच्चे जब क़िस्से फ़रिश्तों के
शहीदों की हमें तब ज़िंदगानी याद आएगी

मेरे कंधे सर अपना चाँद की परछाई रख देगी
तुम्हारे साथ गुज़री शब सुहानी याद आएगी


कली डाली पे मुरझाई मिलेगी सुब्ह उठने पर
उदास आँखों की भूली सी कहानी याद आएगी

यूं ही इक शाम थामे हाथ सूरज ढलता देखा था
नहीं सोचा था रंगत जाफरानी याद आएगी


दुशाला सात रंगों का बना बूँदों से मिल किरणें
हमें तो सीनरी वो आसमानी याद आएगी

महकती थी तुम्हारी बातें सुन के पास खिड़की के
नहाती चाँदनी से रातरानी याद आएगी


परिन्दे घर बनाने को लगे करने जमा तिनके
इन्हें देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी
मतले का शेर कृष्ण और देवकी के साथ नंदरानी की याद दिलाता हुआ एक ऐसा शेर है जो बहुत खूबसूरती के साथ अपनी बात कह जाता है और मन में कहीं स्पर्श कर जाता है। अगला शेर जिसमें उल्फत की तर्जुमानी याद आने पर जड़ों पर नाज होना और बागवानी के याद आने की बात कही गई है बहुत अच्छे से कहा गया शेर है। अगले ही शेर में बच्चों के द्वारा फरिश्तों की कहानी सुनाई जाने पर अमर शहीदों की कहानी याद आ जाना, बहुत खूबसूरत बहुत सुंदर। उसके बाद के तीन शेर जो प्रेम के सुंदर रंगों से रंगे गए शेर हैं, कंधे पर चांद की परछाई का सर रख देना और किसी के साथ गुजारी हुई रात सुहानी याद आ जाना ।सुबह उठने पर डाली पर मुरझाई हुई कली मिलने पर उदास आंखों की भूली हुई कहानी याद आ जाना। किसी के साथ हाथों में हाथ थामे सूरज को ढलता हुआ देखा था कभी और तब नहीं सोचा था कि बाद में जब हाथों से हाथ छूट जाएगा तो बस यह जाफरानी रंग यादों में बसा रह जाएगा। सात रंगों का बना हुआ यह दुशाला और आसमानी सीनरी का याद आना, अंग्रेजी के शब्द का बहुत खूबसूरती के साथ उपयोग किया गया है। किसी की बातें सुनकर खिड़की के पास चांदनी से नहाई हुई रातरानी का जगमगा जाना, नजाकत से कहा गया खूबसूरत शेर। अंत में तिनके  जमा करते हुए परिंदों को देखकर अपनी जवानी का याद आ जाना गजब का दृश्य रचा गया है इस शेर में बहुत खूबसूरत। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।




रजनी नैयर मल्होत्रा

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी
वही बीती हुई फिर से कहानी याद आएगी

तेरे बिन फीकी होगी मेरी होली और दीवाली
जो तेरे संग बीती ज़िंदगानी याद आएगी


तेरे जाने से आँगन ये मेरा सूना रहेगा अब
महकती थी कभी जो रातरानी याद आएगी

खिलेंगे मन में फिर यादों के गुंचे सुन मेरी बिटिया
मुझे जब तोतली तेरी ज़ुबानी याद आएगी


नहीं अश्कों को तब ये रोक पाएँगी मेरी पलकें
मुझे बीते पलों की जब सुहानी याद आएगी
किसी को देख कर अपनी जवानी का याद आ जाना और जवानी के याद आते हैं किसी बीती हुई कहानी का याद आ जाना यही तो जीवन होता है। हम उम्र भर कुछ बीती हुई कहानियों को याद करके ही तो बिताते आते हैं। किसी एक के नहीं होने से हमारा सारा संसार फीका हो जाता है ना होली और ना दिवाली हमें वह आनंद देती है और हमेशा याद आती है वही जिंदगानी जो किसी खास के साथ देती थी। यह दोनों शेर शायद घर से विदा ले चुकी बेटी के लिए कहे गए हैं जिसमें मां कह रही है कि तेरे जाने से आंगन यह मेरा सूना रहेगा क्योंकि तू यहां रात रानी बनकर महकती थी चहकती थी और मन में यादों के गुंचे खिला उठेंगे जब बेटी की तोतली जुबान के बारे में मां अकेले में बैठकर याद करेगी और जब याद आएगी तो पलकें भला अश्कों को कैसे रोक पायेंगी, वह याद सुहानी दिल में पीड़ा बनकर उभरेगी और आंखों से आंसू बनकर बरसेगी। बहुत सुंदर बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



तो मित्रो ये आज के सात रचनाकार जिन्होंने आपको रंगों में सराबोर कर दिया है। होली का रंग इतना बिखर गया है कि यह रंग अब सिर चढ़ कर बोल रहा है। और हाँ अभी भी बहुत से लोग ऐसी सूचना प्राप्त हुई है कि होली की ग़ज़ल कहने में व्यस्त हैं। उनका भी बासी होली में स्वागत किया जाएगा। हमारी होली का रंग इसी प्रकार बरसता रहे। इसी प्रकार हम इस परिवार के साथ होली मनाते रहें। हम सब साथ-साथ रहें। हम सब में प्रेम और आत्मीयता के रंग इसी प्रकार बने रहें। बस यही प्रार्थना है। होली के बहाने हमारे इस पुराने चौपाल पर कुछ चहल-पहल हो जाती है। लोग आते हैं अपनी सुनाते हैं, दूसरों की सुनते हैं और उत्सव का रंग जम जाता है। आइये प्रार्थना करें, दुआ करें कि यह आवागमन बना रहे। हम यूँ ही हर त्योहार पर एकत्र होकर आनंद मनाते रहें। होली हो, दीवाली हो, ईद हो कोई भी त्योहार हो, हम सब आत्मीयता के साथ मिलजुल कर मनाते रहें। आनंद सब के साथ ही आता है। आनंद एक दूसरे के साथ ही आता है। आनंद वास्तव में साथ होने का ही दूसरा नाम है। तो आइये आनंद उठाते हैं। आज के इन सात रचनाकारों ने हमारे आनंद को बढ़ाने में जो अपनी तरफ़ से योगदान दिया है उसके लिए इनको दाद देते हैं, वाह वाह करते हैं। होली शुभ हो मंगलमय हो।












बासी होली का अपना ही आनंद होता है, बासी होली का अपना मज़ा होता है। तो आइये आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं बासी होली। तिलक राज कपूर जी, मंसूर अली हाशमी जी, सुमित्रा शर्मा जी, दिनेश नायडू और पारुल सिंह के साथ आनंद लेते हैं बासी होली का।

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Barsana Nandgaon Holi 2015 8

होली का पर्व भी बीत गया, हालाँकि हमारे यहाँ मालवांचल में अभी नहीं बीता है अभी तो रंग पंचमी कल होनी है। मालवांचल में सबसे ज़्यादा रंग रंगपंचमी पर ही होता है। इसके बाद शीतला सप्तमी के दिन होली की आग को ठंडा किया जाएगा और उसी के साथ ही होली के पर्व का समापन होगा। उस दिन पिछली रात को ही सारा भोजन बना कर रख लिया जाएगा। शीतला सप्तमी के दिन कुछ भी नहीं पकाया जाता, पिछली रात का ठंडा और बासी खाना ही खाया जाता है। पंरपराएँ यूँ ही तो नहीं बनती हैं, कोई न कोई बात तो उनके पीछे होती है। असल में मुझे लगता है कि यह जो ठंडा खाना खाने की परंपरा है इसका अर्थ गलत निकाल लिया गया है। मुझे लगता है कि वास्तव में यह रहा होगा कि शीतला सप्तमी के साथ ही शीत ऋतु विदा हो जाती है और ग्रीष्म् का आगमन हो जाता है। तो यह जो ठंडा खाने की बात है वह ये है कि आज से ठंडी तासीर वाला  भोजन करना शुरू करना है, अब गरम तासीर वाला भोजन नहीं करना है। जैसे अब बाजरे के स्थान पर ज्वार खाना शुरू करना है। गुड़ के स्थान पर बेल का सेवन करना है। आदि आदि। लेकिन अब बस एक दिन ही रात का बासी खाना खाकर ठंडा खाने की परंपरा को निभा लिया जाता है। और अब तो हमें यह भी नहीं पता कि किस पदार्थ की तासीर ठंडी है और किसकी गर्म है। पर आज तो यह पता चल गया है आपको कि शीतला सप्तमी के दिन से आपको गर्म तासीर वाला भोजन करना बंद करना है।

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

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होली की तरही की ट्रेन झकड़-पकड़ गति से चल रही है। इतनी धीमी गति से कि बुज़ुर्ग मुसाफ़िर भी आसानी से चलते हुए इस पर सवार हो रहे हैं। आज कुछ इसी प्रकार के मुसाफ़िरों को हम ले रहे हैं जो दरवाज़े का डंडा पकड़ कर लटके हुए हैं। और हाँ अभी तो कुछ और भी बाक़ी रहेंगे इसके बाद भी । बासी होली कुछ दिनों तक तो चलेगी ऐसा अनुमान है। बासी होली का अपना ही आनंद होता है, बासी होली का अपना मज़ा होता है। तो आइये आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं बासी होली। तिलक राज कपूर जी, मंसूर अली हाशमी जी, सुमित्रा शर्मा जी, दिनेश नायडू और पारुल सिंह के साथ आनंद लेते हैं बासी होली का।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर जी
क़त्आ
नई यादों से छनकर जब पुरानी याद आएगी
हमारे साथ बीती ऋतु सुहानी याद आएगी।
झपकते ही पलक, बेबात हमसे दूर हो जाना
बहुत पछताओगे जब बदगुमानी याद आएगी।

ग़ज़ल
कुरेदे ज़ख़्म तो फिर वो कहानी याद आएगी
ज़माने की निगाहे-तर्जुमानी याद आएगी।

तराने उन दिनों के छेड़, जब आज़ाद फिरते थे
जवाँ होती हुई गुड़ियों की रानी याद आएगी।

मिलेगी शह्र में जब बंद बोतल में भरी ख़ुश्बू
यहाँ आंगन में फैली रातरानी याद आएगी।

नज़रिया है नया इसका, नई ऊंचाई ख्वाबों की
"इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।"

नज़र का फेर है, फिर से; नज़र को फेर कर देखो
हवस की आंख को बिटिया सयानी याद आएगी।

न जाने किस दिशा में, कौनसी, कब, चाल चल दे ये
सियासत का पियादा देख रानी याद आएगी।

हमारी उम्र थी कच्ची, कबीरा याद क्या रखते
बुढ़ापे में ही अब शायद वो बानी याद आएगी।

तिलक जी जनरल कोच के डब्बे के डंडे से लटकर कर यहाँ तक आए हैं, स्वागत किया जाए इनका। सबसे पहले तो बहुत ही ख़ूबसूरत क़त्आ है, बिछड़न के रंग से रंगा हुआ क़त्आ। और उसके बाद ग़ज़ल भी रंगे-तिलक में रँगी हुई है। ज़ख़्म कुरेदे जाने पर किसी कहानी का याद आ जाना, वाह क्या सुंदर मिसरा है। अगले शेर में पहले मिसरे में –जब आज़ाद फिरते थे तो मानों किसी फाँस की तरह कलेजे में धँस गया और उसके बाद जवाँ होती हुई गुड़ियों की रानी, वाह वाह क्या बात है। अगले शेर में बोतल में बंद ख़ुशबू के मिलने पर गाँव की रातरानी याद आ जाना प्रतीकों के माध्यम से दो जीवन शैलियों के बीच के अंतर को ख़ूब रेखांकित करता है। और गिरह का शेर बिल्कुल अलग ही अंदाज़ में सकारात्मक तरीक़े से लगाया गया है। नज़र का फेर में मिसरा ऊला विशुद्ध कविता है, कलात्मक कविता, शब्दों की कारीगरी का सौंदर्य। और उसके बाद मिसरा सानी थप्पड़ सा लगता है हमारे समय और समाज पर। सियासत को समर्पित शेर में पियादे को देख कर रानी का याद आना उलटबाँसी प्रयोग है और खूब बन पड़ा है। और अंत में वही सच कि हमको कबीर उस उम्र में पढ़ाया गया जब हम उसे रट ही सकते थे। आज उसका अर्थ समझ सकते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह।

mansoor hashmi

मन्सूर अली हाश्मीजी
कहानी दर कहानी दर कहानी याद आएगी
पलटते रहिये सफहे ज़िंदगानी याद आएगी।

शरारत से भरी आंखें, दबी पिचकारी हाथों में
कईं बातें 'पुरानी से पुरानी'याद आएगी

किसी मजनूँ पे हंस लेना बहुत आसान है लेकिन
हुए जो मुब्तलाए इश्क़ नानी याद आएगी ।

फ़साने को हक़ीक़त में बदलते अपने शब्दों से
हमें मिथ्यागरों की लंतरानी याद आएगी।

दिवा स्वप्नों ही में गोचर हुई 'नर्गिस'या 'नन्दा'गर
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।

लिपट जाती है गाजर घास से भी बेल फूलों की
भंगेडी को तो दिन में 'रातरानी'याद आएगी

गुरु चाणक्य में जागा अगर जो मोह सत्ता का
तो तक़दीरे 'मनोहर', 'आडवाणी'याद आएगी

हया दारों की आंखें तो अंगूठे पर टिकी रहती
कहाँ 'प्रिया'* की आंखें मिचमिचानी याद आएगी?
(*प्रिया प्रकाश)

बचाने को तुम्हें ही सायकल से मेरा गिर जाना
औ'तिस पर सैंडल से मार खानी याद आएगी!

दिवाना 'हाश्मी'को कह रही है भीड़ होली की
उसे अब भी नही  क्या वो जवानी याद आएगी?

दोहराव का सौंदर्य मुझे हमेशा से भाता रहा है। जैसे इसमें कहानी दर कहानी दर कहानी ने मिसरे को बहुत सुंदर बना दिया है। और उसके बाद मिसरा ऊला , वाह क्या बाता है। और अगले ही शेर में पुरानी  से पुरानी, क्या ख़ूब प्रयोग किया गया है। साहित्य प्रयोगधर्मिता का ही नाम है, जब तक आप प्रयोग कर रहे हैं, तब तक आप रच रहे हैं। अगला शेर मजनूँ पे हँसने वालों को जिस मासूमियत से नानी याद आने की चेतावनी दे रहा है, वह चेतावनी पढ़कर मुस्कुराए बिन कोई कैसे रह सकता है ? और अगले शेर में मिथ्यागरों की लंतरानी ग़ज़ब है, सलीक़ा तो यही है कि बिना किसी का नाम लिए सब कुछ कह दिया जाए। दिवास्वप्न में न​र्गिस तथा नंदा का आना तो उम्र का तक़ाज़ा है, हर उम्र की अपनी नर्गिंसें और नंदाएँ होती हैं। यहाँ से ग़ज़ल हजल के ट्रेक पर आती है। और बताती है कि गाजर घास से लिपटी बेल की तरह भँगेड़ी को दिन में रातरानी याद आती है। प्रिया प्रकाश का मिचमिचाना सफेद दाढ़ी के बाद भी हाशमी साहब को  दिख रहा है यह बड़ी बात है। इसी से पता चलता है कि जवानी अभी गई नहीं है। सायकल से उसे ही बचाते हुए गिरना और उसकी ही सेंडिलों से मार खाना, उफ़्फ इससे बड़ी दुर्घटना और क्या हो सकती है भला। और मकते में होली की मस्ती को सुंदरता से गूँथा गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

DINESH NAYDU

दिनेश नायडू
ख़लाओं में भी अपनी बेमकानी याद आएगी
मुझे ऐ जिस्म तेरी मेज़बानी याद आएगी

समंदर उम्र भर ताज़ा रहेगा मेरी आँखों में
ये जो मौजों में रहती है रवानी याद आएगी

वो चुप लम्हा की जब उसका बदन मुझसे मुख़ातिब था !
मुझे ताउम्र अपनी बेज़बानी याद आएगी

मनाएंगे सहर का जश्न कितनी देर हम शबज़ाद
चुभेगी धूप तो वो रातरानी याद आएगी

वो क्या दिन थे तुम्हारे ध्यान में जब ख़ाक उड़ाता था 
अब अपने बाद अपनी ख़ुश गुमानी याद आएगी

बगूलों की तरह फिरता रहूंगा तेरे सहरा में
कभी तो तुझको मेरी क़द्र दानी याद आएगी

जब आँखें अश्क रो रो कर बदल जाएंगी पत्थर में 
ये दावा है तुम्हे मेरी कहानी याद आएगी

ये पहला ख़त है पहले प्यार का यारों, संभालेंगे !
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

दिनेश जी पहली बार तरही में शामिल हो रहे हैं तो सबसे पहले तो तालियों से उनका स्वागत किया जाए। मतले के साथ ही ग़ज़ल ने ग़ज़ब का स्टार्ट लिया है, जिस्म की मेज़बानी के तो कहने ही क्या हैं पूरा शेर सुगंध से भर गया है। समंदर का उम्र भर ताज़ा रहने वाला पहला ही शेर और उसके बहाने मौजों की रवानी याद आना बहुत ख़ूब। लेकिन अगला शेर जिसमें बदन मुख़ातिब था और बेज़बानी याद आ रही है, यह हासिले ग़़ज़ल शेर है, मिसरा ऊला तो जैसे कटार की तरह जिगर कलेजे दिल सबमें बिना घाव किये उतर जा रहा है। बहुत ही सुंदर शेर, ग़ज़ब, कमाल। उस्तादाना अंदाज़ का शेर है। इसके बाद किसी अन्य शेर की चर्चा करने की इच्छा ही नहीं हो रही है। मगर आगे के शेर भी कमाल हैं तो करना पड़गी चर्चा तो। सहर के जश्न के बाद जब धूप चुभती है तो रातरानी याद आती है, अगर इस शेर को राजनैतिक संदर्भ में देखा जाए तो कितना गहरा है यह शेर, तीखे कटाक्ष के साथ उतरता है। फिर आगे के तीनों विरह के शेर…. अब अपने बाद अपनी खुशगुमानी….. “अपने बाद” वाह वाह वाह…. क्या कहन है भाई, सदक़े….. फिर अगले ही शेर में बगूलों की तरह उड़ते फिरने का अंदाज़ कमाल कमाल है। फिर उसके साथ क़ाफिया भी ऐसा जोड़ा है कि अश अश। जब आँखें अश्क रो रो कर…. यह शेर उस प्रकार का है कि इस पर कोई प्रतिक्रिया शब्दों से दी ही नहीं जा सकती बस पलकों की कोरों पर आई नमी है प्रतिक्रिया देती है। अंतिम शेर में गिरह…. ग़ज़ब… इस बार अधिकांश गिरहों में काल की समस्या बनी है। लेकिन यह शेर उस समस्या से बेदाग़ निकल कर आता है। सर्रर्रर्र से निकल जाता है शेर और हम स्तब्ध से रह जाते हैं। पहली ही आमद और आते ही ऐसी कमाल की ग़ज़ल… मुकम्मल ग़ज़ल, हर शेर बोलता हुआ…. वाह वाह वाह।

parul singh

पारूल सिंह
कभी वो शाम पलकों से गिरानी याद आएगी
कभी फिर सुब्ह पलकों पर उठानी याद आएगी

रखे हैं होंठ तेरे आज भी जैसे वो माथे पर
उमर की धूप में ठंडक सुहानी याद आएगी

पलट कर देखना उसका, महब्बत है समझ लेना
बहुत मासूम सी वो बदगुमानी याद आएगी

सयानी हो रही बेटी हक़ों की बात करती है
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

सितम दिल पर खमोशी से हैं झेले रात-दिन उसने
मुझे यूँ दोस्ती उसकी निभानी याद आएगी

मुझे दिल पे सितम मंजूर हैं सबके, मगर  तेरे
तग़ाफुल की हमेशा गुलफ़िशानी याद आएगी

किताबे इश्क़ में तो नाम तेरा है नहीं पारुल
वफ़ा के नाम पर तेरी कहानी याद आएगी

पारुल जी बीच बीच में हाजिरी लगाने आ जाती हैं। बीच में एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या से दो-चार हुई हैं। और अब उनकी यह ग़ज़ल। मतला किसी तूलिका से निकला हुआ चित्र हो मानों जिसमें अलग-अलग रंगों से कमाल दिखाया गया है। पहला ही शेर प्रेम की स्म़ृतियों में खोया हुआ ख़ूबसूरत शेर है। रखे हैं होंठ तेरे आज भी जैसे वो माथे पर…. वाह वाह वाह क्या भाव है। उमर की धूप में ठंडक सुहानी की याद आ जाना कमाल है बस। पलट कर देखना उसका में कितनी मासूमियत भरी हुई है, मासूम सी बदगुमानी के तो कहने ही क्या हैं, बहुत ही सुंदर है। सयानी हो रही बेटियाँ जब भी अपने हक़ों की बात करती हैं तो सचमुच माँ को अपनी जवानी याद आती है जब वो अपने लिए नहीं लड़ पाई, इमोशनल कर देने वाला शेर है। कई बार हम दोस्ती को नहीं याद रखते हैं, लेकिन याद रखते हैँ कि किसी ने दोस्ती को किस प्रकार निभाया था। बहुत सुंदर। मुझे दिल पे सितम शेर रवायती अंदाज़ में कहा गया शेर है, नई तकनीक के बीच रवायती अंदाज़ का शेर आनंद देता है। और मकते का शेर तो बहुत सुंदर बना है, क्या उदासी से भरा हुआ शेर है… उदासी जो जब शेर में करेक्ट तरीक़े से आ जाए तो काट देती है। बहुत ही सुंदर शेर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह।

sumitra sharma

सुमित्रा शर्मा जी
नदी के तीर से चुनरी चुरानी याद आएगी
तुम्हारी वो मधुर बंसी बजानी याद आएगी

चले जाओ किशन यूं छोड़ गोकुल तुम विमोही बन
मुहब्बत ये तुम्हें भी तो पुरानी याद आएगी

पुरानी डायरी से जो गिरा सूखा हुआ इक गुल
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

जो खोली याद की गठरी तो अंखियां भीग जाएंगी
मनाने रूसने की सब कहानी याद आएंगी

तुम्हारे साथ तो हर पल दिवाली,ईद, होली था
तुम्हारी छुअन की अब बस, सुहानी याद आएगी

महक फूलों की, रंग होली, उजाले आफताबी थे
इबादत सी मुहब्बत की सुहानी याद आएगी

कृष्ण और होली तो मानों एक दूसरे के पूरक ही हैं। और कृष्ण से जुड़ी हुई कहानियों का काव्य में प्रयोग करना हमेशा से होता आया है। यहाँ भी मतले में गोपियों के वस्त्र चुराने और उसके बाद बंशी बजाने का प्रयोग बहुत सुंदर तरीके से किया गया है। अगले ही शेर में कृष्ण को विमोही बन कर जाते हुए चेतावनी दी जा रही है कि तुमको यह भूली हुई पुरानी कहानी हमेशा याद आएगी, आती रहेगी। पुरानी डायरी में सूखे हुए फूल जाने कब से सहेजे जा रहे हैं और जाने कब तक सहेजे जाते रहेंगे और उनको देख कर जवानी याद आती रहेगी। यादों की गठरी में सचमुच मनाने और रूठने की कुछ ऐसी कहानियाँ बँधी होती हैं, जो गठरी के खुलते ही आँखों में पानी ला देती हैं। अगले ही शेर में किसी के साथ से दीवाली, ईद और होली का आनंद और बिछड़ने के बाद उस सुहानी छुअन का याद आना। यादें। मुहब्बत वास्तव में एक इबादत ही तो है जिसकी सुहानी यादें हमेशा हमारे अंदर बसी रहती हैं। अज़ल से बसी हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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ऐसा पहली बार हुआ है कि मुख्य के मुकाबले में बासी आयोजन अधिक भारी पड़ रहा है। आज के पाँचों शायरों ने बहुत ही कमाल की ग़ज़लें कही हैं। अभी भी कुछ ग़ज़लें और हैं जो आने वाले दिनों में शामिल होंगी। और शायद इस बीच भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी शामिल हो जाएँ। इस बार हो सकता है कि वो पार्टनर के साथ आएँ नीरज गोस्वामी जी के साथ। कुछ भी हो सकता है। प्रतीक्षा करें। और हाँ आज की ग़ज़लों पर दाद देते रहें। उत्साह बनाए रखें मिलते हैँ अगले अंक में।

बासी होली, आज इसमें शामिल है देश के महान शायर नीरज गोस्वामी और उतने ही महान दूसरे शायर भभ्भड़ कवि भौंचक्के का ग़ज़लिया मुकाबला ।

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वो निर्णायक को देकर घूस तेरा जीतना ज़ालिम
चली थी चाल तूने जो सयानी याद आएगी

होली के तरही मिसरे पर भभ्भड़ कवि भौंचक्के और देश के कुख्यात शायर नीरज गोस्वामी के बीच एक ग़ज़लिया मुकाबला संपन्न हुआ। शिवना प्रकाशन के श्री शहरयार ख़ान इस मुकाबले के निर्णायक थे। प्रारंभिक रूझान के मुताबिक श्री नीरज गोस्वामी ने यह मुकाबला जीत लिया है। प्रारंभिक रूझान इसलिए क्योंकि अभी अभी पता चला है कि गोस्वामी जी ने शिवना प्रकाशन को ऑफर किया था कि यदि उनको विजेता घोषित किया जाता है तो वे पुरस्कार में मिलने वाली शॉल, गुलदस्ते को स्वयं ख़रीद कर ले आएँगे तथा शिवना प्रकाशन पर किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं पड़ने देंगे। साथ ही वे अपनी ही पुस्तक यायावरी यादों की को सम्मान के रूप में प्राप्त करने को भी तैयार हैं। चूँकि शहरयार ख़ान ऑफर के कच्चे माने जाते हैं, इसलिए यह मुकाबला श्री नीरज गोस्वामी के पक्ष में जीता हुआ उनके द्वारा घोषित कर दिया गया है। एक श्रोताओं से खचाखच भरे सभागृह में जिसमें इन तीनों के अलावा केवल एक फोटोग्राफर और था, मुकाबले के विजेता रहने पर श्री नीरज गोस्वामी को उनकी ही लाई हुई शॉल, गुलदस्ते और उनकी ही किताब यायावरी यादों की देकर सम्मानित किया गया।

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वो ब्राउन ब्रेड जो थी घूस की और जेम रिश्वत का
वो भ्रष्टाचार की इक शादमानी याद आएगी

कार्यक्रम के पश्चात एक शानदार डिनर पार्टी का आयोजन भी किया गया। डिनर पार्टी में श्री नीरज गोस्वामी द्वारा लाई गई ब्राउन ब्रेड पर उनके ही द्वारा लाए गए टमाटर, ककड़ी जो उनके ही द्वारा काटे भी गए थे सजाकर सैंडविच बना कर खाए गए। यह रात्रिभोज श्री नीरज गोस्वामी द्वारा मुकाबला जीतने की खुशी में दिया गया ​था। इस डिनर पार्टी में बड़ी संख्या में यह तीनों शामिल हुए तथा करीब चार ब्राउन ब्रेड के पैकेट साफ कर दिये गए।

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गुलाब इस वाहियात अंदाज़ में जब कोई सूँघेगा
हमें तब आपकी ज़िल्ले सुभानी याद आएगी

आज इसमें शामिल है देश के महान शायर नीरज गोस्वामी और उतने ही महान दूसरे शायर भभ्भड़ कवि भौंचक्के का ग़ज़लिया मुकाबला। मुकाबले की ग़ज़ल में पहला शेर श्री नीरज गोस्वामी जी द्वारा कहा जा रहा है तथा उसका उत्तर भभ्भड़ कवि भौंचक्के द्वारा दिया जा रहा है। पहचान के लिए दोनों के शेरों को अलग अलग रंगों में दिया जा रहा है।

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हुई भभ्भड़ की नीरज से जहाँ पर ग़ज़लिया टक्कर
हमें वो इंडिया की राजधानी याद आएगी

नीरज गोस्वामी जी और भभ्भड़ कवि भौंचक्के के बीच कुल दस चक्रों में मुकाबला संपन्न हुआ जिसमें मतला और मकता भी शामिल है। दसों चक्र आपके सामने दिये जा रहे हैं।

1
ग़ज़ल छाती पर चढ़कर वो सुनानी याद आएगी
वो भभ्भड़ तेरी हरक़त तालिबानी याद आएगी

हमें नीरज तुम्हारी बदगुमानी याद आएगी
ग़लतफ़हमी की इक लंबी कहानी याद आएगी

2

नाशिस्त-ए-भभ्भड़ी में हाय श्रोताओं का वो ग़ुस्सा
वो भभ्भड़ दाद जूतों से पिलानी याद आएगी

वो सामाइन का घटिया शेर पर तुमको पटक देना
बदन की खाट नीरज चरमरानी याद आएगी

3

अमाँ रहने भी दो जाओ हमारा मुँह न खुलवाओ
खुला भभ्भड़ हमारा मुँह तो नानी याद आएगी

हैं नीरज चाहते हम भी यही के मुँह न खोलो तुम
जो तुमने मुँह को खोला नाबदानी याद आएगी

4

जवानी जा चुकी कब की अभी तुम इश्क़ में ही हो
ऐ भभ्भड़ कब तलक बीती जवानी याद आएगी

ये डाली मोगरे की में हैं चूहे, शेर मत कहिये
कोई पढ़ ले तो नीरज चूहेदानी याद आएगी

5

किसी मजनूँ को चौराहे पे पिटता जब भी देखेंगे
हमें भभ्भड़ फटी इक शेरवानी याद आएगी

किसी की जब भी उतरेगी ज़नाना सैंडिलों से लू
हमें नीरज की इक घटना पुरानी याद आएगी

6

अचानक बीट कर देगा कोई कव्वा अगर सिर पर
वो भभ्भड़ तेरी ग़ज़ल-ए-नागहानी याद आएगी

ग़ज़ल ये आपकी नीरज बहत्तर फुट है लम्बी जो
इसे सुन कर बला-ए-आसमानी याद आएगी

7

ये जो दीवान भभ्भड़ है तेरा इसको पढ़ेंगे जब
हमें दादी की अपनी पीकदानी याद आएगी

हमें भी रस्म-ए-इजरा आपके दीवान का नीरज
थी महफ़िल शर्म से जो पानी-पानी याद आएगी

8

सुभान अल्लाह भभ्भड़ आबनूसी रंग ये तेरा
तुझे देखे कोई तो सुरमेदानी याद आएगी

मिलेगा जब भी गैंडे-सा कोई, तो फिर ख़ुदा की ये
तुम्हारे साथ नीरज बेईमानी याद आएगी

9

हमें भी याद आएगी फ़िदा जिस पर तू था भभ्भड़
तुझे भी तो चुड़ैलों की वो रानी याद आएगी

तुम अपने भी तो नीरज याद कॉलेज के करो वो दिन
तुम्हें मोहतरमा कोई मरकटानी याद आएगी

10

सवा सौ गालियाँ 'नीरज'को घण्टे भर में दीं तूने
तेरी भभ्भड़ ज़बाँ ये ख़ानदानी याद आएगी

बुला 'भभ्भड़'को नीरज घर कटाना अपने कुत्ते से
हमेशा आपकी ये मेज़बानी याद आएगी

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दुखी है शहरयार अब और हँसते खिलखिलाते तुम
हमें सच्चाई से ये छेड़खानी याद आएगी

मित्रों आज के यह दोनों शायर आपके चिर परिचित हैं। दोनो ही आपकी दाद पाने के हक़दार हैं। देर से आए हैं लेकिन दुरुस्त आए हैं। तरही में बस एक दो ग़ज़ल और बची हैं, उसके साथ ही हम तरही का समापन अगले अंक में कर देंगे। लेकिन आज तो बस आपकी दाद के लिए एक ही बात दे दाता के नाम तुझको…….

आइए आज होली के तरही मुशायरे को अपने अंजाम तक पहुँचाते हैं दो शायरों शेख चिल्ली और नकुल गौतम के साथ

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मित्रो नहीं नहीं करके भी शायर जुट जाते हैं और मुशायरा हो जाता है। शुरूआत में तो ऐसा लगता है कि जैसे इस बार तो बहुत कम ही रहने वाले हैं शायर, लेकिन धीरे-धीरे उत्साह बढ़ता है और आमद शुरू हो जाती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ, लोग पहले तो नहीं आए और फिर आए तो आते ही चले गए। आज हम होली के मुशायरे का समापन कर रहे हैं दो शायरों के साथ शेख चिल्ली और नकुल गौतम के साथ। नकुल गौतम तो पूर्व में भी अपनी एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर चुके हैं। इस बार वो हज़ल लेकर आ रहे हैं और शेख चिल्ली वो जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते कि वो कौन हैं। वे अपना परिचय देने में संकोच करते हैं। यहाँ तक कि फोटो भी नहीं देते। कोई बात नहीं, कभी तो सामने आएँगे।

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

आइए आज होली के तरही मुशायरे को अपने अंजाम तक पहुँचाते हैं दो शायरों शेख चिल्ली और नकुल गौतम के साथ

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शेख चिल्ली
बुढ़ापे में हमें जब बेमकानी याद आयेगी
हमें अक्सर तुम्हारी मेज़बानी याद आयेगी

मुझे पहले खिला कर खुद वो खाली पेट सोती थी
सदा अम्मा की हमको बेईमानी याद आयेगी

"बहुत कमज़ोर हो" कह कर खिलाती थी मुझे मक्खन
मुझे मिक्सी की खड़ खड़ में मथानी याद आयेगी

सुनाई देंगी बेतरतीब सी जब धड़कनें दिल की
हमें दिल पर किसी की हुक्मरानी याद आयेगी

मैं  तुमको भूल जाऊँगा, ये वादा है मेरा तुमसे
मगर अक्सर तुम्हारी याद आनी याद आयेगी

पियाली चाय की तन्हा पड़ी मायूस है देखो,
इसे तेरे लबों की मेह्रबानी याद आयेगी

गिरह के शे'र में हम डायरी का ज़िक्र करते हैं
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी

बुढ़ापे में जब बेमकानी होती है तो जवानी की मेज़बानियाँ तो याद आती ही हैं। मगर मतले के बाद का जो शेर है उसमें दुनिया की जिस सबसे पवित्र बेईमानी का ज़िक्र है उसको पढ़कर किसकी आँख न भर आए। भगवान, ईश्वर, ख़ुदा, गॉड सब यही चाहेंगे कि यह दुनिया इस प्रकार की बेईमानियों से भर जाए। तकनीक के दौर में पुरानी याद आना कुछ ऐसा है जैसे अचानक कोई पुराना गाना याद आ जाए और मथानी की याद तो हर दौर में आएगी, हम वो लोग होंगे जिन्होंने मथानी को अंतिम बार देखा था। और बेतरतीब सी धड़कनों के बहाने उम्र के ढलते समय में जवानी का वो समय याद आना जब किसी की हुक्मरानी हुआ करती थी। अगले शेर में जो सौंदर्य है वो याद आनी याद आएगी का है। बहुत ही सुंदर प्रयोग है, कहते हैं कि कविता कब कैसे बन जाती है बनाने वाले को भी पता नहीं चलता। चाय की प्याली के बहाने किसी के लबों की मेह्रबानी को याद करना बहुत ही रूमानी अंदाज़ में कहा गया शेर है । और गिरह भी सबसे अलग तरीक़े से लगाई गई । बहुत ही सुंदर ग़ज़ब का प्रयोग। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।

Nakul Gautam

नकुल गौतम
बुढ़ापे में हमें जब भी जवानी याद आयेगी
फिसल जाने की फितरत खानदानी याद आयेगी

कभी शीला, कभी श्वेता, कभी सपना, कभी शीतल
मुहब्बत की अधूरी हर कहानी याद आयेगी

मेरा खत जब तेरे डैडी के हाथ आया था गलती से
बुढ़ापे में वो उनकी बदज़ुबानी याद आयेगी

तेरी तारीफ़ में हमने कहे थे शे'र जो इतने
कसम से डायरी से बेईमानी याद आएगी

सजा रक्खी है घर में मूछ वाली आखिरी फ़ोटो
"इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी"

तुम्हें रँगने के चक्कर में पिटे थे हम मोहल्ले में
बमुश्किल बच सकी वो शेरवानी याद आयेगी

हमारी आँख के नीचे अभी तक है निशां कट का
मेरे मुँह पर तेरी सैंडिल पुरानी याद आयेगी

तेरी शादी के दिन बेख़ौफ़ घुस जाना तेरे घर में
पुलिस थाने की शब भर मेज़बानी याद आयेगी

क्या कमाल है कि दोनों शायरों का मतले का मिसरा ऊला लगभग एक सा है, लेकिन यहाँ वह बात अपनी ही ठिठौली करने के लिए कही जा रही है। फिसल जाने की फितरत खानदानी का क्या कहना। और उसी फितरत को अगले शेर में एक लम्म्म्म्बी सी सूची से स्पष्ट किया गया है शीला, श्वेता, सपना और शीतल मतलब यह कि एस अक्षर को छोड़ा नहीं है शायर ने। और बुढ़ापे में बदज़बानी करते हुए ससुर जी से किसका पाला नहीं पड़ा है ? वाह क्या याद दिलाया एक मूँछ वाली फोटो तो मेरी भी रखी है, शेर को पढ़ने के बाद उसे देखा तो सचमुच अपनी जवानी याद आ गई। क्या ठाठ हैं बंदे के कि होली खेलने भी शेरवानी पहन कर ही जा रहे हैं। अब गए हो तो भुगतो भी। और यह जो आँख के नीचे सैंडल का निशान है यह तो आशिक़ी का वह तोहफा है जो क़िस्मत वालों को ही मिलता है, सबको कहाँ मिलता है ये। हाँ लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि जब शादी तय ही हो गई तो अब वस्तुस्थिति को स्वीकार किया जाए नहीं तो थाने की मेहमानी करने के अलावा कोई चारा होता भी नहीं है। बहुत ही सुंदर हज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

7

मित्रो आज के दोनों शायरों ने बहुत सुंदर तरीके से मुशायरे का समापन किया है। आपका अब फ़र्ज़ बनता है कि ख़ूब दाद देकर मुशायरे को विध्वित समाप्त करें। और इंतज़ार करें अगले मुशायरे का। जो संभवतः अब गर्मियों में पवित्र रमज़ान के अवसर पर होगा और ईद पर हम जश्न मनाएँगे। तब तक जय हो।

"विभोम-स्वर"का वर्ष : 3, अंक : 9, त्रैमासिक : अप्रैल-जून 2018

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मित्रों, वैश्विक हिन्दी चिंतन की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 3, अंक : 9, त्रैमासिक : अप्रैल-जून 2018, संपादकीय Sudha Om Dhingra , मित्रनामा, कथा कहानी- एक और इबारत- विकेश निझावन Nijhawan Vikesh , वह सुबह कुछ और थी- डॉ. हंसा दीप Dharm Jain , बट जॉइंट-रोचिका शर्मा Rochika Sharma , शुवे- अनीता शर्मा @anita sharma , एक अरसे के बाद- अमरेन्द्र कुमार @amrendra kumar , वेटिंग क्लियर- महेश शर्मा Mahesh Sharma , कटही- गोविन्द उपाध्याय Govind Upadhyay , रिफ्यूजन- चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री @chandr kanta agnihotri , ब्लैक एन्ड व्हाइट- नकुल गौतम Nakul Gautam। लघुकथाएँ बटवारा- संदीप तोमर Sandeep Tomar : जिंदगीनामाr : जिंदगीनामा , कसाईख़ाना- ज़ोहेब युसुफज़ई @zoheb yusufzai , लड्डु- मुरारी गुप्ता Murari Gupta , मेरी याद- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी Chandresh Kumar Chhatlaniani , बाजरे की रोटी- डॉ. पूरन सिंह Puran Singh , कमर के नीचे का यथार्थ- डॉ. पूरन सिंह Puran Singh , मौक़ापरस्त- सुभाष चंद्र लखेड़ा Subhash Chandra Lakheraa , संवेदना- भारती शर्मा @bharti sharma । भाषांतर - असमिया कहानी- पांचाली / डॉली तालुकदार, अनुवाद-पापोरी गोस्वामी Papori Goswamii , पंजाबी कहानी- नए गीत का मुखड़ा / हरजीत अटवाल, अनुवाद-बलबीर सिंह Balbir Singhh । व्यंग्य - ‘चम्मच-चुराण’ महापुराण- डॉ. अनीता यादव Anita Yadav , रामभरोस का भरोसा रामभरोसे-मोहनलाल मौर्य Mohan Mourya। शहरों की रूह - यात्रा वृत्तान्त- उमेश पंत Umesh Pant। संस्मरण- चिट्ठियों का महत्त्व-कबूतर जा-जा-जा- शशि पाधा Shashi Padhaa। कविताएँ - शिवकुमार अर्चन Shivkumar Archan , निर्देश निधि Nirdesh Nidhi , विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’ @vishwambher pandey , राग रंजन Rag Ranjan , सतीश सिंह @satish singh , संध्या @sandhya , संगीता सिंह ‘भावना’ @sangita singh bhawana , सुनीता काम्बोज कवयित्री कवयित्री सुनीता काम्बोज। नव पल्लव- दिल्ली मेरी दोस्त, तू कहाँ गई- अमृत वाधवा Amrit Wadhwa। समाचार सार - शिवना सम्मान समारोह Nusrat Mehdii Mukesh Kumarr , इफको साहित्य सम्मान, गूदड़ बस्ती का लोकार्पण Pragya Rohini , क्लब लिटराटी का आयोजन Tarun Pithode , एस आर हरनोट की कथा पुस्तक Harnot SR Harnot , ‘बंद मुट्ठी’ का विमोचन Dharm Jain, शिवना प्रकाशन विमोचन समारोह Brajesh Rajput , रवीन्द्रनाथ त्यागी स्मृति शीर्ष सम्मान Lalitya Lalitप्रेम जनमेजयय @sherjang garg , विज्ञान व्रत के चित्रों की एकल-प्रदर्शनी Vigyan Vrat , खामोश आवाज़ें का लोकार्पण , नेशनल डायमंड एचीवर अवॉर्ड Jala Ram Choudhary , मीडियावाला न्यूज़ पोर्टल का लोकार्पण Swati Tiwari, मालती जोशी जी का अभिनंदन Jyoti JainSmriti Aditya , क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान Santosh Supekar, जन्म शताब्दी समारोह, लेखक से मिलिए Om Nagar , सर्व भाषा साहित्य उत्सव, आकाशवाणी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास @ , विश्व पुस्तक मेले में शिवना प्रकाशन Mukesh DubeyNeeraj GoswamyRashmi TarikaPunam SinhaPrasanna Soniann soni डॉ. प्रीति सुराना samkit Sumitra SharmaArchana Nayudu। आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा Babbal Guruu डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny GoswamiShaharyar Amjed Khann , आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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शिवना साहित्यिकी का अप्रैल-जून 2018 अंक

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मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeerr , कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का अप्रैल-जून 2018 अंक अब ऑनलाइन उपलब्धl है। इस अंक में शामिल है- आवरण कविता - पारुल सिंहParul Singh। संपादकीय / शहरयार। व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar। स्मरण - सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth /अशोक मिश्र Ashok Mishraa । जो पिछले दिनों पढ़ा... हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज गौतम राजऋषि , गूदड़ बस्ती Pragya Rohini , अभी तुम इश्क़ में और हसीनाबाद Geeta Shree , सुधा ओम ढींगरा। विमर्श - फ़ेक एनकाउंटर / प्रेम जनमेजय, अपूर्व जोशी Apoorva Joshi। पेपर से पर्दे तक... कृष्णकांत पण्ड्या Krishna Kant Pandya। फिल्म समीक्षा के बहाने- निमकी मुखिया / वीरेन्द्र जैन Virendra Jain। पुस्तक-आलोचना- हंसा आएगी ज़रूर / डॉ. सीमा शर्मा। पुस्तक चर्चा - चम्बल में सत्संग / अशोक अंजुम Ashok Anjum। तेरी हँसी -कृष्ण विवर सी / पूनम सिन्हा ‘‘श्रेयसी’’ Punam Sinha। हैप्पीनेस ए न्यू मॉडल ऑफ ह्यूमन बिहेवियर / तरुण कुमार पिथोड़े Tarun PithodeMukesh Dubey , टुकड़ा टुकड़ा इन्द्रधनुष / आशा शर्मा, निब के चीरे से / ओम नागर Om Nagar , पुरवाई/ कृष्णा अग्निहोत्री Krishna Agnihotri , तुम्हारे जाने के बाद / कृष्णकांत निलोसे Krishnakant Nilosey Dr Prakash DrPrakash Hindustanii । समीक्षा- चित्रा देसाई Chitra Desai / ज़िंदगी का क्या किया / धीरेन्द्र अस्थाना Dhirendra Asthana , जवाहर चौधरी Jawahar Choudhary / स्वप्नदर्शी / अश्विनी कुमार दुबे , सुषमा मुनीन्द्र @sushma munindra / तपते जेठ में गुलमोहर जैसा / सपना सिंह, घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ Ghanshyam Maithil Amrit / ढाक के तीन पात / मलय जैन Maloy Jain , राजेश्वरी @rajeshwari / अच्छा, तो फिर ठीक है/ कामेश्वर Kameshwar Pandey , रेणु / मन कितना वीतरागी / पंकज त्रिवेदी Pankaj Trivedi Pankaj Trivedi , डॉ. नितिन सेठी / 51 किताबें ग़ज़लों की / नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , पारुल सिंह Parul Singh / बात फूलों की / सर्वजीत सर्व , गोविन्दप्रसाद बहुगुणा / हाईवे E 47/ अर्चना पैन्यूली Archana Painuly। यात्रा संस्मरण- पधारो म्हारे देस ...../ राजश्री मिश्रा Rajshree Mishra। रपट- भारत भवन/ प्रवीण पाण्डेय Praveen Pandey , नाटक / प्रज्ञा Pragya Rohini। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा Babbal Guru , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा। ऑन लाइन पढ़ें-

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वैश्विक हिन्दी चिंतन की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर"का वर्ष : 3, अंक : 10 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2018

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मित्रों, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingraएवं संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeerके संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 3, अंक : 10 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2018, संपादकीय, मित्रनामा, साक्षात्कार- सुमन घई Suman K. Ghaiके साथ सुधा ओम ढींगरा की बातचीत। कथा कहानी- बत्तीस कलाओं के लीलाधारी- भरत प्रसाद Bharat Prasad , और कुलसूम मर गई...- ज़ेबा अलवी Zeba Alavi , मास्साब- डॉ. कविता विकास Kavita Vikas , गुलशन कौर- देवी नागरानी Devi Nangrani , तवे पर रखी रोटी- डॉ.विभा खरे , नम्बर प्लेट- राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure। लघुकथाएँ- खिलौना- अमरेंद्र मिश्र Amrendra Mishra , मूर्तिकार- सुरेश सौरभ, कट्टरपंथी - राहुल शिवाय Rahul Shivay , बिखरी पंखुड़ियाँ - ज्योत्सना सिंह , भैंस के आगे बीन बजाना - गोवर्धन यादव Goverdhan Yadav , एक लाश-एक चेहरा- अमरेंद्र मिश्र। भाषांतर- एक मुक़दमा और एक तलाक़, यीडिश कहानी, मूल कथा : आइज़ैक बैशेविस सिंगर, अनुवाद : सुशांत सुप्रिय Sushant Supriye। व्यंग्य- टर गए हरीशचंद्र, प्रेम जनमेजय। दृष्टिकोण- सिविक सेन्स, कृष्ण कान्त पण्ड्या Krishna Kant Pandya। व्यक्ति विशेष- सूर्य भानु गुप्त, वीरेंद्र जैन Virendra Jain। शहरों की रूह- इण्डोनेशिया का रंगमंच / रामलीला, हिजाब वाली सीता, डॉ. अफ़रोज़ ताज Afroz Taj
संस्मरण- सुधियों के पन्नों से- माश्की काका, शशि पाधा Shashi Padha। स्मृति शेष- मास्टर ग़ज़लकार प्राण शर्मा को श्रद्धांजलि, उषा राजे सक्सेना Usha Raje Saxena। ग़ज़लें- विज्ञान व्रत Vigyan Vrat , सुभाष पाठक ‘ज़िया’ , राज़िक़ अंसारी Razik Ansari , ख़याल खन्ना। कविताएँ- @अनिल प्रभा कुमार AnilPrabha Kumar , डॉ. प्रदीप उपाध्याय @pradeep upadhyay , प्रगति गुप्ता Pragati Gupta , @मालिनी गौतम @malini gautam , प्रतिभा चौहान Pratibha Chauhan , डॉ. संगीता गांधी @sangita gandhi , नीलिमा शर्मा निविया @nilima sharma , परितोष कुमार ‘पीयूष’ @paritosh kumar piyush , गौरव भारती Gaurav Bharti , पूनम सिन्हा ‘श्रेयसी’ @poonam sinha । नवगीत- जगदीश पंकज @jagdish pankaj। समाचार सार- अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन Jyoti Jain , ‘मोगरी’ का लोकार्पण Murari Gupta , छोटे बच्चे गोल-मटोल का लोकार्पण, अरुण अर्णव खरे के संग्रह कालोकार्पण Arun Arnaw Khare , रामदरश मिश्र का सम्मान, डॉ. कमलकिशोर गोयनका प्रज्ञा सम्मान Kamal Kishore Goyanka , अभी तुम इश्क़ में हो का लोकार्पण , गोपालदास नीरज को सम्मानित किया, कथाकार अभिमन्यु अनत को श्रद्धांजलि, शैलेंद्र शरण के संग्रहों का लोकार्पण Shailendra Sharan , डॉ. लालित्य ललित Lalitya Lalitको सम्मान, डॉ. कर्नावट Jawahar Karnavatको राष्ट्रीय पुरस्कार, ध्रुपद कार्यशाला, चन्दन-माटी उपन्यास का विमोचन, पटना में लघुकथा विमर्श कार्यक्रम, साहित्य आयोजन पश्चिमी दिल्ली में, मोर्रिस्विल्ल में साहित्यिक गोष्ठी, गुफ़्तगू सम्मान समारोह, आख़िरी पन्ना 74 आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा Babbal Guruडिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny GoswamiShaharyar Amjed Khan , आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 3, अंक : 10 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2018

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मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeer , कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 3, अंक : 10 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2018 इस अंक में आवरण कविता पानी / प्रेमशंकर शुक्ल Premshankar Shukla , संपादकीय / शहरयार Shaharyar , व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar, विशेष पुस्तक- दो लोग / गुलज़ार Gulzar / समीक्षक : पंकज सुबीर Pankaj Subeer , पीढ़ियाँ आमने-सामने- फुगाटी का जूता / मनीष वैद्य Manish Vaidya , समीक्षक : रमेश उपाध्याय Ramesh Upadhyaya, विमर्श- दस प्रतिनिधि कहानियाँ / सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , विमर्श : डॉ. सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth , पेपर से पर्दे तक- सिनेमा एक कला और तकनीक, कृष्णकांत पण्ड्या Krishna Kant Pandya , जो पिछले दिनों पढ़ा- ठगलाइफ़ / प्रितपाल कौर Pritpal Kaur , समीक्षक : सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , शोध-आलेख- शब्द पखेरू / नासिरा शर्मा Nasera Sharma , शोध : शगुफ्ता यास्मीन, नैनसी का धूड़ा / स्वयं प्रकाश Swayam Prakash , शोध : श्वेता बर्नवाल, नई पुस्तक- ऑफ़ द स्क्रीन / ब्रजेश राजपूत Brajesh Rajput , पुस्तक चर्चा- शब्द, शुद्ध उच्चारण और पदभार / ज़हीर क़ुरैशी / डॉ. आज़म Mohammed Azam , आचमन, प्रेम जल से / प्रतिमा अखिलेश Pratima Akhilesh / ई. अर्चना नायडू Archana Nayudu , पेड़ों पर हैं मछलियाँ / अमरेंद्र मिश्र Amrendra Mishra / प्रतिभा चौहान Pratibha Chauhan , एक थका हुआ सच / मंजू महिमा Manju Mahima / अतिया दाऊद Devi Nangrani , समीक्षा- अभी तुम इश्क़ में हो / प्रो. डॉ. मुहम्मद नौमान ख़ाँ / पंकज सुबीर, स्वप्नपाश / मीरा गोयल Meera Goyal / मनीषा कुलश्रेष्ठ Manisha Kulshreshtha , रेखाएँ बोलती हैं / राकेश कुमार Rakesh Kumar / गीताश्री Geeta Shree, पागलखाना / ब्रजेश राजपूत Brajesh Rajput / डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी Gyan Chaturvedi , मोगरी / डॉ. रेवन्त दान बारहठ Dr-Rewant Dan / मुरारी गुप्ता Murari Gupta , उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड / प्रकाश कांत Prakash Kantt / जवाहर चौधरी Jawahar Choudhary , मैं शबाना / फारूक़ आफरीदी Farooq Afridy Jaipur / यूसुफ़ रईस Yusuf Rais , आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा बब्बल गुरू Babbal Guru , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny GoswamiSunil Suryavnshi। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा। ऑन लाइन पढ़ें-

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"विभोम-स्वर"का वर्ष : 3, अंक : 11 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2018

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मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingraएवं संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeerके संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 3, अंक : 11 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2018 संपादकीय, मित्रनामा, साक्षात्कार, रेखा राजवंशी Rekha Rajvanshiके साथ सुधा ओम ढींगरा की बातचीत, कथा कहानी- नाच-गान- उर्मिला शिरीष Urmila Shirish , बर्फ के आँसू- डॉ.पुष्पा सक्सेना Pushpa Saxena , गहरे तक गड़ा कुछ- डॉ. रमाकांत शर्मा Ramakant Sharma , तुरपाई- वीणा विज ‘उदित’ Veena Vij , आहटें- सुदर्शन प्रियदर्शिनी @sudershan priyadarshini , अब मैं सो जाऊँ...- डॉ. गरिमा संजय दुबे DrGarima Sanjay Dubey , बस एक अजूबा- नीलम कुलश्रेष्ठ Neelam Kulshreshtha , मजनू का टीला- नीरज नीर Neeraj Neer। लघुकथाएँ ममता- डॉ. आर बी भण्डारकर Dr-rb Bhandarkar , अनन्य भक्त, गोरैया प्रेम, -सुभाष चंद्र लखेड़ा Subhash Chandra Lakhera , पश्चाताप, मुर्दों के सम्प्रदाय- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी Chandresh Kumar Chhatlani , करेले की बेल- किशोर दिवसे Kishore Diwase , रक्षा-बंधन- विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’ , और वह लौट गया- मुरलीधर वैश्णव Murlidhar Vaishnav। भाषांतर संतरा- पोलिश कहानी - वलेरियन डोमेंस्की, अनुवादक- मलय जैन Maloy Jain , जे. तेकुरा मेसन- अनुवादक- डॉ. अमित सारवाल Amit Sarwal। व्यंग्य भाया बजाते रहो- स्वाति श्वेता Swati Shweta। दृष्टिकोण- चिन्तन के पल- शशि पाधा Shashi Padha। व्यक्ति विशेष मुंशी हीरालाल जी जालोरी- मंजु ‘महिमा’ Manju Mahima। शहरों की रूह चिनार ने कहा था- मुरारी गुप्ता Murari Gupta। ग़ज़लें अनिरुद्ध सिन्हा Anirudh Sinha , शिज्जु शकूर Shijju Shakoor , नुसरत मेहदी Nusrat Mehdi। दोहे डॉ. गोपाल राजगोपाल Gopal B Rajgopal। कविताएँ जालाराम चौधरी Jala Ram Choudhary , गीता घिलोरिया Gita Ghiloria , रोहित ठाकुर Rohit Thakur , पंखुरी सिन्हा Pankhuri Sinha , प्रीती पांडे @preeti pande , केशव शरण Keshav Sharan। नवगीत शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ Shivanand Singh Sahyogi , गरिमा सक्सेना Garima Saxena , सोनरूपा विशाल Sonroopa Vishal। समाचार सार बिलासपुर में राष्ट्रीय व्यंग्य महोत्सव प्रेम जनमेजय , ‘चारों ओर कुहासा है’, का लोकार्पण Raghuvir Sharma , ‘नए समय का कोरस’ पर चर्चा Rajni Gupt , मदारीपुर जंक्शन पर चर्चा आयोजित Balendu Dwivedi , व्यंग्य की कलम से आयोजन Farooq Afridy Jaipur , मुंबई में साहित्य समारोह, अनिल शर्मा की पुस्तक का लोकार्पण, चलो, रेत निचोड़ी जाए, आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा शताब्दी समारोह Jawahar Karnavat , ‘सृजन संवाद’ की हीरक जयंति, ‘नव अर्श के पांखी’ का विमोचन, हिंदी कार्यशाला, ‘अभिनव प्रयास’ काव्य समारोह Ashok Anjum , अर्चना नायडू सम्मानित Archana Nayudu , अशोक मिज़ाज की चुनिंदा ग़ज़लें Ashok Mizaj Badr , सुँदर काण्ड : भावनुवाद Lavanya Shah , ‘ओम फट फटाक’ का लोकार्पण , पूरन सिंह को दलित अस्मिता सम्मान Puran Singh , डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी को लमही सम्मान Gyan ChaturvediVijai Rai , शांतिलाल जैन को सम्मान Shantilal Jain। आख़िरी पन्ना
आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा Babbal Guruडिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny GoswamiShaharyar Amjed Khan , आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

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शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 3, अंक : 11 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2018

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मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeer , कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar Amjed Khan , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 3, अंक : 11 त्रैमासिक : अक्टूबर-दिसम्बर 2018 इस अंक में कुछ यूँ... आवरण कविता / परवीन शाकिर, संपादकीय / शहरयार, व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar , विशेष पुस्तक- मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा, रमेश उपाध्याय Ramesh Upadhyaya , समीक्षक : डॉ. राकेश कुमार Rakesh Kumar। पीढ़ियाँ आमने-सामने- इस हमाम में / सूर्यबाला @soorybala , समीक्षक : राहुल देव Rahul Dev। विमर्श- पेड़ ख़ाली नहीं है / नरेन्द्र नागदेव Narendra Nagdev , विमर्श : गोविन्द सेन Govind Sen। शोध-आलेख- नारी अस्मिता का प्रश्न / त्रिशिला तोंडारे @trishila tondare । डायरी- नग्गर - रोरिख़ और प्रणव का नगर, पल्लवी त्रिवेदी Pallavi Trivedi। फ़िल्म समीक्षा के बहाने- मुल्क, संजू / वीरेन्द्र जैन Virendra Jain। पुस्तक चर्चा, हत्यारी सदी में ... / गौतम राजऋषि / मुकेश निर्विकार मुकेश निर्विकार , सतरंगी मन @satrangi man / अरुण लाल Arun Lal / शिल्पा शर्मा @shilpa sharma , वह मुक़ाम कुछ और / अशोक ‘अंजुम’ Ashok Anjum / उदय सिंह ‘अनु Kunwar Uday Singh Anuj’, शतदल / सुरेश सौरभ @suresh saurabh / डाक्टर मृदुला शुक्ला @mridula shukla । समीक्षा अस्सी घाट का बाँसुरी वाला / डॉ. सीमा शर्मा / तेजेन्द्र सिंह लूथरा @tejendra singh luthra , तुम्हारे जाने के बाद / प्रकाश कान्त Prakash Kant / कृष्णकान्त निलोसे @krishnkant nilose , मदारीपुर जंक्शन / ओम निश्चल Om Nishchal / बालेन्दु द्विवेदी Balendu Dwivedi , जो घर फूँके आपना / मलय जैन Maloy Jain / अरुणेंद्र नाथ वर्मा Arunendra Verma , हैश, टैग और मैं / प्रभाशंकर उपाध्याय @prabhashankar upadhyay / अरुण अर्णव खरे Arun Arnaw Khare , यायावरी...यादों की / @समीर लाल ‘समीर’ Udan Tashtari / नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , झीरम का अधूरा सच / अनिल द्विवेदी @anil dwivedi / कुणाल शुक्ला Kunal Shuklaऔर प्रीति उपाध्याय @priti upadhyay , विज्ञप्ति भर बारिश / सवाई सिंह शेखावत Sawai Singh Shekhawat / ओम नागर Om Nagar , चीड़ के वनों में लगी आग / आशा खत्री ‘लता’ / आशा शैली Asha Shailly , सच, समय और साक्ष्य, थोड़ी यादें, थोड़ी बातें, थोड़ा डर’ / डॉ. रामप्रकाश वर्मा / शैलेन्द्र शरण Shailendra Sharan , कर्फ़्यू लगा है / अशोक गुजराती Ashok Gujarati / प्रकाश पुरोहित @prakash purohit , कहत कबीर / सत्यानंद ‘सत्य’ / डॉ. सुरेश पटेल Suresh Patel , जोकर ज़िन्दाबाद / अरविन्द कुमार खेड़े @arvind kumar khede / शशिकांत सिंह शशि‘शशि’ @shashikant shashi , मूल्यहीनता का संत्रास / सतीश राठी Satish Rathi / डॉ. लता अग्रवाल DrLata Agrawalgrwal । आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा बब्बल गुरू Babbal Guru , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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देर मेरी ही तरफ़ से हुई है दीपावली के मुशायरे हेतु, क्षमा के साथ दीपावली के तरही मुशायरे का तरही मिसरा प्रस्तुत है

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दोस्तो, यह बात सही है कि ज़िंदगी में कभी-कभी ऐसा समय आता है, जब दिन भर के चौबीस घंटे भी कम लगने लगते हैं। ऐसा लगता है कि बहुत से काम तो बाक़ी पड़े हैं अधूरे अभी करने को। और ऐसे में होता यह है कि सूरज निकलने और ढलने का समय कब गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता। कई बार तो यह व्यस्तता थका देने वाली हो जाती है। सच है कि व्यस्तता में ही जीवन का सारा आनंद छिपा हुआ है मगर इस व्यस्तता के बीच ‘फ़ुरसत के रात-दिन’ तलाशने को मन भटकने लगता है। ऐसा लगता है कि एक बार फिर से ठण्ड की गुनगुनी दोपहर में कुछ न किया जाए, बस आँगन में डली हुई खाट पर किसी निकम्मे की तरह पूरा दिन काटा जाए। हर स्थिति का अपना आनंद होता है, व्यस्तता का अपना आनंद होता है, तो फ़ुरसत का अपना ।

इस बार दीपावली की तरही के लिए मिसरा देने का काम करने की बात पिछले दस दिन से दिमाग़ में आ रही है; लेकिन पहले दोनो पत्रिकाओं की व्यस्तता बनी हुई थी। शिवना साहित्यिकी और विभोम स्वर पर काम चल रहा था। वह पूरा हुआ, तो ऑफ़िस में दीपावली की वार्षिक सफाई-पुताई प्रारंभ हो गई । एक पूरा सप्ताह उसमें लग गया। अब उससे ज़रा फ़ुरसत मिली, तो याद आया कि अरे ! अभी तक तो मिसरा ही नहीं दिया है। अब तो दीपावली में बस कुछ ही दिन रह गए हैं। आज शरद पूर्णिमा है, तो उस हिसाब से तो बस पन्द्रह ही दिन बचते हैं अब दीपावली में। तो आज सोचा गया कि दीपावली का तरही मिसरा देने का काम आज ही किया जाएगा।

चूँकि समय कम है इसलिए सोचा गया कि आसान बहर पर आसान मिसरा दिया जाए। कुछ ऐसा जिसको करने में बहुत मुश्किल नहीं हो। केवल इसलिए क्योंकि समय कम है और यदि कठिन मिसरा हो गया, तो इस कम समय में ग़ज़ल नहीं कह पाने का एक रेडीमेड कारण कुछ लोगों (नीरज जी की बात नहीं हो रही है) के पास आ जाएगा। तो इस बार सोचा कि सबसे आसान बहर हज़ज की उप बहर का ही चुनाव किया जाए। उसमें भी कोई ऐसी बहर जो आसान भी हो और उस पर काम भी ख़ूब किया गया हो। तो याद आई यह बहर मुफाईलुन-मुफाईलुन-फऊलुन मतलब 1222-1222-122 बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ुल ​आख़िर। बहर की मात्राओं के विन्यास से कोई गीत या ग़ज़ल याद आई ? नहीं आ रही, चलिए ‘जगजीत सिंह’ की गाई ‘मेराज फ़ैज़ाबादी’ की यह बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल सुन लीजिए –तेरे बारे में जब सोचा नहीं था, मैं तनहा था मगर इतना नहीं था।  इसके सारे शेर मुझे पसंद हैं विशेषकर ये –सुना है बंद कर लीं उसने आँखें, कई रातों से वो सोया नहीं था। और एक फ़िल्मी गीत भी याद आ रहा है जे पी दत्ता की ‘बॉर्डर’ का –हमें तुमसे मुहब्बत हो गई है, ये दुनिया ख़ूबसूरत हो गई है।

तो इस बहर पर जो मिसरा दीपावली के तरही मुशायरे के लिए सोचा गया है वह ये है

ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

ये दीपक रा 1222,  त भर यूँ ही 1222 जलेंगे 122

य दी पक रा त भर यूँ हीज लें गे
12221222122
मुफाईलुनमुफाईलुनफऊलुन

यहाँ पर “ये” को गिरा कर बस “य” कर दिया गया है।

यह बिना रदीफ़ का मिसरा है जिसमें ‘जलेंगे’ क़ाफ़िया है, और क़ाफ़िया की ध्वनि है “एँगे” मतलब करेंगे, सुनेंगे, गिरेंगे, चलेंगे, हटेंगे, लेंगे, देंगे, आदि आदि। हालाँकि इसमें छोटी ईता का मामला है, मगर उसे मतले में बुद्धि का प्रयोग कर निपटाया जा सकता है। यदि आपको लगता है कि सरल काम है, तो आप उसे अपने लिए कठिन भी कर सकते हैं “एँगे” के स्थान पर “लेंगे” की ध्वनि को मतले में बाँध कर। मतलब फिर क़ाफ़िये सीमित हो जाएँगे, फिर आपको चलेंगे, ढलेंगे, खलेंगे, गलेंगे, पलेंगे, फलेंगे, मलेंगे, तलेंगे, दलेंगे, मलेंगे, छलेंगे, टलेंगे, डलेंगे जैसे क़ाफ़िये ही लेने होंगे, हाँ उस स्थिति में ईता का दोष भी नहीं बनेगा। पर यह मामला कुछ कठिन हो जाएगा। नए लोग इस बात को इस प्रकार समझ लें कि यदि आपने मकते में दोनो मिसरों में “लेंगे” की ध्वनि को क़ाफ़िया बनाया है, तो आगे पूरी ग़ज़ल में आपको यही ध्वनि रखना है; मगर यदि आपने ऐसा नहीं किया है, तो आप स्वतंत्र हैं कुछ भी क़ाफ़िया लेने हेतु।

दोस्तो देर तो हो गई है और यह मेरी तरफ़ से ही हुई है, लेकिन मुझे पता है कि आप सब मिलकर मेरी इज़्ज़त रख लेते हैं और कहने का मान रख लेते हैं। तो जल्द से जल्द अपनी ग़ज़ल कहिए और भेज दीजिए जिससे हम हर बार की तरह इस बार भी धूमधाम से दीपावली का यह पर्व मना सकें। चलते चलते यह सुंदर ग़ज़ल सुनना तो बनता है।

आज धनतेरस है, आज से दीपावली का त्यौहार प्रारंभ होता है तो आज हम भी श्री राकेश खंडेलवाल जी, श्री महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश, श्री अश्विनी रमेश, श्री मन्सूर अली हाशमी और सुलभ जायसवाल के साथ प्रारंभ करते हैँ दीपावली के मुशायरे का।

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एक बार फिर से दीपावली को त्यौहार सामने आ गया है। आज धन तेरस है, जो वास्तव में अच्छे स्वास्थ्य को लेकर मनाया जाने वाला पर्व है। कालांतर में इसे धनवंतरी से धन में बदलदिया गया। हमारे पूर्वज तो कहते भी  थे कि पहला सुख निरोगी काया। आइए आज इस आरोग्य दिवस पर मिल कर प्रार्थना करते हैं कि विश्व में सभी स्वस्थ रहें, किसी को कोई बीमारी न हो, कष्ट न हो। असल में हम ने तन मन धन में से पहले दो को तो लगभग छोड़ ही दिया है और हम इस समय पीछे पड़ गए हैं तीसरे के, अर्थात धन के। और यह जो तीसरा है यह हमारे पहले दोनो को नष्ट कर रहा है। इसलिए ध्रन तेरस पर हम अच्छे स्वास्थय की कामना करें।

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deepawali (16)[4]ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे deepawali (16)

इस बार मिसरा देने में ज़रा देर हो गई थी उसके बाद भी आप सब ने मेरे कहे का मान रखा और अपनी गज़ल़ें भेजीं, आप सब का यही प्रेम मुझे बार-बार अंदर तक छू जाता है। यह जो भावना है कि यह ब्लॉग हम सब को है अपना है, बस यही बनी रहे। आज धनतेरस है, आज से दीपावली का त्यौहार प्रारंभ होता है तो आज हम भी श्री राकेश खंडेलवाल जी, श्री महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश, श्री अश्विनी रमेश, श्री मन्सूर अली हाशमी और सुलभ जायसवाल के साथ प्रारंभ करते हैँ दीपावली के मुशायरे का।

deepawali (5)

rakesh khandelwal ji

deepawali

राकेश खंडेलवाल

deepawali (1)[4]

नहीं तरही में हम शिरकत करेंगे
ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे

अगरचे कह दिए हमने जो मिसरे
तो नीरज हाथ फिर अपने मलेंगे

हुआ जो ज़िक्र ग़ज़लों का सभा में
सभी बस इक तिलक का नाम लेंगे

सुलभ है ये ग़ज़ल सौरभ का कहना
तभी भकभौं भी उनका साथ देंगे

है आश्विनमास  की गहरी अमावस
यहीं पर स्वाति से मोती  झरेंगे

नकुल, गुरप्रीत, द्विज सब कह रहे हैं
दिगंबर नाम अब रोशन करेंगे

खलिश तो लिख चुके दस बीस गज़लें
कहें, हम गिनतियाँ कब तक करेंगे

सुमित्रा और नैयर, हाशमी सब
नए अंशआर को अंजाम देंगे

खड़े हम दूर से देखा करेंगे
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

deepawali (3)

राकेश जी हर बार पूरे परिवार को संबोधित करते हुए अपनी ग़ज़ल कहते हैं। इस बार भी उन्होंने पूरे ब्लॉग परिवार को समेट लिया है। इस प्रकार की रचना कहना बहुत मुश्किल काम होता है, जिसमें नामों को रचना में पिरोना हो। राकेश जी गीत सम्राट हैं, इसलिए उनके लिए इस प्रकार के काम बहुत आसान होते हैं। इस प्रकार की रचनाओं से आपसी प्रेम और सौहार्द्र भी बढ़ता है, एक प्रकार का बंधन एक दूसरे के साथ महसूस होता है। हम लोग भले ही मिले नहीं हैं लेकिन ऐसा लगता ही नहीं है कि हम मिले नहीं हैं। राकेश जी इस ब्लॉग परिवार के प्रारंभ से ही यहाँ जुड़े हैं, तथा इस तरही मुशायरे को चलायमान रखने में उनकी सबसे अधिक प्रेरणा होती है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे में उनकी उपस्थिति हम सब के लिए आनंद का विषय होती है। आज उनकी यह ग़ज़ल और अगले अंकों में उनके गीत भी हम सुनेंगे। फिलहाल तो आज की इस ग़ज़ल के लिए वाह वाह वाह ।

deepawali (5)[3]

MAHESH CHANDRA GUPT KHALISH

deepawali[3]

महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

deepawali (1)[8]

ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे
जले हम किसलिए, मन में कहेंगे

भले कुछ देर को हम टिमटिमाए
मगर दिल के अंधेरे तो रहेंगे

जो दिल की ले गए खुशियाँ हैं सारी
न हम से वो अंधेरे मिट सकेंगे

हुआ माहौल कुछ संगीन सा है
भला ऐसे में दीपक क्या करेंगे

जला कर क्यों हमें ख़ुश हो रहे हो
हमारी लौ में परवाने मरेंगे

तुम्हें कोई नहीं कुछ भी कहेगा
मगर सब दोष हम पर ही मढ़ेंगे

चुका है तेल, बाती भी फुंकी  है
ख़लिश मरना था, लो हम भी मरेंगे.

deepawali (3)[3]

मतले के साथ ही ग़ज़ल बहुत ख़ूबसूरत तरीक़े से प्रारंभ होती है। एक ओर सकारात्मक पक्ष है तो दूसरी ओर नकारात्मक भी है। जो दिल के ले गए खुशियाँ हैं सारी में अंधेरों के कायम रहने की बात है । जला कर क्यों हमें खुश हो रहे हो शेर में मिसरा सानी में उस आग में परवानों के बहाने गहरी बात कहने का प्रयास किया गया। यह प्रयास शेर को एक बिलकुल ही अलग अर्थ प्रदान कर रहा है। चुका है तेल बाती भी फुंकी है में अंतिम दृश्य को अलग प्रकार के बिम्ब से दिखाने की कोशिश की गई है। बहुत ही अच्छी ग़ज़ल वाह वाह वाह।

deepawali (5)[5]

ashwini ramesh ji

deepawali[3] 

अश्विनी रमेश

deepawali (1)[12] 

ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे
अंधेरे अब उजाले   में   ढलेंगे

अजब यूं रात दुल्हन सी सजेगी
दिवे जब रात भर उजले जलेंगे

सभी के ज़हन से नफ़रत मिटा कर
उजाला प्यार का बिखरा चलेंगे

अंधेरा सब के अंदर का मिटाने
ये दीपक प्यार के हर सू जलेंगे

मनेगी अब के दीवाली अलग कुछ
पटाखे जब बहुत कम ही चलेंगे

रिवायत इस दफा ऐसी चलाओ
गले लग नाच गाते  सब मिलेंगे

ये महफ़िल यूं सदा रोशन रहेगी
मिटाकर फासले जब हम चलेंगे

deepawali (3)[5]

पूरी तरह से यह ग़ज़ल दीपावली के पर्व को समर्पित है। हर शेर में अंधेरे से लड़ने की कामना की गई है और उस कामना में उजाले के लिए दीप जलाया गया है।सभी के ज़हन से नफरत मिटा कर प्यार के उजाले को हर तरफ़ बिखरा देने की जो कामना की गई है, वह काश सच हो जाए। अंदर के अंधेरे को मिटाने के लिए प्यार के दीपक हर सू जलाने की जो बात कही गई है वह बात हम सभी को समझने की आवश्यकता है। हम सब को समझना होगा कि प्यार से ही हर अंधेरा मिटाया जा सकता है। बहुत ही अच्छी ग़ज़ल वाह वाह वाह।

deepawali (5)[7]

sulabh jaiswal

deepawali[3] 

सुलभ जायसवाल

deepawali (1)[12]

अंधेरे रात भर थर थर करेंगे
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

तुम्हारे बिन कभी हम चल सकेंगे
तुम्हारे बिन कदम कैसे उठेंगे
अभी कुछ दिन सहारा हम न देंगे
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

सिपाही चुप खड़ा है सरहदों पर
बसेरा मौन का है परबतों पर
मगर जुगनु को लड़ना है लड़ेंगे
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

सुहागिन एक हर दम साथ रहती
जो माथे की लकीरों को है पढ़ती
अकेला छोड़ उसको जी सकेंगे?
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

deepawali (3)[7]

गीत पर कुछ भी कहने से पहले सुलभ का यह संदेश -इस वक्त पूर्णिय शहर के एक अस्पताल के सुरक्षित कक्ष में लेटा हूं. दहीना (bhojpuri shabd) पैर हिलाने मे असमर्थ. कल 24 अक्टूबर को ऑपरेशन होना है. आज दोपहर अचानक से स्मार्ट phone के स्क्रीन पर यह मिसरा आया, जाने क्यूँ यह गीतों में ढलना चाह रहा है। गीत के बारे में कुछ भी कहने से पूर्व हम सब की ओर से सुलभ को आज आरोग्य दिवस पर अच्छे स्वास्थ्य की मंगल कामनाएँ। गीत बहुत अच्छा बना है। अलग तरह के भावों को लेकर छंद बनाए है। सरहद पर खड़े सिपाही से लेकर सुहागिन तक सभी को अपने छंद में समेटा है। बहुत ही सुंदर गीत वाह वाह वाह।

deepawali (5)[7]

Mansoor ali Hashmi

deepawali[3] 

मन्सूर अली हाश्मी

deepawali (1)[12]
 

सियासत में हज़ारों सुख सहेंगे
ज़बाँ लेकिन न अपनी हम सिलेंगे

शबे तारीक से लड़ने की ख़ातिर
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे।

नही आती बनाना 'चाय'तो क्या
'पकौड़े'दोस्तों हम तो तलेंगे।

फिर अच्छे दिन की आमद हो रही है
अति ही शिघ्र गल बहिया करेंगे।

ज़रा फुर्सत मिले तो देख लेना
हमारे 'लाख पन्द्रह'कब मिलेंगे!

हुई आचार की संहिता जारी
अभी छुपकर ही हम तुम से मिलेंगे

बग़ावत अबकि तोतों ने भी कर दी
कहा मालिक का बोला न रटेंगे

है पछतावा तो नाकरदा गुनाह का
मगर मीटू से कैसे हम बचेंगे

कोई तो मसलहत होगी कि चुप है
'रफेली डील'में हम न पड़ेंगे!

सियासी भेद हम सारे भुलाकर
तरक़्क़ी ही की अब बातें करेंगे।

deepawali (3)[9]

राजनैतिक व्यंग्य करने में हाशमी जी का कोई सानी नहीं है। अपने आस पास के पूरे परिदृश्य का अपने शेरों में समेट लिया है उन्होंने। चाय से लेकर पकौड़े तक और अच्छे दिन से लेकर पन्द्रह लाख तक और मीटू तक हर विषय को अपने शेर में जगह देने की सफल को​शिश की है उन्होंने। कुछ शेर तो अंदर तक गुदगुदाते हुए गुज़रते हैं। बग़ावत अब कि तोतों ने भी कर दी में बहुत तीखा व्यंग्य है। रफेली डील से लेकर प्रदेश में चुनावों की आचार संहिता तक सब कुछ समेटा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

deepawali (5)[7]

तो यह आज के पाँचों शायर हैं, जो मुशायरे का आग़ाज़ कर रहे हैं। आपकी ज़िम्मेदारी तो ज़ाहिर सी बात है कि वही ​है कि कि आप अच्छे शेरों पर वाह वाह करें, हौसला अफ़ज़ाई करें। तो मन से दाद दीजिए हम लिते हैं अगले अंक में।

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रूप की यह चतुर्दशी आइए आज कुछ अपेक्षाकृत युवा चेहरों के साथ मनाते हैं आज सुनते हैं दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, राजीव भरोल, अंशुल तिवारी तथा निर्मल सिद्धू की ग़ज़लें।

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orkut scrap diwali ki shubhkamane hindi greeting card

रूप की चतुर्दशी का त्यौहार आज मनाया जा रहा है। इस दिन सुबह से उठ कर उबटन लगा कर स्नान करने का अपना महत्व होता है। बचपन के दिन याद आते हैं जब हम सब बच्चे सुबह्र-सुबह नहाने से बचने के लिए क्या-क्या उपक्रम करते थे। बात नहाने की नहीं होती थी, बात उबटने से होने वाली रगड़ की होती थी। अब जाकर पता चला कि जीवन में चमक लाने के लिए रगड़ बहुत ज़रूरी है। जब तक घिसा नहीं जाएगा तब तक चमक नहीं आएगी। आजकल हमने अपने बच्चों को रगड़ से बचाने के पूरे इंतज़ाम किए हुए हैं, और इसीलिए ऐसा हो रहा है कि वे जीवन में पहली कठिन धूप मिलते ही मुरझा जाते हैं। आइए रूप चतुर्दशी का यह पर्व हम सब मिलकर मनाएँ और कामना करें कि दुनिया का हर इन्सान अंदर से रूपवान हो जाए, सबके अंदर की ख़ूबसूरती और निखर उठे। आमीन। 

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deepawali-164_thumbये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे deepawali-16_thumb

रूप की यह चतुर्दशी आइए आज कुछ अपेक्षाकृत युवा चेहरों के साथ मनाते हैं आज सुनते हैं दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, राजीव भरोल, अंशुल तिवारी तथा निर्मल सिद्धू की ग़ज़लें।

deepawali (7)

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दिगंबर नासवा

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अँधेरे कब तलक लड़ते रहेंगे
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे 

जो तोड़े पेड़ से अमरूद मिल कर 
दरख्तों से कई लम्हे गिरेंगे

किसी के होंठ को तितली ने चूमा
किसी के गाल अब यूँ ही खिलेंगे

गए जो उस हवेली पर यकीनन
दीवारों से कई किस्से झरेंगे

समोसे, चाय, चटनी, ब्रेड पकोड़ा
न होंगे यार तो क्या खा सकेंगे  

न जाना “पालिका बाज़ार” तन्हा
किसी की याद के बादल घिरेंगे

न हो तो नेट पे बैंठे ढूंढ लें फिर
पुराने यार तो यूँ ही मिलेंगे

मुड़ी सी नज़्म दो कानों के बुँदे
किसी के पर्स में कब तक छुपेंगे

अभी तो रात छज्जे पे खड़ी है  
अभी जगजीत की गजलें सुनेंगे

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दिगम्बर की ग़ज़लें इतनी नास्टेल्जिक होती हैं कि कभी कभी आँखों को नम कर देती हैं। यह तो पूरी ही ग़ज़ल मानों स्मृतियों के गलियारों की सैर करती हुई टहल रही है। अमरूद के बहाने से पेड़ से लमहों का गिरना और किसी हवेली में जाते ही उस हवेली की दीवारों से किस्सों का गिरना…. उफ़ बहुत ही अच्छे बिम्ब रचे हैं। अंदर तक नमी को फिर से जीवित कर देते हैं। किसी के पर्स में एक नज़्म और दो बूँदे बहुत ही कमाल का अंदाज़ है यहाँ कहने का। किसी के होंठ को तितली के चूमने से किसी के गालों का खिल उठना कमाल है। समोसे, चाय, पालिका बाज़ार से लेकर जगजीत सिंह की ग़ज़लों तक, सब कुछ जैसे किसी बीती कहानी के फिर जीवित उठने जैसा है। वाह वाह वाह।

deepawali (7)[4]

Gurpreet singh

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गुरप्रीत सिंह

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जो अनजाना सा डर ज़हनों में रेंगे ।
निज़ात उस से कभी हम पा सकेंगे ? 

मनों में भर दिया आकाश का डर,
परिंदे अब भला कैसे उड़ेंगे ।

भले ही छीन लो नजरें हमारी,
मगर हम ख़्वाब तो देखा करेंगे ।

नहीं मरने का डर, बस बात ये है,
कोई कह कर गया था 'फिर मिलेंगे’

तू आए या न आए इस दफ़ा भी ,
''ये दीपक रात भर यूँ  ही जलेंगे।''

हँसी के गुल तेरे अश्कों के मोती,
न जाने किस के दामन में गिरेंगे ।

वो सीने पे रखे सर सो गए हैं ,
वो उठ जाएंगे, गर हम सांस लेंगे ।

मैं इक आशिक का दिल हूँ, आप मुझको,
भला किस-किस किनारे से सिएँगे ।

हमें ये वहम ले डूबा हमारा ,
कि वो जाएगा, तो हम रोक लेंगे ।

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मैंने मिसरा देते समय कहा था कि इस बार मिसरा छोटी ईता के दोष का मिसरा है। क्योंकि कहेंगे, मिलेंगे, खिलेंगे… जैसे सारे शब्दों में ध्वनि “एंगे” को हटा दिया जाएगा तो पूर्ण शब्द कह, मिल, खिल बचा रहेगा। गुरप्रीत ने उस ही बात को पकड़ कर अपनी ग़ज़ल को ईता दोष से मुक्त रखने की कमाल की युक्ति की है मतले में। ग़ज़ब, बहुत अच्छे। मनों में भर दिया आकाश का डर एक शुद्ध पॉलेटिकल शेर है, दुष्यंत की याद दिलाता हुआ। और ख़्वाब वाला अगला शेर भी वैसा ही कमाल है। फिर मिलेंगे वाला शेर तो मानों अंदर तक उतर जाता है, बहुत ही सुंदर। वो सीने पे रखे सर सो गए हैं…. उफ़ ये तो बहुत ही उस्तादाना बात कह दी गई, ग़ज़ब का शेर और क्या ही मासूमियत है मिसरा सानी में। मैं इक आशिक का दिल में भी पूरी तरह से उस्तादाना रंग है ग़ज़ब का ही शेर है । और अंत का शेर भी बहुत ही कमाल से रचा गया है। बहुत बहुत अद्भुत ग़ज़ल…. वाह वाह वाह।

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RAJIV BHAROL

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राजीव भरोल

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तेरा ऐ ज़िन्दगी हम साथ देंगे
कि जब तक ले सकेंगे सांस लेंगे

किसे कल की ख़बर पर हम तुम्हारा
जहां तक हो सकेगा साथ देंगे

तेरी यादों  के दीपक जल उठे, अब
ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे

पपीहे तेरे दुख का गीत, बादल
सुनेंगे, देखना इक दिन सुनेंगे

ये सोचा ही नहीं हमने कि तुम बिन
अगर जीना हुआ कैसे जियेंगे

तेरे अपने ही तेरी पीठ पीछे
बताऊँ क्या तुझे क्या क्या कहेंगे

ये दिल के घाव अपनों ने दिये हैं
किसे मालूम ये कब तक भरेंगे

हम अपनी सोच के इस शोरोगुल में
सदा ए दिल भला कैसे सुनेंगे

मेरे इस ख़ुदशनासी के सफ़र में
कदम जाने कहाँ जाकर रुकेंगे

नमी ढूँढा किये हो पत्थरों में
तुम्हें राजीव सब पागल कहेंगे

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राजीव ने भी मतले में अपने क़ाफ़ियों से ग़ज़ल को छोटी ईता से मुक्त कर दिया है उस पर मतला भी बहुत ही कमाल का रचा है। गिरह का शेर बिलकुल ही नए तरीक़े से कहा गया है, यह ढंग भी इस मिसरे की गिरह का हो सकता है। और पपीहे के दुख का गीत बादलों के सुनने में मिसरा सानी बहुत ख़ूबसूरत बना है। किसी के बिन जीने की कल्पना भी नहीं करने वाला शेर सुंदर बना है। एक बहुत ही बारीक सा शेर इस बीच बना है और वो है हम अपनी सोच के इस शोरोगुल में सदा ए दिल भला कैसे सुनेंगे, बहुत ही सलीक़े से बड़ी बात इस शेर में कह दी गई है। बहुत ही सुंदर। और तीखा तंज़ कसता ख़ुदशनासी वाला शेर भी कमाल है। मकते में भी बहुत सलीक़े से मिसरा सानी कहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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ANSHUL TIEARI

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अंशुल तिवारी

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कहानी रात की सारी कहेंगे,
ये दीपक रात भर यूँही जलेंगे।

सियाही रात की सारी धुलेगी,
ये झरने रौशनी के जब बहेंगे।

अकेला दीप जब देगा चुनौती,
अंधेरे हाथ बस अपने मलेंगे।

ख़ुदा! इस नर्म दिल पे वार तीखे,
बता तू ही भला कब तक सहेंगे।

कभी तो चाँद बन के आओगी तुम,
कभी तो आशिक़ों के दिन फिरेंगे।

निशाने पे लगी है जान फिर भी,
क़दम अपने नहीं पीछे करेंगे।

मुहब्बत बस किताबों में बची है,
तेरे इस कौल को झूठा करेंगे।

ग़ज़ल कहने में यों तो मुश्किले हैं,
मगर कोशिश मुसलसल हम करेंगे।

किसी दिन ख़्वाब ये होगा मुक़म्मल,
ख़ुशी के फूल घर-घर में खिलेंगे।

सुबह की इंतजारी शाम से है,
कल उनसे हम बहाने से मिलेंगे।

अगर तुम हाथ थामे चल पड़ोगी,
नहीं हम ज़िन्दगी में फिर गिरेंगे।

ज़रा तुम छेड़ दो तो बात ही क्या?
ये नदिया, पेड़, भी बातें करेंगे।

तुम्हें देखा, खिले कुछ फूल दिल में,
जो मिलने आओ... बागीचे खिलेंगे।

तुम अपनी राह चलते जाओ प्यारे,
खड़े हर मोड़ पर हम ही मिलेंगे।

मुहब्बत का मज़ा है डूबने में,
गधे हैं क्या, जो हम इससे तरेंगे?

सुहानी शाम बन बैठो कभी तो,
सितारे माँग में उजले जड़ेंगे।

डरे हैं जब से शादी हो गई है,
वगरना, हम किसी से क्या डरेंगे??

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मतला और उसके बाद के दोनों शेरदीपावली के पर्व को पूरा चित्र प्रस्तुस करते हुए कहे गए हैं। वही भावना जिस भावना से यह त्यौहार मनाया जाता है। फिर उसके बाद एकदम इश्क़ आ जाता है नर्म दिल पर तीखे वार और किसी का चाँद बन कर आ जाने की कामना, यह इश्क़िया कल्पना से रँगे हुए शेर हैं। और उसके बाद के दो शेर इश्क़ के जुनून में बदल जाने के शेर हैं कदम नहीं पीछे करने की बात हो या किताबों को झूठा साबित करने की बात हो, यह बात जुनून में ही की जा सकती है, बहुत सुंदर।ग़ज़ल कहने में मुश्किल और कोशिश की बात बहुत सुंदर है। आगे के पाँच शेर जो इश्क़ के वर्तमान पर कहे गए हैं बहुत अच्छे हैं जब हम इश्क़ में होते हैं तब यही सब होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

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nirmal sidhu

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निर्मल सिद्धू

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दिवाली के दिये घर - घर सजेंगे
ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे

चलेंगे आज फुलझड़ियां पटाख़े
मचेगी धूम दिल सबके हिलेंगे

मुहब्बत मे हुए दीवाने हम सब
गले इक दूजे के फिर से मिलेंगे

उजाला गर मिले तुहफ़े में सबको
ग़मों के साये ना ज़िन्दा रहेंगे

उजाला इल्म का है सबसे बेहतर
ये जो फैले अंधेरे सब मिटेंगे

हों सारे झूमते मस्ती में तो फिर
क़दम 'निर्मल 'के भी ना टिक सकेंगे

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मतले के साथ पहला शेर दीवाली के पर्व को पूरी तरह से चित्रित कर रहा है। एक दूसरे के गले मिलने के लिए ज़रूरी है कि हम सब एक दूसरे के प्रेम में पड़ जाएँ, एक दूसरे के प्यार में पड़ जाएँ। उजाला एक ऐसी शै है जो अगर हम एक दूसरे को तोहफ़े में दे दें तो कहीं किसी के जीवन में अँधेरा ही न रहे और सबसे अच्छा उजाला होता है इल्म का उजाला। आइए इस दीवापली हम सब एक दूसरे को इल्म के उजाले से ही रौशन करें। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो यह आज के पाँचों शायर हैं, जो मुशायरे को आगे बढ़ा रहे हैं। आप इन पाँचों को खुलकर दाद दीजिए, कल हम मिलते हैं दीपावली के अंक के साथ।

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शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, शुभ दीपावली… आप सभी को दीपावली के पावन पर्व की मंगल कामनाएँ आइए आज श्री राकेश खण्डेलवाल जी, श्रीमती लावण्या दीपक शाह जी, श्री नीरज गोस्वामी जी, श्री गिरीश पंकज जी, नुसरत मेहदी जी, श्री द्विजेन्द्र द्विज जी और श्री मंसूर अली हाशमी के साथ मनाते हैं दीपावली का पर्व।

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शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, शुभ दीपावली… आप सभी को दीपावली के पावन पर्व की मंगल कामनाएँ । दीपावली का यह पावन पर्व आप सभी के जीवन में मंगल और सुख लेकर आए। आप सब रचनात्मक दीपकों के प्रकाश से आलोकित रहें, आप सब अपनी सक्रियता से अपनी रचना धर्मिता से हमेशा प्रकाशित रहें यही प्रार्थना है। दीपावली अँधेरे कोनों में रोशनी के दीपक जलाने का पर्व है आप सब अपने लेखन के दीपक, अपनी रचनाओं के चराग यूँ ही प्रकाशित करते रहें, और उनके उजास में हमारा समय हमारा समाज जगमगाता रहे। शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, शुभ दीपावली।

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deepawali-164_thumb_thumb1ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे deepawali-16_thumb_thumb1

शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, शुभ दीपावली… आप सभी को दीपावली के पावन पर्व की मंगल कामनाएँ आइए आज श्री राकेश खण्डेलवाल जी, श्रीमती लावण्या दीपक शाह जी, श्री नीरज गोस्वामी जी, श्री गिरीश पंकज जी, नुसरत मेहदी जी,  श्री द्विजेन्द्र द्विज जी और श्री मंसूर अली हाशमी के साथ मनाते हैं दीपावली का पर्व। विशेष कर नुसरत मेहदी जी का शुक्रिया जिन्होंने  अमेरिका कनाडा के सफ़र में मॉन्ट्रियाल से 3 डिग्री टेम्प्रेचर में ग़ज़ल कह कर भेजी, यही तो स्नेह और प्रेम है इस ब्लॉग के प्रति आप सबका जो इसे निरंतर रखता है।

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राकेश खंडेलवाल

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शरद की पूर्णिमा से हो शुरू यह
सुधाये है टपकती व्योम पर से
जड़े है प्रीत के अनुराग चुम्बन
लपेटे गंध अनुपम,पाटलों पे
किरण खोलेगी पट जब भोर के आ
नई इक प्रेरणा ले हंस पड़ेंगे
नयी परिपाटियों की रोशनी ले
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

यही पल हैं कि जब धन्वन्तरि के
चषक से तृप्त हो लेंगी त्रशाए
“नरक” के बंधनों से मुक्त होकर
खिलेंगी रूप की अपरिमित विभागों
भारत की पूर्ण हो लेगी प्रतीक्षा
वियोगि पादुका से पग मिलेंगे
नए इतिहास के अब पृष्ठ लिखने
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

मिटाकर इंद्र के अभिमान को जब
हुआ गिरिराज फिर  स्थिर धरा पर
बना छत्तीस व्यंजन भोग छप्पन
लगाएँ भोग उसका  सिर झुकाकर
मिलेंगे भाई जाकर के बहन से
नदी यमुना का तट। शोभित करेंगे
मनाएँगे उमंगों के पलों को
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

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राकेश जी के गीतों का क्या कहना, एकदम दूसरी दुनिया के गीत होते हैं ये। प्रीत के अनुराग चुम्बन जो गंध लपेटे अनुपम पाटलों पे आते हैं, उनका क्या कहना, किरण जब भोर के पट खोलती है और नयी परिपाटियों की रोशनी सामने आती है तो छंद से सुगंध आने ही लगती है। पादुका से पग मिलने का बिम्ब तो कमाल का है। और फिर दीपावली के बाद की गोवर्धन पूजा का चित्र तो अगले छंद में इस प्रकार आया है कि पूरा चित्र ही साकार हो उठा है। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।

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श्रीमती लावण्या शाह

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दीपावली की प्रतीक्षा में   
ज़रा सोचो, दिवाली, आ रही है
दीयों में, लौ, बनी, बल खा रही है
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  .... ... 

सुनहरी शाम, आई है, घरों में,
रुपहली रात, नभ, मुस्का रही है !
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  ........

हों आतिशबाजियाँ, नीले गगन पे,   
चमकते चेहरे हों हर एक जन के !
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  ........

मिठाई हो, हँसे हर एक कोना,
दिलों में प्यार, पलता हो, सलोना !
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  .......

हो रौनक, और लगे सब कुछ, सुहाना
कलश पर बाती के संग हो, दियाना
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  .......

हो शुभ मंगल, करें, पूजन, हवन सब,     
  हों मंगल आरती में अब मगन सब !
ज़रा सोचो दिवाली आ रही है ....
ज़रा सोचो  ......

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लावण्या जी ने भी उसी बहर पर एक सुंदर गीत कह कर भेजा है। बहुत ही सुंदर गीत है, दीपावली की सारी मंगल कामनाओं को समेटे और दीपावली के सारे दृश्यों की आहट लिए यह गीत मद्धम मद्धम गूँजता है। सुनहरी शाम के नभ पर आने के बाद रुपहली रात का आ जाना। आतिशबाज़ियाँ और चमकते चेहरों के बीच दीपावली का उल्लास यही तो उत्सव है। शुभमंगल की कामना हो मंगल आरती में सब मगन हो रहे हैं, हर तरफ शुभ की उजास है, यही तो दीपावली है। वाह वाह वाह।

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नीरज गोस्वामी

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बदल कर भेष फूलों का, छलेंगे
ये काँटें जब मिला मौका, चुभेंगे

तुम्हारा जिस्म डाली मोगरे की
महक उट्ठेगा जब ये गुल खिलेंगे

बुजुर्गों की भी सुनते हैं ये बच्चे
मगर जो दिल कहेगा वो करेंगे

फटा जब ढोल खुद डाला गले में
बजेगा जब सुनेंगे , सर धुनेंगे

सिफर हमने किया ईजाद माना
सिफर से कब मगर आगे बढ़ेंगे

अंधेरों की सियासत को मिटाने
ये दीपक रात-भर यूँ ही जलेंगे

तसव्वुर में किसी के मुब्तला हैं
पुकारो मत, जमीं पे आ गिरेंगे

शजर की याद हो गहरी सफर में
तो रस्ते धूप के दिलकश लगेंगे

रखें निस्बत मगर कुछ फासले भी
तभी नीरज सभी रिश्ते निभेंगे

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नीरज जी की ग़ज़लें उनके ही रंग की होती हैं। यहाँ भी वे अपने रंग में हैं। मतले में चेतावनी देता हुआ एक संदेश है और उसके बाद एकदम वस्ल और प्रेम का रंग शायर पर चढ़ जाता है अपने प्रिय मोगरे के फूल के साथ । दो पीढ़ियों की टकराहट और समन्वय का अगला शेर सुंदर है। सिफर वाला शेर तो ग़ज़ब का ही तंज़ कर रहा है हमारे समय पर खूब। और उसके बाद गिरह का शेर भी बहुत अच्छा बना है। तसव्वुर में ज़मीं पर गिरने का भाव भी कमाल है। शजर का याद का सफ़र में आना गहरे अर्थों वाला शेर। बहुत अच्छी ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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girish pankaj

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गिरीश पंकज

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अगर हिम्मत जुटा कर के उठेंगे
सितमगर एक दिन बेशक मिटेंगे

अंधेरे हाथ अपने अब मलेंगे
'ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे"

मुझे उम्मीद है मंजिल मिलेगी
हमारा काम है चलना, चलेंगे

मिटा देंगे जगत का हम अंधेरा
गिनूँगा हाथ अब कितने उठेंगे

भले दो चार खंडित हो गए हैं
मगर कुछ स्वप्न दोबारा पलेंगे

यहां है भूख, बेकारी, करप्शन
यही मुद्दे जरूरी क्यों टलेंगे

हमारे हाथ में जलता दिया है
अंधेरे क्या हमें अब भी छलेंगे

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सकारात्मक भाव से सजा हुआ मतला जीने का हौसला प्रदान कर रहा है। और उसके बाद गिरह का हुस्ने मतला भी खूब बना है। फिर अगला ही शेर एक बार फिर से सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर है। एकदम सुंदर बना है। खंडित हो गए स्वपनों के बाद एक बार फिर से दूसरे स्वप्न पैदा हो जाना ये जिंदगी की सबसे बड़ी आशा है। और उसके बाद एक बार फिर शायर अपने समय से भूख और बेरोजगारी को लेकर प्रश्न कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह।

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nusrat mehdi

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नुसरत मेहदी जी

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नई टकसाल में जाकर ढलेंगे
कई सिक्के यहां फिर से चलेंगे

ज़रा सी फ़िक्र की वुसअत बढ़ाकर
नए मफ़हूम में मानी ढलेंगे

ये होगा फिर कई किरदार एक दिन
कहानीकार को ख़ुद ही खलेंगे

बहुत भटका रही हैं क़ुरबतेँ अब
तो हम कुछ फ़ासला रख कर चलेंगे

जिसे आना है लौ से लौ जला ले
"ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे"

बढ़ा दी है तपिश सूरज ने अपनी
तो अब ये बर्फ़ से लम्हे गलेंगे

खुला रक्खो दरे उम्मीद नुसरत
दुआओं के शजर फूले फलेंगे

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नुसरत जी ने ईता के दोष से बचने के लिए एंगे की जगह लेंगे को ध्वनि बनाया है। बहुत ही सुंदर मतला हमारे आपपास के समाज पर गहरा प्रश्न करता हुआ। और अगला ही शेर जीवन के सबसे बड़े दर्शन सोच के दायरे के विस्तार की बहुत सुंदरता के साथ बात करता है। कहानी कार वाला शेर पढ़ कर मैं स्तब्ध रह गया, मेरे अंदर के कहानीकार को तो अभी भी कई किरदार खलते हैं, ग़ज़ब। बहुत भटका रही हैं कुरबतें नुसरत मेहदी जी का अपने अंदाज़ का शेर है बहुत ही सुंदर बहुत खूब। और गिरह का शेर तो क्या कमाल का बना है, उफ़। तपिश में लम्हों का गलना बहुत सारे अर्थ लिए हुए एक सुंदर शेर । और मकता भी दीपावली की सकारात्मकता को समेटे है। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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द्विजेंद्र द्विज

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अँधेरे कब तलक अब दम भरेंगे
ये दीपक रात भर यूँ  ही जलेंगे

अँधेरे ही अगर  मन में रहेंगे
तो फिर ये दीप जल कर क्या करेंगे

अँधेरे आस्तीनों में पलेंगे
तो पग-पग पर हमें अक्सर डसेंगे

जो मायावी उजाले हैं, छलेंगे
उजालों पर तो वे फंदे कसेंगे

अँधेरों में कुछ ऐसे आ फँसेंगे
अँधेरों की ही सब माला जपेंगे

अँधेरे बैठ जाएँगे जड़ों में
अगर हम यूँ उन्हें ढोते रहेंगे

जो उनके रास्तों में आ रहे हैं
वो सारे पेड़ तो पहले कटेंगे

उजालों की सफ़ेदी के सिपाही
अँधेरों की सियाही से डरेंगे?

अँधेरे हैं अँधेरों की ज़रूरत
अँधेरों को उजाले तो खलेंगे

अँधेरे आदतों में आ बसे तो
हमेशा आदतों में ही बसेंगे

उजालों को तो आना ही है इक दिन
उजाले इस तरह कब तक टलेंगे

बपौती हैं किसी की क्या उजाले?
यहीं के हैं यहीं देने पड़ेंगे

अँधेरों ने जलाए हैं जो दीपक
वो दीपक क्या भला तम को हरेंगे

जलाओगे अगर दीपक से दीपक
अँधेरे कब तलक फिर यूँ टिकेंगे

भले हर रोज़ सूरज को है ढलना
नहीं ये आस के सूरज ढलेंगे

सिखाओ मत हमें यह क़ायदा तुम
जो कहना है हमें हम वो कहेंगे

उन्हें दरकार है कुछ तो उजाला
उजाले के लिए जो मर मिटेंगे

उजालों की तो मर्यादा यही है
ये कालिख पर भी उजियारा मलेंगे

उजालों का अगर हम साथ दें तो
अँधेरे इस तरह फूलें फलेंगे?

उजालों की नदी में डूब कर हम
उजाला अपने माथे पर मलेंगे

उजाले जिनके दम से हैं 'द्विज'उनके
नसीबों से अँधेरे कब छटेंगे?

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मतले के साथ चारों हुस्ने मतला भी अंधेरे से लड़ने की उम्मीद और हौसले से भरे हुए हैं। सब के सब बहुत सुंदरता के साथ दीपाली के अर्थ को साकार कर रहे हैं। जो उनके रास्ते में आ रहे हैं उन पेड़ों के कटने की बात क्या कमाल है, ग़ज़ब। और उजालों के सिपाहियों का अंधेरों से नहीं डरने वाला शेर भी खूब बना है। अंधेरे अंधेरों की ज़रूरत होना और अंधेरों की आदत पड़ जाने के बात भी बहुत ही सुंदरता के साथ कही गई है। उजालों की बपौती की बात क्या चुनौती के साथ कही गई, यहीं देने पड़ेंगे का जवाब नहीं ।अंधेरों के जलाए दीपकों की ओर इशारा कर के शायर ने राजनैतिक तंज़ कसा है बहुत खूब। और उजालों की मर्यादा का शेर उजियारे मलने के भाव को समेटे है। और अंत में शायर सामाजिक सरोकार में डूब कर प्रश्न करता है समय से मकते में। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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Mansoor ali Hashmi

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मंसूर अली हाशमी

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हे ग़ुंचा तो अभी गुल भी खिलेंगे
खिले है फूल अब फल भी  मिलेंगे।

तेरी यादों की लेकर रोशनी अब
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे।

मैं गर्दिश में हूँ तुम ठहरे ही रहना
मिले थे फिर मिले है फिर मिलेंगे

यहीं सदियों से होता आ रहा है
गिरें हैं फिर उठेंगे फिर चढ़ेंगे।

अभी 'मी टू'का चर्चा हर तरफ है
उपेक्षित क्या मुझे अब भी करेंगे?

'पटाख़े'चल रहे है, फिर रहे है
जो छेड़ा तो यक़ीनन यें फटेंगे।

बदलते दौर में मअयार बदले
घटेगा कोई तब तो हम बढ़ेंगे

हुए जब रुबरु तो फिर वह बोले
चलो जी! फेसबुक पर ही मिलेंगे

नही यह क़ैस-ओ-लैला का ज़माना
सितम हर्गिज़ न अब तो हम सहेंगे।

ब्लॉगिंग, फेसबुक अब छोड़ बैठें
लिखेंगे हम न अब कुछ भी पढ़ेंगे।

दिवाली 'हाश्मी'तू भी मना ले
दुबाला इस तरह ख़ुशियां करेंगे।

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बहुत हीं सकारात्मक मतले के साथ ग़ज़ल प्रारंभ होती है। और उसके बाद ही बहुत ही सुंदरता के साथ गिरह का शेर नए तरीक़े से बाँधा गया है। गर्दिश वाले शेर का मिसरा सानी तो क्या कमाल बना है। बहुत ही ग़ज़ब । और वैसा ही अगला शेर भी है। मीटू में मिसरा सानी की मासूमियत जानलेवा टाइप की है। किसी के घटने से अपने बढ़ने वाले शेर की बात बहुत ही सुंदर है। जीवन दर्शन का पूरा बिम्ब है। और सोशल मीडिया की आहट लिए रचे गए शेर भ नई कहन के कारण दिलचस्प हैं। वाह वाह वाह।

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शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, शुभ दीपावली… आप सभी को दीपावली के पावन पर्व की मंगल कामनाएँ आप खुलकर दाद दीजिए। मिलते हैं दीपावली के बासी मुशायरे के साथ क्योंकि अभी भी कुछ ग़ज़लें बाक़ी हैं।

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बासी दीपावली मनाने की इस ब्लॉग की परंपरा रही है तो आइये आज सर्वश्री बासुदेव अग्रवाल 'नमन', कृष्णसिंह पेला, तिलक राज कपूर, शेख चिल्ली, मन्सूर अली हाश्मी, गुरप्रीत सिंह और राकेश खंडेलवाल जी के साथ मनाते हैं बासी दीपावली।

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दीपावली का त्यौहार बीत गया है और आज छठ का पवित्र पर्व है, उदित होते सूर्य को अर्घ्य देकर अपने लिए शक्ति संचय करने का पर्व। देश के पूर्वी हिस्से में यह त्यौहार मनाया जाता रहा है किन्तु अब तो पूरे देश में ही मनाया जाता है। त्यौहारों को धर्म से अलग कर देना चा​हिए, तभी इनमें आनंद आएगा। फिर कोई नहीं कहेगा कि दीपावली हिन्दू का, ईद मुस्लिम का, क्रिसमस ईसाइयों का, बैसाखी सिक्खों का त्यौहार है। असल में त्यौहार तो इन्सान के होते हैं, धर्मों के नहीं। कितना अच्छा हो कि धर्म से सारे त्यौहार मुक्त हो जाएँ। किन्तु यह बस एक सुनहरी आशा है। आमीन।

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deepawali-164_thumb_thumb1_thumb1ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे deepawali-16_thumb_thumb1_thumb1

बासी दीपावली मनाने की इस ब्लॉग की परंपरा रही है तो आइये आज सर्वश्री बासुदेव अग्रवाल 'नमन', कृष्णसिंह पेला,  तिलक राज कपूर, शेख चिल्ली, मन्सूर अली हाश्मी, गुरप्रीत सिंह और राकेश खंडेलवाल जी के साथ मनाते हैं बासी दीपावली।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

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दिवाली पर यही व्रत धार लेंगे,
भुला नफ़रत सभी को प्यार देंगे।

रहें झूठी अना में जी के हरदम,
भले ही घूँट कड़वे हम पियेंगे,

इसी उम्मीद में हैं जी रहे अब,
कभी तो आसमाँ हम भी छुयेंगे।

रे मन परवाह जग की छोड़ करना,
भले तुझको दिखाएँ लोग ठेंगे।

रहो बारिश में अच्छे दिन की तुम तर,
मगर हम पे जरा ये कब चुयेंगे।

नए ख्वाबों की झड़ लगने ही वाली,
उन्हीं पे पाँच वर्षों तक जियेंगे।

वे ही घोड़े, वही मैदान, दर्शक,
नतीज़े भी क्या फिर वे ही रहेंगे?

तु सुध ले या न ले, यादों के तेरी,
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे।

सभी को दीप उत्सव की बधाई,
'नमन'अगली दिवाली फिर मिलेंगे।

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बहुत ही सुंदर मतले के साथ यह ग़ज़ल प्रारंभ हुई है। ज़ाहिर सी बात है कि यहाँ भी छोटी ईता से बचने की व्यवस्था की गई है। झूठी अना में जीने वालों का कड़वे घूँट पीना अच्छा तंज़ है ऐसे लोगों पर। और आसमाँ छूने की कामना का सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ शेर है। फिर सारी दुनिया की परवाह किए बिना अपने काम करते रहने का बेफिक्र शेर भी बहुत अच्छा है। राजनीति में नए ख़्वाबों की झड़ी लगने वाली है और शायर पाँच वर्ष की कल्पना कर रहा है। घोड़े, मैदान और दर्शक में भी अच्छा तेंज़ है। मकता बहुत अच्छा बना है। अच्छी ग़ज़ल वाह वाह वाह । 

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KRISHAN SINGH PELA_thumb[1]

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कृष्णसिंह पेला
धनगढी, नेपाल

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हमेशा लोग गूँगे क्यों रहेंगे ?
कभी तो राज़ से पर्दे उठेंगे ।

वो मेरे रुक्न से ही थम गए हैं
ग़ज़ल पूरी कहूँ तो गिर पडेंगे ।

है पहरा नूर का पूरी धरा पर
“ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे” ।

दीये छोडो, करो रौशन दिलों को
असल में ये अँधेरे तब मिटेंगे ।

खुदा ने ये कभी सोचा न होगा
जहाँ में नेकी के भी दिन लदेंगे ।

तुम्हारे काम आखिर चाँद आया
सितारे दूर हैं वो क्या करेंगे ?

सदा काँटे ही बोते आ रहे हो
तुम्हें तो हर तरफ कैक्टस दिखेंगे ।

अभी जब धूप हो जायेगी रुख़सत
तो आँगन में ये साये ही बचेंगे ।

जो धब्बे लग चुके हैं आबरु पर
उजालों में भला कैसे छिपेंगे

तुम्हारे त्याग की फ़िहरिस्त लाओ
हमारे पास जो है हम तजेंगे ।

अभी तुम मंजिलों पर हँस रहे हो
किसी दिन रास्ते तुम पर हँसेंगे ।

कुरेदो और ज़ख़्मों को हरे रख्खो
वगर्ना बेजुबाँ लगने लगेंगे ।

अकेला मैं तनिक थक सा गया हूँ
चलो हम साथ में सपने बुनेंगे ।

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पेला जी पहली बार हमारे मुशायरे में नेपाल से तशरीफ़ लाए हैं, उनके स्वागत में तालियाँ। राज़ की बात को उजागर कहता बहुत सुंदर मतला बना है। गिरह के शेर में नूर का पूरी धरा पर बिखरना दीपावली को साकार कर रहा है। सितारों का दूर होना और अंततः चाँद का ही काम आना कई कई अर्थों को समेटे हुए है। काँटे बोते आने वाले लोगों को हर तरफ़ केक्टस दिखना अच्छा प्रयोग है। तुम्हारे त्याग की सूचि माँगने वाला शेर आज की बाबागिरी की दुनिया के लिए आँखों को खोलने वाला है। मंज़िलों पर हँसने वालों पर रास्तों का हँसना भी कमाल है। बहुत ही अच्छी ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तिलक राज कपूर

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खुशी अपनी हम उन में बांट देंगे
और उनके दर्द उनसे मांग लेंगे।

खरे सिक्कों रखो तुम सब्र थोड़ा
समय की बात है खोटे चलेंगे।

लहू से सुर्ख़ है शफ़्फ़ाफ़ चादर
सरू के पेड़ कब तक चुप रहेंगे।

हवाई वायदों से कुछ न होगा
अमल की बात करिये, कब करेंगे।

तेरी आंखों में दिखता है समंदर
हमें तू डूबने दे, थाह लेंगे।

मनाने रूठने के खेल में वो
नए इल्ज़ाम मेरे सर धरेंगे।

अरे अंधियार तू ठहरेगा कब तक
"ये दीपक रात भर यूं ही जलेंगे"।

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तिलक जी का नियम है कि बासी दीपावली में तो वे आते ही हैं, भले ही ताज़ी में भी आ चुके हों। बहुत ही सुंदर मतला है जिसमें प्रेम की ​शिद्दत को महसूस किया जा सकता है। खरे और खोटे वाला शेर तो कमाल का है आज के समय पर पूरी तरह से सटीक। सरू के पेड़ों का चुप रहना, उफ़ ग़ज़ब है। और हवाई वायदों के साथ शायर एक बार फिर से तीखा तंज़ कस रहा है । पलट कर प्रेम में आता शायर आँखों में डूब कर थाह लेना चाह रहा है सुंदर। अंत में गिरह का शेर बहुत अलग तरीक़े से बाँधा है। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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शेख चिल्ली

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यूँ कहने को तो हम सच कह भी देंगे
किसी के कान पर जूँ भी तो रेंगे

हुए हैं ग्रीन बेचारे पटाखे
सुना है अब ये चुपके से फटेंगे

यहाँ पर्यावरण के सब पटाखे
गरीबों के ही कांधों पर फटेंगे

भला क्या सोच कर बोली अदालत
पटाखे दस बजे तक ही चलेंगे

ये आँखें मुन्तज़िर हैं साल भर से
"ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे"

मुझे वो तौलने तो आ गये हैं
तराज़ू में मुक़ाबिल क्या धरेंगे

चलो यह तय रहा दीपावली पर
पटाखे देख कर ही दिल भरेंगे

क़सम खायी है हमने 'शेख चिल्ली'
निठल्ले थे, निठल्ले ही रहेंगे

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शेख चिल्ली ने मतला ही बहुत कमाल बाँधा है। और उसके बाद ग्रीन पटाखे में मिसरा सानी तो एकदम ग़ज़ब बना है। उसके बाद की दोनो शेर त्यौहारों में छेड़छाड़ को लेकर शायर के ग़ुस्से को बता रहा है। गिरह का शेर बहुत बहुत कमाल बना है, रात भर की प्रतीक्षा को बहुत अच्छे से समेटा है। और तराज़ू वाला शेर तो उस्तादाना शेर है, क्या ग़ज़ब वाह वाह। और मकते का शेर तो एकदम ऐसा है कि बस आदमी को अंदर तक आनंद से भर दे। ग़ज़ब भाई ग़ज़ब बहुत सुंदर ग़़ज़ल वाह वाह वाह।

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मन्सूर अली हाश्मी

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करेंगे याद माज़ी की करेंगे
यह दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे।

मुझे 'मी टू'पे 'मिठ्ठु'याद आया
गवाही उसकी ली तो हम फसेंगे!

ढली है उम्र अब आया है 'मी टू'
फ़क़त अल्लाह ही अल्लाह अब करेंगे!

कहा 'मी टू'तो कह दूंगा मैं 'यू टू'
क़फ़स में भी रहे तो संग रहेंगे।

इलाही पत्रकारिता से तौबा
न लिखवाएंगे उनसे ना लिखेंगे

है हमदर्दी हमें भी 'मीटूओं'से
लड़ो तुम तो! वकालत हम करेंगे।

यह दीपों की है संध्या औ' Me-You
सदा ही साथ अब हमतुम रहेंगे

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हाशमी जी इस बार मीटू के पीछे पड़े हैं। मिट्ठू की गवाही और उसके रटंत पर बहुत ही अच्छा शेर कहा है। ढलती उम्र में मीटू का आना शायर को उम्र का एहसास करवा रहा है। यूटू में क़फ़स में साथ रहने की जो मासूम ख़्वाहिश है वह बहुत कमाल है। और पत्र​कारिता से तौबा करता हुआ शायर उस गली जाना ही नहीं चाह रहा है। वकालत का चोगा पहनना चाह रहा है शायर क्योंकि उसे मीटूओं से हमदर्दी है, यह ग़ज़ल तो वायरल शायरल टाइप की हो जाने वाली है सोशल मीडिया पर । लेकिन अंत में बहुत सकारात्मक तरीक़े से ग़ज़ल को अंजाम तक पहुँचाया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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गुरप्रीत सिंह

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वो पहले हम से सब कुछ छीन लेंगे ।
फ़िर उसमें से हमें किश्तों में देंगे ।

जो सपने भी उधारे देखते हों,
कोई सच्चाई कैसे मोल लेंगे ।

सुनो ऐ ज़िन्दगी मैं थक गया हूँ ,
ज़रा आराम कर लूँ ? फ़िर चलेंगे..

तुझे हम जानते हैं यूँ , कि तुझको,
तेरी ख़ामोशी से पहचान लेंगे ।

वो मिसरा-ए-गिरह क्या था ..अरे हाँ,
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे ।

हमारा छीन लो चाहे सभी कुछ,
पर अपने ख़्वाब हम हरगिज़ न देंगे ।

चलो अब चाँद को छूते हैं यारो,
यूँ कब तक दूर से तकते रहेंगे ।

गीत
युवा हैं देश के हम, क्या करेंगे ।। 
ये लगता हैं पकौड़े ही तलेंगे ।।

इसी ख़ातिर है ये दिन रात खपना,
कि पूरा कर सकें इक-आध सपना,
हम अपना वक़्त और सम्मान अपना,
किसी आफिस में जाकर बेच देंगे।
हमें कागज़ के कुछ टुकड़े मिलेंगे ।।

ये हैं इस युग की टैंशन के नतीजे,
सफेदी आई बालों में सभी के,
लगा बढ़ने है बी.पी. भी अभी से,
बुढ़ापे में बताओ क्या करेंगे ।
बुढ़ापे तक तो शायद ही बचेंगे ।। 

ये वातावर्ण है कितना विषैला,
कि सब दिखता है धुँदला और मैला,
प्रदूषण इस तरह हर ओर फ़ैला,
कि मर ही जाएंगे गर सांस लेंगे ।
भला ऐसे में हम कब तक जिएंगे।। 

जो हम समझे हैं वो सब को बताएं,
पटाखे इस दफ़ा हम ना चलाएं,
फ़क़त दीपक बनेरों पर जलाएं,
यही दीपक अंधेरों से लड़ेंगे ।
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे ।।

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गुरप्रीत ने पहले भी एक कमाल की ग़ज़ल कही है और आज भी सुंदर ग़ज़ल लेकर आए हैं। मतला ही ऐसा ग़ज़ब बना है कि तीखा होकर धंस जाता है कलेजे में। सुनो ऐ ज़िंदगी में मिसरा सानी बहुत ही अच्छा बना है एकदम ग़ज़ल के असली अंदाज़ में। यहाँ पर गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है, बहुत बेफ़िक्र होकर कहा गया है यह शेर। ख़्वाब नहीं देने वाला शेर हो या चाँद को पास जाकर छूने का हौसले वाला शेर दोनों बहुत कमाल हैँ। गुरप्रीत ने एक गीत भी भेजा है यह राजनीति पर तंज़ कसते हुए कहा गया है। चार बंदों में अलग अलग प्रकार के भावों को बाँधा है। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।

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राकेश खंडेलवाल

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तमस बढ़ता रहा चोले बदल कर
चले हैं ग़ोटिया अभिमंत्रिता  कर
उजाले की गली में डाल परदे
निरंतर हंस रहा है ये ठठाकर
सहज मन में निराशा उग रही है
तिमिर के मेघ कल क्या छँट सकेंगे
जिन्हें आश्वासनों ने नयन आँजे
कभी वे स्वप्न शिल्पित हो सकेंगे

लिया है स्नेह साँसों का निरंतर
बंटी है धड़कनों  ने वर्तिकाएँ
अंधेरों का न हो साहस तनिक भी
ज़रा सा सामने आ ठहर जाएँ
जली है तीलियाँ जो प्रज्ज्वलन को
उन्हें संकल्प ने ही अग्नि दी है
उन्हें थामे हुए जो उँगलियाँ हैं
सकल निष्ठाओं ने ही सृष्टि की है

ज़रा सा धीर रख ओ थक रहे मन
अंधेरे एक दीपक से सदा ही हारते हैं
उजालों को यहाँ का दे निमंत्रण
सतत तमयुद्ध में ही दीप जीवन वारते हैं
इन्ही  के एक सुर का मान रख कर
चढ़े  रथ भोर दिनकर चल पड़ेंगे
उन्ही की राह के बन मार्गदर्शन
ये दीपक रात भर यूँ ही जलेंगे

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राकेश जी के गीत के साथ हम तरही मुशायरे का समापन कर रहे हैं। बहुत ही सुंदर गीत लेकर आए हैं राकेश जी। उजालों की और तमस की लड़ाई को चित्रित करता पहला ही बंद अंत में कई सारे प्रश्न लेकर खड़ा है। अगले बंद में अँधेरे को चुनौती देकर कवि कहता है कि ज़रा सामने आ ठहर तो जाएँ। और अंतिम बंद में एकदम सकारात्मक दृष्टि से अपने मन को समझाने का प्रयास है। धीरज धरने का कहा जा रहा है मन को कि यह सब तो चलता ही रहता है । बहुत ही सुंदर गीत वाह वाह वाह।

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चलिए तो दीपावली के तरही मुशायरे का आज हम विधिवत समापन करते हैं। आप इन शायरों को दाद देते रहिए। मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में। और हाँ इस बीच अगर भभ्भड़ कवि का मन चला तो वो आ ही जाएँगे अपनी ग़ज़ल लेकर।

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"विभोम-स्वर"का वर्ष : 3, अंक : 12 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2019 अंक का वेब संस्करण

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मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingraएवं संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeerके संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 3, अंक : 12 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2019 अंक का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय। मित्रनामा। साक्षात्कार- अभिनव शुक्ल Abhinav Shuklaके साथ सुधा ओम ढींगरा की बातचीत। कथा कहानी- ऑरेंज कलर के भूत / पारुल सिंह, Parul Singhचोर / महेश शर्मा, Mahesh Sharmaकिस्स और बीफ / डॉ. हेमलता यादव, Hemlata Yadavआबे रवाँ -‘‘चौबीस घण्टे रनिंग वाटर’’ / नकुल गौतम, नकुल गौतमदो क़ैदी / शहादत ख़ान Shahadat Mehinuddin , पीटू / संजय कुमार अविनाश , बड़ा आदमी / गोपाल प्रसाद ‘निर्दोष’ डॉ. गोपाल निर्दोष , काश ! ऐसा न होता..... / निशान्त सक्सेना @nishant saxena । लघुकथाएँ- अपना -पराया / देवेंन्द्र सोनी @davendra soni , जानवर /राजेन्द्र वामन काटदरे Rajendra Waman Katdare , माँ / सुधा गोयल Sudha Goyal , समिधा बनने से पहले / @संगीता कुजारा टाक Sangita Tak , थोड़ी सी ईमानदारी / ज्ञानदेव मुकेश @gyandev mukesh , वायरल वीडियो का सच / मार्टिन जॉन Martin John , एक नई आशा / मुकेश कुमार ऋषि वर्मा Mukesh Kumar Rishiverma। व्यंग्य- विश यू स्पीडी रिकवरी/ मदन गुप्ता सपाटू Madan Gupta Spatu , खिसियानी बिल्ली जूता नोचे / धर्मपाल महेंद्र जैन Dharm Jain , नकलः परमो धर्मः/ अशोक गौतम Ashok Gautam। दृष्टिकोण- हिंदी साहित्य : परम्परा और युवा रचनाशीलता / राहुल देव Rahul Dev। आलेख- पारसी थियेटरः बॉलीवुड के पूर्वज /डॉ. अफ़रोज़ ताज Afroz Taj। ग़ज़लें- सोनिया वर्मा Sonia Verma , गौतम राजऋषि। कविताएँ- प्रियंका भारद्वाज, मुकेश पोपली Mukesh Popli , डॉ. शुभदर्शन @shubhdarshan , अर्चना गौतम मीरा Archana Gautam , प्रणव प्रियदर्शी Pranav Priyadarshi , प्रभात सरसिज Prabhat Sarsij , आरती तिवारी Arti Tiwari। नवगीत- जयप्रकाश श्रीवास्तव JaiPrakash Shrivastava , कृष्ण भारतीय @Krishna bharti । नव पल्लव- यूथिका चौहान @yuthika chauhan । समाचार सार - ज्योति जैन की दो पुस्तकों का विमोचन, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, विक्रम सिंह गोहिल को सृजन सम्मान, काव्य संग्रह का विमोचन, गाँधी जयंती पर संगोष्ठी का आयोजन, ज्योति जैन को कर्मभूमि सम्मान, क्षितिज साहित्य मंच रचना पाठ संगोष्ठी, हिंदी विश्वकोश का गणित खंड भेंट, डॉ. अनिल प्रभा कुमार सम्मानित, सदाशिव कौतुक को ब्रह्मगीर सम्मान, व्यंग्य महोत्सव, लहरों पर कविता, ‘बापू से सीखें’’ का विमोचन, विनोद बब्बर को सौहार्द सम्मान। आख़िरी पन्ना / पंकज सुबीर। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा Babbal Guru डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswamii Shaharyar Amjed Khan Sonu Perwal , आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

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शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 3, अंक : 12 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2019

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मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra , प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी Neeraj Goswamy , संपादक पंकज सुबीर Pankaj Subeer , कार्यकारी संपादक, शहरयार Shaharyar Amjed Khan , सह संपादक पारुल सिंह Parul Singhके संपादन में शिवना साहित्यिकी Shivna Prakashanका वर्ष : 3, अंक : 12 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2019 का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- आवरण कविता / आलोक धन्वा। संपादकीय / शहरयार Shaharyar। व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar। पीढ़ियाँ आमने-सामने / चौपड़े की चुड़ैलें / महेश कटारे Mahesh Katare / पंकज सुबीर Pankaj Subeer। समीक्षा पत्र- एक शहर देवास, कवि नईम और मैं! / डॉ. विजय बहादुर सिंह Vijay Bahadur Singh / प्रकाश कान्त Prakash Kant। कथा समीक्षा- मालूशाही! मेरा छलिया-बुरांश / पंकज सुबीर Pankaj Subeer / प्रज्ञा Pragya Rohini। मर... नासपीटी ! / चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी / सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra / पंकज सुबीर Pankaj Subeer। नई पुस्तक- मैं रुक जाऊँ, तो तुम चलना... / डॉ. सुशील सिद्धार्थ Sushil Siddharth। फ़िल्म समीक्षा- बधाई हो / वीरेन्द्र जैन Virendra Jain / निर्देशकः अमित रविन्द्रनाथ शर्मा। पुस्तक चर्चा- आतंकवाद पर बातचीत / तेजस पूनिया Tejas Poonia / डॉ. पुनीत बिसारिया, अश्वत्थामा यातना का अमरत्व / दीपक गिरकर Deepak Girkar / अनघा जोगलेकर, नई मधुशाला / अशोक अंजुम Ashok Anjum / सुनील बाजपेयी ‘सरल’, कितना कारावास / राजेंद्र मोहन भटनागर / मुरलीधर वैष्णव Murlidhar Vaishnav। पुस्तक समीक्षा- राग मारवा / अंकित नरवाल Ankit Narwal / ममता सिंह Mamta Singh , ख़ुद से जिरह / जीवन सिंह ठाकुर @jeevan singh thakur / विनोद डेविड, भीतर दबा सच / डॉ. दामोदर खड़से Damodar Khadse / डॉ. रमाकांत शर्मा, संकल्प और सपने / विनिता राहुरिकर Vinita Rahurikar / सदाशिव कौतुक Sadashiv Kautuk , तब तुम कहाँ थे ईश्वर / कुमार विजय गुप्त / आरती तिवारी Arti Tiwari , हरिप्रिया / ऋतु भनोट Bhanot Ritu / कृष्णा अग्निहोत्री Krishna Agnihotri , आज़ादी का जश्न / प्रभाशंकर उपाध्याय @prabhashankar upadhay / राजशेखर चौबे, चारों ओर कुहासा है / डॉ. अजय अनुपम / रघुवीर शर्मा Raghuvir Sharma , भास्कर राव इंजीनियर / घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ Ghanshyam Maithil Amrit / अरुण अर्णव खरे Arun Arnaw Khare , सच कुछ और था / डॉ. सीमा शर्मा सीमा शर्मा / सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra। नाटक समीक्षा- राजा की रसोई, प्रज्ञा Pragya Rohini / रमेश उपाध्याय Ramesh Upadhyaya। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा बब्बल गुरू Babbal Guru , डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny GoswamiSonu Perwal। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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